योगसार - जीव-अधिकार गाथा 48
From जैनकोष
परमेष्ठी की उपासना से कर्मक्षय नहीं होता -
यो विहायात्मनो रूपं सेवते परमेष्ठिन: ।
स बध्नाति परं पुण्यं न कर्मक्षयमश्नुते ।।४८।।
अन्वय :- य: आत्मन: रूपं विहाय परमेष्ठिन: सेवते स: पुण्यं बध्नाति; परं कर्मक्षयं न अश्नुते ।
सरलार्थ :- जो कोई आत्मा के रूप (स्वरूप) को छोड़कर अरहन्तादि परमेष्ठियों के रूप (स्वरूप) को ध्याता है, वह उत्कृष्ट पुण्य तो बांध लेता है; परन्तु कर्मक्षय को प्राप्त नहीं होता ।