योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 372
From जैनकोष
प्रमाद-अप्रमाद का उदाहरण -
गुणायेदं सयत्नस्य दोषायेदं प्रमादिन: ।
सुखाय ज्वरहीनस्य दु:खाय ज्वरिणो घृतम् ।।३७२।।
अन्वय :- (यथा) ज्वरहीनस्य घृतं सुखाय, ज्वरिण: दु:खाय (भवति) सयत्नस्य इदं (आचरणं) गुणाय, प्रमादिन: (च) इदं दोषाय (भवति)।
सरलार्थ :- जिसप्रकार ज्वररहित मनुष्य को घी का सेवन शरीर के लिये सुखदाता सिद्ध होता है और उस ही घी का सेवन ज्वरसहित मनुष्य को दु:ख का कारण बन जाता है; उसीप्रकार यत्नाचार से अर्थात् प्रमादरहित होकर किया गया खाना-पीना, लेटना-सोना आदि सब आचरण एक को गुणकारी अर्थात् संवर-निर्जरारूप धर्म का कारण सिद्ध होता है और अयत्नाचार से अर्थात् प्रमादसहित होकर किया गया वही खाना-पीना आदि सब आचरण दूसरे को दु:खकारी अर्थात् आस्रव-बंध का कारण बन जाता है ।