योगसार - जीव-अधिकार गाथा 11
From जैनकोष
दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का क्रम -
यौगपद्येन जायेते केवलज्ञान-दर्शने ।
क्रमेण दर्शनं ज्ञानं परं नि:शेषमात्मन: ।।११।।
अन्वय :- आत्मन: केवलज्ञान-दर्शने यौगपद्येन जायेते । नि:शेषं परं दर्शनं ज्ञानं क्रमेण (जायेते) ।
सरलार्थ :- आत्मा के केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग युगपत्/एकसाथ प्रगट होते हैं । शेष सब दर्शन - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ये तीन दर्शन; ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान एवं विभंगज्ञान ये सात ज्ञान क्रम से उदय को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रगट होते हैं । भावार्थ:- अल्पज्ञ जीवोंं को नियम से दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है । अत: क्षायोपशमिक चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान दर्शनपूर्वक ही होते हैं । सर्वज्ञ जीवों को दर्शन और ज्ञान युगपत्/एकसाथ ही होते हैं । यदि सर्वज्ञ अवस्था में भी दर्शन और ज्ञान के होने में क्रम माना जायेगा तो जब जीव केवलदर्शन करेगा, तब वह केवलज्ञान न करने के कारण सर्वज्ञ नहीं रहेगा अर्थात् इस मान्यता के कारण कोई भी जीव सदा केवलज्ञानी नहीं हो पायेगा । अत: केवलदर्शन व केवलज्ञान को युगपत् मानना तर्कसंगत भी है ।