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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

पाप

From जैनकोष

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सिद्धांतकोष से

  1. निरुक्तिः
    सर्वार्थसिद्धि/6/3/320/3 पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्। तद सद्वेद्यादि। = जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है। जैसे - असाता वेदनीयादि। ( राजवार्तिक/6/3/5/507/14 )।
    भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/21 पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकं। = अनिष्ट पदाथो की प्राप्ति जिससे होती है, ऐसे कर्म को (भावों को) पाप कहते हैं।
    1. अशुभ उपयोग
      प्रवचनसार/181 सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं त्ति भण्यिमण्णेसु। = पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है, और अशुभ परिणाम पाप है।
      द्रव्यसंग्रह मूल/38 असुहभावजुत्ता... पावं हवंति खलु जीवा। 38। = अशुभ परिणामों से युक्त जीव पाप रूप होते हैं।
      स.म./27/302/17 पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म। = पाप हिंसादि से होनेवाले अशुभकर्म रूप होता है।
    2. निंदित आचरण
      पंचास्तिकाय/140 सण्णांओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अत्तरुद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति। 140। = चारों संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, इंद्रियवशता, आर्त रौद्रध्यान, दुःप्रयुक्त ज्ञान और मोह - यह भाव पापप्रद हैं। 140।
      नयचक्र बृहद्/162 अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं। 162। = अशुभ वेदादि के कारण जो अव्रतादि भाव हैं उनको शास्त्र में पाप कहा गया है।
      योगसार (अमितगति)/4/38 निंदकत्वं प्रतीक्ष्येषु नैर्वृण्यं सर्वजंतुषु। निंदिते चरणे रागः पापबंधविधायकः। 38। = अर्हंतादि पूज्य पुरुषों की निंदा करना, समस्त जीवों में निर्दय भाव रहना और निंदित आचरणों में प्रेम रखना आदि बंध का कारण हैं।
  2. पाप का आधार बाह्य द्रव्य नहीं
    सर्वार्थसिद्धि/6/11/330/1 परमकरुणाशयस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गंडं पाटयतो दुःखहेतुत्वे स्त्यपि न पापबंधो बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति। = अत्यंत दयालु किसी वैद्य के फोड़े की चीर-फाड़ और मरहम पट्टी करते समय निःशल्य संयत को दुःख देने में निमित्त होने पर भी केवल बाह्य निमित्त मात्र से पाप बंध नहीं होता।
    देखें पुण्य - 1.4 (पुण्य व पाप में अंतरंग प्रधान है)।
  3. पाप (अशुभ नामकर्म) के बंध योग्य परिणाम
    तत्त्वार्थसूत्र/6/3,22 ....अशुभः पापस्य। 3। योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। 22। = अशुभ योग पापास्रव का कारण है। 3। योग वक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं। 22।
    पंचास्तिकाय/139 चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु। परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि। 139। = बहु प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, पर को परिताप करना तथा पर के अपवाद बोलना - वह पाप का आस्रव करता है। 139।
    मूलाचार/235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि। 235। = ... शुभ से विपरीत निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्म के आस्रव के कारण हैं। 235।
    राजवार्तिक/6/22/4/528/18 चशब्दः क्रियते अनुक्तस्यास्रवस्य समुच्चयार्थः। कः पुनरसौ। मिथ्यादर्शन-पिशुनताऽस्थिरचित्तस्वभावता-कूटमानतुलाकरण-सुवर्णमणिरत्नाद्यकृति-कुटिलसाक्षित्वांगोपांग - च्यावनवर्णगंधरसस्पर्शांयथाभावन-यंत्रपंजरक्रियाद्रव्यांतरविषय - संबंधनिकृतिभूयिष्ठता - परनिंदात्मप्रशंसा-नृतवचन परद्रब्यादान - महारंभपरिग्रह - उज्ज्वलवेषरूपमद - परूषासभ्यप्रलाप - आक्रोश - मौखर्य - सौभाग्योपयोगवशीकरणप्रयोगपरकुतूहलोत्पादनालकारा - दर - चैतंयप्रदेशगंधमाल्यधूपादिमोषण - विलंबनोपहास - इष्टिकापाक - दवाग्निप्रयोग - प्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानविनाशनतीवक्रोधमान - मायालोभ - पापकर्मोपजीवनादिलक्षणः। स एष सर्वोऽशुभस्य नाम्न आस्रवः। = च शब्द अनुक्त के समुच्चयार्थ है। मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिर चित्तस्वभावता, झूठे बाट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अंग उपांगों का छेदन, वर्ण गंध रस और स्पर्श का विपरीतपना, यंत्र पिंजरा आदि बनाना, माया बाहुल्य, परनिंदा, आत्म प्रशंसा, मिथ्या भाषण, पर द्रव्यहरण, महारंभ, महा परिग्रह, शौकीन वेष, रूप का घमंड, कठोर असभ्य भाषण, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरे में कौतूहल उत्पन्न करना, भूषणों में रुचि, मंदिर के गंधमाल्य या धूपादि का चुराना, लंबी हँसी, ईंटों का भट्टा लगाना, वन में दावाग्नि जलवाना, प्रतिमायतन विनाश, आश्रय-विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीव्र क्रोध, मान, माया व लोभ और पापकर्म जीविका आदि भी अशुभ नाम के आस्रव के कारण हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/5 ); ( ज्ञानार्णव/2/7/4-7 )
  4. पाप का फल दुःख व कुगतियों की प्राप्ति
    तत्त्वार्थसूत्र/7/9-10 हिंसादिष्विहामुत्रापायवद्यदर्शनम्। 9। दुःखमेव वा। 10। = हिंसादिक पाँच दोषों का ऐहिक और पारलौकिक उपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है। 9। अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए। 10।
    प्रवचनसार/12 असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंता। 12। = अशुभ उदय से कुमानुष, तिर्यंच, और नारकी होकर हजारों दुखों से सदा पीड़ित होता हुआ (संसार में) अत्यंत भ्रमण करता है। 12।
    धवला 1/1,1,2/105/5 काणि पावफलाणि। णिरय-तिरियकुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-वाहि-बेयणा-दालिद्दादीणि। = प्रश्न - पाप के फल कौन से हैं? उत्तर - नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।
  5. पाप अत्यंत हेय है
    समयसार / आत्मख्याति/306 यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्धयाभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुंभ एव। = प्रथम तो जो अज्ञानजनसाधारण (अज्ञानी लोगों को साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभाव रूप स्वभाववाले हैं इसलिए स्वयमेव अपराध स्वरूप होने से विषकुंभ ही हैं। (क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य हैं।)
    प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/12 ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यंतहेय एवायमशुभोपयोग इति। = चारित्र के लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यंत हेय है।
  6. अन्य संबंधित विषय
    1. व्यवहार धर्म परमार्थतः पाप है। - देखें धर्म - 4।
    2. पापानुबंधी पुण्य। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
    3. पुण्य व पाप में कथंचित् भेद व अभेद। - देखें पुण्य - 2,4।
    4. पाप की कथंचित् इष्टता। - देखें पुण्य - 3।
    5. पाप प्रकृतियों के भेद। - देखें प्रकृतिबंध - 2।
    6. पाप का आस्रव व बंध तत्त्व में अंतर्भाव। - देखें पुण्य - 2/4।
    7. पूजादि में कथंचित् सावद्य हैं फिर भी वे उपादेय हैं। - देखें धर्म - 5.1।
    8. मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। - देखें मिथ्यादर्शन ।
    9. मोह-राग-द्वेष में पुण्य-पाप का विभाग। - देखें राग - 2।


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पुराणकोष से

दुश्चरित । इसके पाँच भेद हैं― हिंसा, अनृत (झूठ), चोरी, अन्यरामारति और आरंभ-परिग्रह । महापुराण 2.23, हरिवंशपुराण 58.127-133

(2) राम का शार्दूलवाही एक योद्धा । पद्मपुराण 58. 6-7

(3) एक अस्त्र । यह धर्मास्त्र से नष्ट होता है । पद्मपुराण 74.104


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