योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 391
From जैनकोष
अति अल्प परिग्रह भी बाधक -
एकत्राप्यपरित्यक्ते चित्तशुद्धिर्न विद्यते ।
चित्तशुद्धिं बिना साधो: कुतस्त्या कर्म-विच्युति: ।।३९१।।
अन्वय :- एकत्र अपि अपरित्यक्ते (उपधौ) चित्तशुद्धि: न विद्यते । (च) चित्तशुद्धिं विना साधो: कर्म-विच्युति: कुतस्त्या ?
सरलार्थ :- यदि मुनिराज एक भी परिग्रह का त्याग नहीं करेंगे अर्थात् अत्यल्प भी परिग्रह का स्वीकार करेंगे तो - उनके चित्त की पूर्णत: विशुद्धि नहीं हो सकती और चित्तशुद्धि के बिना साधु की कर्मो से मुक्ति कैसे होगी? अर्थात् परिग्रह सहित साधु कर्मो से मुक्त नहीं हो सकते ।