योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 370
From जैनकोष
निर्मत्व मुनिराज का स्वरूप -
उपधौ वसतौ सङ्घे विहारे भोजने जने ।
प्रतिबन्धं न बध्नाति निर्म त्वमधिष्ठित: ।।३७०।।
अन्वय :- उपधौ वसतोै सङ्घे विहारे भोजने जने निर्मत्वं-अधिष्ठित: (योगी) प्रतिबन्धं न बध्नाति ।
सरलार्थ :- आगम से मान्यता प्राप्त पीछी, कमंडलु, शास्त्ररूप धर्म के बाह्य साधनस्वरूप परिग्रह में अथवा देहमात्र परिग्रह में, निर्जन-जंगलस्थित निवासयोग्य गुफादिक आवासस्थान में, कथंचित् परिचित साधर्मी मुनिराजों में, शास्त्रानुसार किये जानेवाले विहारकार्य में, अनुद्दिष्ट सरस- नीरस आहार में, भक्ति करनेवाले भक्तजनों में निर्मत्त्व को प्राप्त मुनिराज राग अर्थात् ममत्व नहीं करते ।