योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 177
From जैनकोष
कर्म एवं गति के कारणों का निर्देश -
कर्म गृह्णाति संसारी कषाय-परिणामत: ।
सुगतिं दुर्गतिं याति जीव: कर्म-विपाकत: ।।१७७।।
अन्वय :- संसारी जीव: कषाय-परिणामत: कर्म गृह्णाति, (च) कर्म-विपाकत: सुगतिं दुर्गतिं याति ।
सरलार्थ :- संसारी-जीव कषायादि मोह परिणाम से कर्म को ग्रहण करता है अर्थात् कर्म को बाँधता है और पूर्व बद्ध कर्म के अनुभागोदय से सुगति तथा दुर्गति को प्राप्त होता है ।