योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 388
From जैनकोष
मात्र बाह्यशुद्धि अविश्वसनीय -
अन्त:शुद्धिं बिना बाह्या न साश्वासकरी मता ।
धवलोsपि बको बाह्ये हन्ति मीनानेकश: ।।३८८।।
अन्वय :- (यथा) बक: बाह्ये धवल: अपि अनेकश: मीनान् हन्ति । तथा अन्त:शुद्धिं विना बाह्या (शुद्धिं) साश्वासकरी न मता ।
सरलार्थ :- जैसे बगुला बाह्य में धवल/उज्ज्वल होने पर भी अंतरंग अशुभ परिणामों से अनेक मछलियों को मारता ही रहता है; वैसे अन्तरंग की शुद्धि के बिना अर्थात् निश्चयधर्मरूप वीतरागता के अभाव में मात्र बाह्यशुद्धि अर्थात् मात्र २८ मूलगुणों के पालनरूप व्यवहारधर्म/ द्रव्यलिंगपना विश्वास के योग्य नहीं है अर्थात् कुछ कार्यकारी नहीं है - संसारवर्धक ही है ।