जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला
From जैनकोष
जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला । संग साथी कोई नहिं तेरा ।।टेक ।।
अपना सुखदुख आप हि भुगतै, होत कुटुंब न भेला ।
स्वार्थ भयैं सब बिछुरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ।।१ ।।
रक्षक कोइ न पूरन ह्वै जब, आयु अंत की बेला ।
फूटत पारि बँधत नहीं जैसें, दुद्धर-जलको ठेला ।।२ ।।
तन धन जीवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजाल का खेला ।
`भागचन्द' इमि लख करि भाई, हो सतगुरु का चेला ।।३ ।।