ज्ञानाचार
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
परमात्मप्रकाश 7/13
तत्रेव संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः।
= और उसी निज स्वरूप में, संशय-विमोह विभ्रम रहित जो स्वसंवेदन ज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उस रूप परिणमन वह (निश्चय) ज्ञानाचार है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 269
काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो ॥269॥
= स्वाध्याय का काल, मन वचन काय से शास्त्र का विनय यत्न से करना, पूजा-सत्कारादि से पाठ करना, अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पढ़ें हुए शास्त्र का नाम प्रगट करना छिपाना नहीं, वर्ण पद वाक्य की शुद्धि से पढ़ना, अनेकांत स्वरूप अर्थ को शुद्धि अर्थ सहित पाठादिक की शुद्धि होना, इस तरह ज्ञानाचार के आठ भेद हैं।
अधिक जानकारी के लिये देखें आचार ।।
पुराणकोष से
पंचविध चारित्र का एक भेद । इसमें आठ दोषों (शब्द, अर्थ आदि की भूलों) से रहित सम्यक्ज्ञान प्राप्त किया जाता है । महापुराण 20.173, पांडवपुराण 23.55-56