योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 371
From जैनकोष
प्रमाद ही हिंसा में कारण -
अशने शयने स्थाने गमे चङ्क्रमणे ग्रहे ।
प्रमादचारिणो हिंसा साधो: सान्ततिकीरिता ।।३७१।।
अन्वय :- अशने शयने स्थाने गमे चङ्क्रमणे ग्रहे प्रमादचारिण: साधो: सान्ततिकीरिता हिंसा ।
सरलार्थ :- जो साधु खाने-पीने में, लेटने-सोने में, उठने-बैठने में, चलने-फिरने में, हस्तपादाि दक के पसारने में, किसी वस्तु को पकड़ने में, छोड़ने या उठाने-धरने में प्रमाद करता है - यत्नाचार से प्रवृत्त नहीं होता - उसके निरन्तर हिंसा कही गयी है - भले ही वैसा करने में कोई जीव मरे या न मरे ।