योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 420
From जैनकोष
मुनिराज के हाथ में प्राप्त अन्न दूसरे को देय नहीं -
पिण्ड: पाणि-गतोsन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते ।
दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुङ्क्ते चेद् दोषभाग् यति: ।।४२०।।
अन्वय :- पाणि-गत: पिण्ड: अन्यस्मै दातुं योग्य: न युज्यते, दीयते चेत् (यतिना पुन:) न भोक्तव्य:, भुङ्क्ते चेत् यति: दोषभाग् (भवति)।
सरलार्थ :- दातारों से मुनिराज के हाथ में प्राप्त हुआ प्रासुक आहार दूसरों को देनेयोग्य नहीं है । यदि मुनिराज हस्तगत आहार दूसरे को देते हैं तो उन्हें उस समय पुन: आहार नहीं लेना चाहिए । यदि वे मुनिराज हस्तगत अन्न अन्य को देकर भी स्वयं उसी समय आहार ग्रहण करते हैं तो वे दोष के भागी होते हैं ।