योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 433
From जैनकोष
शास्त्रज्ञान से रहित साधक का स्वरूप -
कान्तारे पतितो दुर्गे गर्ताद्यपरिहारत: ।
यथाsन्धो नाश्नुते मार्गमिष्टस्थान-प्रवेशकम् ।।४३३।।
पतितो भव-कान्तारे कुमार्गापरिहारत: ।
तथा नाप्नोत्यशास्त्रज्ञो मार्ग मुक्तिप्रवेशकम् ।।४३४।।
अन्वय :- यथा दुर्गे कान्तारे पतित: अन्ध: गर्तादि-अपरिहारत: इष्ट-स्थान-प्रवेशकं मार्गं न अश्नुते, तथा भव-कान्तारे पतित: अशास्त्रज्ञ: कुमार्ग-अपरिहारत: मुक्ति-प्रवेशकं मार्गं न आप्नोति ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार दुर्ग वन में पड़ा अर्थात् फँसा हुआ अँधा मनुष्य खड्डे आदि प्रतिकूल स्थानों का परित्याग न कर सकने से अपने इष्ट अर्थात् अभिप्रेत स्थान में प्रवेश करानेवाले मार्ग को नहीं पा सकता है । उसीप्रकार चतुर्गतिरूप दु:खद संसार-वन में भटकता हुआ शास्त्रज्ञान से रहित जीव कुमार्ग का त्याग न कर सकने से मुक्ति में प्रवेश करानेवाले मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उस सन्मार्ग पर नहीं लगता, जिसपर चलने से मुक्ति की प्राप्ति होती है ।