योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 411
From जैनकोष
यस्येह लौकिकी नास्ति नापेक्षा पारलौकिकी ।
युक्ताहारविहारोsसौ श्रमण: सममानस: ।।४११।।
अन्वय :- यस्य (महापुरुषस्य) इह न लौकिकी अपेक्षा अस्ति न पारलौकिकी; युक्ताहार- विहार: असौ (महापुरुष:) सममानस: श्रमण: (अस्ति) ।
सरलार्थ :- जिस महामानव को इहलोक एवं परलोक संबंधी भोगादिक की अपेक्षा नहीं है अर्थात् जो भोगों से सर्वथा निरपेक्ष हैं, जो सर्वज्ञ कथित आगम के अनुसार योग्य आहार-विहार से सहित हैं और जो समचित्त के धारक/राग-द्वेष से रहित हैं अर्थात् अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतराग परिणाम से परिणमित हैं, वे ही महापुरुष श्रमण हैं ।