योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 489
From जैनकोष
निज परम तत्त्व एक ही उपादेय
विविक्तमान्तरं ज्योतिर्निराबाधमनामयम् ।
यदेतत् तत्परं तत्त्वं तस्यापरमुपद्रव: ।।४८९।।
अन्वय :- यत् एतत् विविक्तं निराबाधं (च) अनामयं आन्तरं ज्योति: (अस्ति), तत् परं तत्त्वं (अस्ति) । तस्य अपरं (सर्वं) उपद्रव: ।
सरलार्थ :- यह जो विविक्त अर्थात् कर्मरूपी कलंक से रहित-अनादि अनंत, स्वभाव से सर्वथा शुद्ध, निर्भय, निरामय/निर्विकार अंतरंग ज्योति अर्थात् ज्ञानमय आत्मतत्त्व है, वही परम तत्त्व है, उससे भिन्न अन्य सब उपद्रव है ।