योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 477
From जैनकोष
ज्ञानी भोगों में अनासक्त और अनासक्ति से मोक्ष -
मायाम्भो मन्यतेsसत्यं तत्त्वतो यो महामना: ।
अनुद्विग्नो निराशङ्कस्तन्मध्ये स न गच्छति ।।४७७।।
मायातोयोपमा भोगा दृश्यन्ते येन वस्तुत: ।
स भुञ्जानोsपि नि:सङ्ग: प्रयाति परमं पदम् ।।४७८।।
अन्वय :- य: महामना: मायाम्भ: तत्त्वत: असत्यं मन्यते स: (तत्प्रति) अनुद्विग्न: निराशङ्क: (अत एव) तन्मध्ये न गच्छति । येन भोगा: मायातोयोपमा दृश्यन्ते स: वस्तुत: (भोगान्) भुञ्जान: अपि नि:सङ्ग: (वर्तयन्) परमं पदं प्रयाति ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार महामना/सम्यग्दृष्टि/ज्ञानी/मोक्षमार्गी जीव मायाजल अर्थात् मृगमरीचिका को वास्तविक रीति से असत्य जानते हैं; अत: वे उससे न उद्विग्न होते हैं, न आकुलित होते हैं और न उसमें रमते हैं । उसीप्रकार जिन्हें पंचेन्द्रियों के भोग वास्तव में माया के समान असत्य/आभासमात्र दिखाई देते हैं, वे महामना/महात्मा जीव भोगों को भोगते हुए भी आसक्ति के अभाव से नि:संग वर्तते हुए परमपद/मोक्ष को पाते हैं ।