द्रव्य परिवर्तनरूप संसार
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/2 तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीता: स्निग्धरूपवर्णगंधादिभिस्तीव्रमंदमध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निजीर्णा अगृहीताननंतबारानतीत्य मिश्रकांश्चानंतवारानतीत्य मध्ये गृहीतांश्चानंतबारानतीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यंते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते - एकस्मिन्समये एकेन जीवेनाष्टविधकर्मभावेन ये गृहीता: पुद्गला: समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा:, पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यंते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं उक्तं च - सव्वे पि पुग्गला खलु कमसो भुत्तुज्झिया य जीवेण। असइं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे। = नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन का स्वरूप कहते हैं - किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया। अनंतर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गंध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मंद और मध्यम भाव से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को अनंतबार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनंत बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनंत बार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन है। अब कर्मद्रव्यपरिवर्तन का कथन करते हैं - एक जीव ने आठ प्रकार के क्रमरूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकाल के बाद द्वितीयादिक समयों में झर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन होता है। इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रम से भोगकर छोड़ा है। और इस प्रकार यह जीव अनंतबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में घूमता रहता है
अधिक जानकारी के लिेये देखें संसार - 2।