योगसार - जीव-अधिकार गाथा 13
From जैनकोष
मिथ्यात्व का स्वरूप और कार्य -
वस्त्वन्यथापरिच्छेदो ज्ञाने संपद्यते यत: ।
तन्मिथ्यात्वं मतं सद्भि: कर्मारामोदयोदकम् ।।१३।।
अन्वय :- यत: ज्ञाने वस्तु-अन्यथा-परिच्छेद: संपद्यते तत् मिथ्यात्वं (भवति इति) सद्भि: मतं । तत् कर्मारामोदयोदकं (कर्म-आरामस्य उदयस्य कृते उदकं इव अस्ति) ।
सरलार्थ :- जिसके कारण ज्ञान में वस्तु की अन्यथा/विपरीत जानकारी होती है, उसको सत्पुरुषों ने मिथ्यात्व माना है । वह मिथ्यात्व कर्मरूपी बगीचे को उगाने के लिये जल के समान है । भावार्थ:- जीव द्रव्य के अनंत गुणों में एक ज्ञान गुण ही सविकल्प है, अन्य सर्व गुण नियम से निर्विकल्प हैं । अत: एक ज्ञान गुण के आधार से ही अन्य गुणों की एवं अन्य गुणों के पर्यायों की जानकारी दी जाती है, दूसरा कुछ उपाय भी नहीं है । मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा तो श्रद्धा गुण का कार्य है, इस विपरीतता को श्रद्धा गुण द्वारा समझाया नहीं जा सकता । इसलिये ज्ञान गुण का, जो विपरीत जाननेरूप कार्य है, उसके द्वारा श्रद्धा की विपरीतता को बताया गया है । श्रद्धा को यथार्थ बताने के लिये भी एक ज्ञान गुण के परिणमन का ही आधार लेकर जीवों को समझाया जाता है कि, वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करोगे तो ही मिथ्यात्व टलेगा । इसलिये मिथ्या श्रद्धा से परिणत जीवों को वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करने की ही प्रेरणा दी जाती है । स्वाध्याय करो, शास्त्र पढ़ो, उपदेश सुनो, सत्समागम करो - ऐसा ही उपदेश योग्य है, दूसरा कुछ उपाय भी नहीं हैं ।