योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 179
From जैनकोष
रागादि भावों से दु:ख -
ततो भवन्ति रागाद्यास्तेभ्यो दुरित-संग्रह: ।
तस्माद् भ्रति संसारे ततो दु:खमनेकधा ।।१७९।।
अन्वय :- तत: (विषय-ग्रहणत:) रागाद्या: भवन्ति । तेभ्य: (रागादिभ्य:) दुरित-संग्रह: (जायते) । तस्मात् (जीव:) संसारे भ्रति । तत: (संसारत:) अनेकधा-दु:खं (प्राप्नोति) ।
सरलार्थ :- प्राप्त इंद्रियों से विषय-ग्रहण के कारण राग-द्वेषादिक उत्पन्न होते हैं । रागादिक से पुण्य-पापरूप दु:खद कर्मो का संचय-अर्थात् बन्ध होता है और उस कर्मबन्ध के कारण अनेक प्रकार का दु:ख प्राप्त होता है ।