योगसार - संवर-अधिकार गाथा 238
From जैनकोष
स्तव का स्वरूप -
रत्नत्रयमयं शुद्धं चेतनं चेतनात्मकम् ।
विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवजै: स्तूयते स्तव: ।।२३८।।
अन्वय :- (साधव:) चेतनात्मकं रत्नत्रयमयं शुद्धं विविक्तं चेतनं नित्यं स्तुवत: स्तवजै: स्तव: स्तूयते ।
सरलार्थ :- निजशुद्धात्म तत्त्व में लीन मुनिराज चेतन गुण विशिष्ट, रत्नत्रयमय और कर्मरूपी कलंक से रहित शुद्ध चेतन द्रव्य की जो नित्य स्तुति करते हैं, उस स्तुति को स्तव-मर्मज्ञों ने स्तव कहा है ।