योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 272
From जैनकोष
अपरिग्रही योगीराज की निर्जरा -
अहमस्मि न कस्यापि न ममान्यो बहिस्तत: ।
इति निष्किंचनो योगी धुनीते निखिलं रज: ।।२७२।।
अन्वय :- अहं न कस्य अपि अस्मि, न अन्य: बहि: मम (अस्ति), इति तत: (परद्रव्यत:) निष्किंचन: योगी निखिलं रज: धुनीते ।
सरलार्थ :- मैं किसी भी पुत्र-कलत्रादि का नहीं हूँ और न अन्य पुत्रादि अथवा धनादि बाह्य पदार्थ मेरे हैं; इसप्रकार किसी भी रूप से पर को न अपनाते हुए अपरिग्रही/नि:संग योगिराज सारे कर्मरूपी रज को नष्ट कर देते हैं ।