योगसार - जीव-अधिकार गाथा 12
From जैनकोष
मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के कारण -
मिथ्याज्ञानं मतं तत्र मिथ्यात्वसमवायत: ।
सम्यग्ज्ञानं पुनर्जैनै: सम्यक्त्वसमवायत:।।१२।।
अन्वय :- तत्र (ज्ञानोपयोगे) मिथ्यात्वसमवायत: मिथ्याज्ञानं (भवति), पुन: सम्यक्त्वसम वायत: सम्यग्ज्ञानं (भवति इत्थं) जैनै: मतम्।
सरलार्थ :- जैनदर्शन में ज्ञान को मिथ्यात्व के निमित्त से मिथ्याज्ञान और सम्यक्त्व के निमित्त से सम्यग्ज्ञान माना गया है । भावार्थ:- निमित्त-नैमित्तिक संबंध का कथन शास्त्र में दो द्रव्यों की भिन्न-भिन्न पर्यायों में ही मुख्यरूप से बताया जाता है । इस संबंध को जानकर ज्ञानी जीव एक द्रव्य अथवा एक द्रव्य की पर्याय को दूसरे द्रव्य अथवा दूसरे द्रव्य की पर्याय का कर्त्ता नहीं मानते, नही समझते; अपितु मात्र निमित्त जानते/मानते हैं । अज्ञानी इस संबंध के आधार से द्रव्य को अथवा पर्यायों को परतंत्र मानते हैं । यहाँ इस श्लोक में एक ही जीवद्रव्य के दो गुणों के (श्रद्धा और ज्ञान) परिणमन में निमित्त- नैमित्तिक संबंध का ग्रंथकार ज्ञान करा रहे हैं, कर्त्ता-कर्म संबंध का नहीं ।