योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 389
From जैनकोष
प्रमाद और अप्रमादभाव का फल -
योगी षट्स्वपि कायेषु सप्रमाद: प्रबध्यते ।
सरोजमिव तोयेषु निष्प्रमादो न लिप्यते ।।३८९।।
अन्वय :- तोयेषु सरोजं इव (य:) योगी (षट्सु अपि कायेषु) निष्प्रमाद: (वर्तते स: कर्मणा) न लिप्यते । (य: योगी) षट्सु अपि कायेषु सप्रमाद: (वर्तते स: कर्मणा) प्रबध्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार जल में कमल जल से सर्वथा अस्पर्शित रहता है अर्थात् जल का कमल से किंचित् भी स्पर्श नहीं होता; उसीप्रकार जो योगी प्रमाद से षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते, वे ज्ञानावरणादि कर्मो से नहीं बंधते और जो प्रमाद से षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं, वे कर्मो से बंधते हैं ।