योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 470
From जैनकोष
ध्यान का लक्षण -
ध्यानं विनिर्मलज्ञानं पुंसां संपद्यते स्थिरम् ।
हें क्षीणमलं किं न कल्याणत्वं प्रपद्यते ।।४७०।।
अन्वय :- पंुसां विनिर्मलज्ञानं (यदा) स्थिरं (भवति; तदा) ध्यानं संपद्यते । (यत:) क्षीणमलं हें किं कल्याणत्वं न प्रपद्यते ? (प्रपद्यते एव ।) ।
सरलार्थ :- पुरुषों का अर्थात् जीवों का निर्मल/सम्यग्ज्ञान जब स्थिर होता है, तब उस ज्ञान को ही ध्यान कहते हैं । यह ठीक ही है, क्योंकि किट्ट-कालिमादिरूप मल से रहित हुआ सुवर्ण क्या कल्याणपने को प्राप्त नहीं होता? अर्थात् शुद्ध सुवर्ण कल्याणपने को प्राप्त होता ही है । इस संसार में निर्मल सुवर्ण को कल्याण नाम से भी जाना जाता है ।