वर्णीजी-प्रवचन:आत्मकीर्तन - छंद 1
From जैनकोष
आत्मा की खासियत जानने की आवश्यकता―यह आत्मकीर्तन की टेक है, इसमें आत्मा का कीर्तन किया गया है 1 कीर्तन कहते हैं स्तवन को, उसकी खासियत बताने कौ । सर्वप्रथम यह निर्णय करिये कि आत्मा की खासियत जानने की जरूरत है क्या? देखिये जगत के सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं । इन जीवों को सिर्फ इतना प्रयोजन है कि हम को सुख मिले और दुःख न रहे । इसके अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन नहीं ꠰ जितने भी काम किये जाते हैं चाहे थे बड़े ऊंचे देश के कार्य हों, समाज के कार्य हों, किसी भी विषय के कार्य हो; उन सब कार्यों के किए जाने का मूल प्रयोजन है कि हम को सुख शान्ति मिले । उन कार्यों के करते हुए यदि सुख शान्ति नहीं मिल पायी तो वे उन कार्यों को न कर सकेंगे । अपनी शान्ति की आशा से ही सारे कार्य किए जाते हैं, तो इसमें तो संदेह नहीं कि हमारा प्रयोजन शान्ति पाने का है, हम शान्ति कैसे पायें? इसके लिए बहुत तरह के अब तक उद्यम कर डाले । सोचा कि इसमें शान्ति मिलेगी किन्तु मिल न सकी । बचपन में किस-किस तरह के विचार किये और यत्न किये कि शान्ति मिल आये, अपने समवयस्क बच्चों में खेले कूदे । जो मन में इच्छा हुई उसकी पूर्ति के लिये हठ की, पर कभी पूर्ति भी हुई क्या? कितना ही उद्यम किया पर वहां भी रोते-रोते में ही समय गया । कुछ बड़े हुए तब की करतूत देखिये । भले ही थोड़ा मौज मानकर रहे―लेकिन कोई मौज टिक न सके । थोड़ी देर को मौज माना तो उसके बाद कठिन क्लेश आ गए । जब जवान हुए कुछ घर का राग बड़ा तो कितनी प्रकार के उद्यम करने पड़े, क्या-क्या विचार किए, इसलिए कि शान्ति मिले । घर क्यों बसाया? इसलिए कि शान्ति मिले, पर अनुभवी लोग क्या कहते हैं कि घर बसाकर हमने गलती की । शान्ति तो यहां नहीं मिली रोज के झगड़े रहा करते हैं । तो कितने ही उद्यम करते जाते शान्ति के लिए और उसमें यही पाते हैं कि शान्ति नहीं मिली । जितना करते हैं उतना ही अशान्ति प्राप्त हुई । तब बाहर में कोई काम ऐसा नहीं है जो मेरे को शान्ति प्रदान करने का कारण बन सके कभी कल्पनायें, करके सुख मान लिया, यह हमारी कल्पना की बात है लेकिन नियमित, शान्ति न प्राप्त हौं सकी ꠰
आत्मशान्ति के उपाय की जिज्ञासा―और भी बातें सोच लीजिये । बहुत हैं जगत के कार्य सब सुविधा में भी हों आजीविका के झंझट नहीं करने पड़ रहे, समर्थ आय है तो अब लोक में इज्जत प्रतिष्ठा चाहिए, बड़ी सभावों के मेम्बर होना, अधिकारी होना, लोगों में समारोह होना, स्वागत होना आदि कितनी ही धुन बन जाती है और उनमें फिर कार्य बढ़ जाते हैं । अभी मेरा यह कार्य ढंग से नहीं हुआ, इसमें मेरी अभी पूरी शान नहीं बन सकी, आदि बातों का अनुभव करते हैं । तो लोक में ऐसा कौनसा कार्य है कि जिससे हम शान्ति पा सकें? है तो नहीं कोई कार्य ऐसा । और, वह भी देखिये कि कुछ भी कार्य करें । कुछ भी उद्यम करें सभी व्यापारों मैं हम करते क्या रहे? नाना विकल्पों चिन्तन और विचारों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं करते रहे । तो जब हम लौकिक कार्यों में शान्ति न प्राप्त कर सके केवल अपने विचार और विकल्प ही बनाते रहे । कर न सके कुछ तो अब यहाँ बड़ी गम्भीरता से ज्ञान करना है कि आखिर कौनसा कार्य ऐसा रह गया कि जिसके किये बिना अब तक अशान्त हो रहे? शान्त तो अब तक हो न सके? इसमें कोई प्रमाण देने को आवश्यकता नहीं । क्योंकि अब भी क्षोभ मचाते हैं, विकल्प उठाते हैं । चिंतायें करते हैं, उन्हें भोगना पड़ता है । तो शान्ति तो प्राप्त हुई नहीं और कार्य कर लिये अनेक । एक मनुष्य भव की क्या बात, जब-जब जिन-जिन जन्मों में गए तब उन जन्मों के माफिक इसने अनेक कार्य किए कि शान्ति प्राप्त हो जाय । जैसे मनुष्य होकर यहाँ बच्चों से प्रेम किया । जैसे यहाँ मनुष्य अपने बसने के लिए घर बनाते हैं तो ये पशु-पक्षी भी अपनी योग्यता के माफिक कुछ स्थान और घोंसले आदिक बना लेते हैं । जैसे यहाँ मनुष्य अपनी सुख शान्ति के लिए आहार, निद्रा, मैथुन आदिक के प्रसंग करते, अनेक प्रकार के परिग्रह संचय करते तो ये पशु-पक्षी भी अपनी योग्यता माफिक इन्हीं क्रियावों को करते हैं । तो मनुष्य, पशु-पक्षी आदिक सभी इन बाह्य क्रियावों को खूब करते हैं पर न वे पशु-पक्षी हो उन क्रियावों से शान्ति प्राप्त कर सके और न ये मनुष्य ही उन क्रियावों से शान्त हो सके ।
आत्म शान्ति के उपाय का निर्णय―अब विचार कीजिये कि शान्ति पाने के लिए कौनसा काम शेष रह गया है जिससे शान्ति मिले? यह बात एक साधारण रूप से सुनने की नहीं है, किन्तु अपने लिए अपना उत्तरदायित्व जानकर अपने भले के लिए समझने की बात है । बात तो कठिन यों लगेगी कि इस बात को अभी तक कर नहीं सके, जान नहीं सके विषयवासना में अनन्तकाल व्यतीत हो गया, तो उस शरणभूत तत्त्व की चर्चा कठिन तो लगेगी ही । लेकिन जिन में कल्याण की भावना है उन्हें अपना यह निर्णय बनाना चाहिये कि अब हमें लोक में किसी भी स्थिति से शान्ति न प्राप्त हो सकी तो हमको अब समझना यही है कि वास्तविक पुरुषार्थ कार्य वह कौनसा है कि जिसके करने से शान्ति अवश्य मिले? देखो―हम आप सभी भगवान की भक्ति करते हैं, कोई भगवान को अच्छी तरह से जान सका हो तो, न जान सच हो तो, रूढ़िवश अथवा स्वार्थवश कोई वास्तविक हितकार्य के लिए हम आप सभी प्रभु की भक्ति कर रहे हैं तो क्यों कर रहे हैं? कम से कम उन सभी पुरुषों को चाहे वे किसी उद्देश्य से भगवान को मानते हों, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि वे सब इतना तो जान ही रहे हैं कि भगवान शान्त और सुखी हैं । यदि ग्रह ध्यान में रहे कि भगवान कुछ अशान्त है, भगवान खुद दु:खी है तो इतना जो कोई जानेंगे, वे कमी भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकते । चाहे लौकिक सिद्धि के लिए भक्ति करते हैं और चाहे आत्महित के लिए भक्ति करते हों, भक्ति तभी कर सकेंगे जब इतना समझ ले कि भगवान पूर्ण सुखी और शान्त है । तो इससे यह भी पहिले निर्णय करें कि हो सकता है कोई आत्मा ऐसा कि जो पूर्ण शान्त हो, पूर्ण सुखी हो, और उन्होंने जो काम किया, जिसे मार्ग पर वे चले उस मार्ग पर चलें तो हम भी शान्त और सुखी हो सकते हैं ।
आत्मशान्ति के उपाय का अन्वेषण―जब अनेक कार्यों के करने के बावजूद भी शान्ति न पा सके तो हम को अब इस ओर दृष्टि करना है कि अब और कौनसा कार्य शेष रहा? इसका संक्षेप में उत्तर यह है कि हमें अपने आपके स्वरूप का ज्ञान करने का काम शेष रहा । और तो सब कर लिया पर हम अपने आपके सही स्वरूप को समझ नहीं सके । आत्म ज्ञान की आवश्यकता इस कारण है कि आत्मज्ञान के बिना हम अनेक कार्यों को करके भी शान्ति न पा सके और आत्मा का ज्ञान किया जायगा तो अवश्य शान्ति मिलेगी । क्यों मिलेगी अवश्य शान्ति? शान्ति चाहते हैं सभी, पर यह बतलावो कि उस शान्ति का आधार कौन है? वह शान्ति कहां मिलेगी? कहां बर्त रही है? जैसे इन्द्रियों के विषयों को भोगने में सुख शान्ति मानी तो यह बतलावो कि वह शान्ति कहां बर्त रही है? यह शान्ति तो खुद में ही बर्त रही है इतना नो सर्वजन साधारण को ज्ञान है भले ही विषयों का साधन मिलाने से, अच्छी चीज देखने से, राग रागनी के शब्द सुनने से, स्वादिष्ट भोजन करने से या अन्य बातों से शान्ति मिली मगर किसी पुरुष को यह विश्वास नहीं है कि यह शान्ति यहाँ बन रही है, यहाँ गुजर रही है? भले ही यह माने कि हम को शान्ति विषयों से मिली, भोजन से मिली पर वह शान्ति भोजन में, विषयों में बन रही है, ऐसा किसी को भी विश्वास नहीं है । सभी लोग यह अनुभव करते हैं, यह महसूस करते हैं कि शान्त तो हम हुये ꠰ सिनेमा देखकर ? लोग महसूस करते हैं शान्ति, तो कहां अनुभव करते हैं? क्या पर्दे पर ? अरे ! सभी को यह विश्वास है कि शान्ति मुझ में आयी । तो शान्ति वहां आयी उसका परिचय करने की इच्छा क्यों नहीं की जाती? जहाँ शान्ति बनती है उसकी परख करते तो शान्ति अवश्य मिलेगी । इसीलिए शान्ति के आधारभूत अपने आपके स्वरूप का ज्ञान करने की अत्यन्त आवश्यकता है । भैया सच पूछो तो तथ्य की बात करने योग्य बात यही है कि अपने आपके स्वरूप का ज्ञान करें । जब तक न आये सुबुद्धि तब तक भले ही यह बात न रुचे लेकिन जिन्हें इस और रुचि है कि हम को तो इतना काम बनाना है उन्हें अवश्य शान्ति मिलेगी । लेकिन हर एक कार्य में लग-लग कर भी शान्ति न मिलेगी । शान्ति का जो आधार है उसकी परख होगी तब शान्ति प्राप्त होगी ।
आत्मस्वरूपानुवृत्ति से ही मानव जीवन की सफलता―यह मानव जीवन एक आत्मज्ञान करने और उसके अनुरूप आचरण करने से ही सफल हो सकता है अन्य बाहरी बातों से इस मानव जीवन की सफलता नहीं है । मान लो खूब धन, संचय कर लिया तो क्या उससे शान्ति मिलेगी ? उससे शान्ति न मिलेगी बल्कि आकुलतायें ही रहेंगी । धन का खूब संचय करके मर जाने के बाद क्या शान्ति पायी? मर जाने के बाद फिर क्या पता वह कहां जन्म ले, उस पर क्या बीते उसके लिए तो फिर वह संचित किया हुआ धन कुछ भी काम न आयगा । तो धन वैभव की धुन में रहकर उस ही की तृष्णा में रहकर सारा जीवन खोया तो यह मूढ़ता भरी बात है यह नहीं सोचते जाइये । कि लोग प्रशंसा, कीर्ति की बढ़वारी में सुख मानते हैं पर उनके जीवन को देख लो कहां उन्हें शान्ति है? वे तो बड़े बेचैन हैं । ऐसे लोग जो (मानसिक विषयों के लिये बहुत बढ़ना चाहते हैं (मानसिक विषय है यश कीर्ति वगैरह की चाह करना) उन ही लोगों के प्राय: हार्टफैल हुआ करते हैं । जो श्रम करने वाले और अपने थोड़े से परिग्रह में सन्तुष्ट रहकर उतना ही उद्यम करके जीवन गुजारने वाले लोग हैं उनमें हार्टफैल होने की नौबत प्राय: नहीं आने पाती । तो कारण क्या है कि मानसिक विषय का सम्बन्ध है दिल से । बड़ी कसरत कीं जाती हैं यश और कीर्ति की चाह व युक्ति उत्पन्न करने के लिए । दिल की बड़ी तेज कसरत में यह दिल फैल हो जाता है । तो कहां शान्ति की बात मिलेगी सो बताओ? दुनियां में किसी भी जगह शान्ति मिलने की आशा नहीं है । शान्ति के आधारभूत अपने आपके स्वरूप को समझने के लिए कि मैं क्या हूँ, उद्यम किया जाय तो शान्ति प्राप्त हो सकेगी ।
अंतस्तत्त्व की रूचि न होने का कारण विषय वासना का संस्कार―यद्यपि सभी लोग अपने आपके बारे में कुछ न कुछ समझ ही रहे हैं, यदि अपनी समझ न हो जरा भी तो वहाँ सुख और दुःख हो ही नहीं सकते । सभी जीवों को अपनी समझ है । चाहे वे पेड़ पौधे हों, अथवा कीड़ा मकोड़ा, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि हों, सभी ने अपने आपकी कुछ समझ बनाये हुए है तभी तो वे सुखी अथवा दुःखी होते हैं और तभी थे कुछ न कुछ कार्य करने का यत्न करते हैं । लेकिन वह समझ गलत है । माना तो अवश्य कि मैं हूँ, पर मैं को जिस रूप में माना वह समझ यदि गलत हो, तो उससे तो सुख शान्ति नहीं मिल सकती । तो अपने आपको समझना होगा कि मैं असल में हूँ क्या? देखिये आत्मा की बात कही जा रही है,, ‘‘मैं’’ की बात कही जा रही है । जिसमें लोग मैं-मैं ऐसा ज्ञान किया करते हैं उस मैं की बात कही जा रही है । सुनने में, समझने में अपनी बात कठिन तो न लगना चाहिये । कठिन तो पर की बात लगना चाहिये, खुद की बात समझने में क्या कठिनाई? किन्तु जब चित्त कलुषित हो, विषय वासना में फंसा हुआ हो तब उसके लिए अपनी बात, अपनी चर्चा, अपनी समझ कठिन हो जाया करती है । और कठिन क्या हो जाया करती हैं, प्रथम तो अपनी बात सुहाती ही नहीं है । मैं क्या सुनूँ, वहां तो सिवाय आत्मा आत्मा के अन्य कुछ नहीं हैं, चाहिये तो यहाँ का आराम यहाँ की सुख सुविधायें, यहाँ के वैभव, और चर्चा की जा रही है आत्मा की, जिसको सुनकर कुछ मिलता भी नहीं है, भला दुकान पर बैठने से तो कुछ मिल भी जाता है, यों जब अपने आपकी बात सुनने करई रुचि ही नहीं है, विषयों की ओर उन्मुखता है, तो वहाँ अच्छी बात भी सुहा नहीं सकती । और तिस पर भी कि उन वासनाओं में हम दुःखी होते हैं, अपमान सहते हैं, विरोध होता है, व्यग्र रहते हैं, इतने पर भी वे वासनायें ही सुहाती हैं, और जो सुख का साधन है, परमात्मा का स्वरूप है, अपने आपका जो अन्त: स्वरूप है, उसकी रुचि ही नहीं जमती । जब विषयों की वासना है तो वहां ऐसी ही परिस्थिति हुआ करती है ।
विषय वासना वाले चित्त में आत्मदर्शन की रुचि न हो सकने पर एक दृष्टान्त―दो सहेलियां थी, एक थी ढीमर की लड़की और एक थी माली की लड़की । माली की लड़की तो एक शहर में आ ही गई और ढीमर की लड़की एक छोटे से गांव में ब्याही गई । वह ढीमर की लड़की मछलियां बेचने के लिए शहर जाया करती थी । एक दिन जब वह मछलियां बेच चुकी, शाम हो गई तो सोचा कि आज अपनी सहेली के घर रह जावे, कल अपने घर चली जाऊंगी । पहूंची वह अपनी सहेली के घर । तो मालिन की लड़की ने अपनी बहुत दिनों में मिलने वाली सहेली का बड़ा आदर किया । खूब अच्छी तब खिलाया पिलाया । जब रात के 9 बज गए तो एक अच्छासा पलंग उसके सोने के लिए सजाया । बड़ा कोमल गद्देदार पलंग उस पर बिछी हुई चादर, और उस पर सुगंधित फूलों की पंखड़ियां आदि पड़ी थी । जब वह ढीमर की लड़की उस पलंग पर लेटी तो वह इधर-उधर करवटें बदलती रही, नींद न आवे । तो मालिन की लड़की ने पूछा क्या बात है सहेली । जो तुम्हें नींद नहीं आ रही तो वह ढीमर की लड़की बोली―अरी बहिन ! न जाने तुमने इस पलंग पर क्या डाल रखा है जिस की दुर्गन्ध की वजह से हमें नींद नहीं आ रही । मालिन की लड़की बोली―अरी बहिन ! ऐसे सुगन्धित पलंग पर सोने के लिए तो राजा महाराजा भी तरसते हैं, कहां है यहाँ दुर्गन्ध ? तो वह बोली―अरे होंगे कोई राजा महाराजा यहाँ तो मारे गंध कै हमारा दिमाग फटा जाता है । खैर मालिन की लड़की ने फूलों सहित चादर को हटा दिया । इतने पर भी उसे नींद न आये, इधर उधर करवटें बदले । तो मालिन की लड़की बोली―बहिन अब क्यों नींद नहीं आ रही? तो ढीमर की लड़की बोली―अरे नींद कहां से आये, वह गन्ध तो यहाँ सारी जगह छायी हुई है । तो फिर मालिन की लड़की बोली कि नींद आने का कोई उपाय भी है कि नहीं? तो वह ढीमर की लड़की बोली―हां एक उपाय है, क्या? कि हमारा जो वह मछलियों का टोकरा रखा है उस पर पानी की कुछ छींटे मार दो और फिर उसे हमारे सिरहाने धर दो, तब नींद आयगी । उस माली की लड़की ने वैसा ही किया तब ढीमर की लड़की को नींद आयी । तो प्रयोजन कहने का यह है कि जो दुर्गन्ध में ही रातदिन बस रहे हो उन्हें फूलों की सुगंध कहां से सुहाये । यों ही जो विषय वासनाओं की गंदगी अपने आप में बसाकर रह रहे हैं उन्हें आत्मा की बात, परमात्मा की बात कहा से रुचे ꠰
लाभ का सम्बन्ध―भला बतलाओ तो सही कि बाहर जहाँ कहीं भी अपनी रुचि लगा रखी है वहाँ से लाभ की बात क्या मिल रही है? सिवाय विडम्बनाओं के विपदाओं के और कोई लाभदायक बात तो नहीं मिल रही । इस मानव-जीवन को प्राप्त कर अपना एक आग्रह बने कि हमें तो अपने सत्त्वस्वरूप का दर्शन करना है । मेरा जो सत्त्व है, मेरा जो यथार्थ स्वरूप है उस ही की हमें समझ करना है । इस जीवन में शान्ति प्राप्त करने के लिए हम अनेक यत्न कर चुके, किन्तु अपने आपके सही स्वरूप का ज्ञान नहीं कर पाये । अब तो हमारे जीवन में कोई दूसरा उद्देश्य है नहीं, एक यही मूल उद्देश्य है कि हम अपने आपके यथार्थ स्वरूप को समझ ले । मैं स्वयं अपने आप अपने ही सत्त्व के कारण सहज किस स्वरूप हूँ । इस निज स्वरूप की परख होने पर लोक में किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं रह सकती । जब जान लिया मैं यह ही पूर्ण सर्वस्व हूँ, इससे आगे मेरा वास्ता ही नहीं, फिर आकुलता का काम ही क्या रहा?
हूं में अन्तस्तत्त्व का निश्चय―आत्मा को जानने के लिए सबसे पहिले उसके बारे में अस्तित्व का निश्चय रखना चाहिए, अर्थात् मैं हूँ । मुझे अपने आपके बारे में ज्ञान करना है तो ‘‘हूँ’’, इसका निर्णय पहिले होना चाहिये । जब तक पदार्थ के अस्तित्व का बोध न हो तब तक उसके बारे में और अन्य-अन्य खासियतें भी कैसे बतायी जायें? सबसे पहिले यह जानना है कि ‘‘हूँ’’ और इस आत्म-कीर्तन की इस टेक में सबसे पहिला शब्द आया भी है ‘‘हूँ’’ । इसे ‘‘मैं’’ शब्द से भी कह सकते थे, मैं स्वतंत्र निश्चल निष्काम, किन्तु मैं शब्द से न कहकर हूँ से कहा गया तो इसमें कुछ भाव है । मैं शब्द के बोलते ही कितनी ही विशुद्धि के साथ बोले, उसमें ‘‘मैं पने’’ का रंग आ जाता है । दूसरी बात यह है कि मैं के कहने से क्रिया सम्बंधी जितने मर्म हैं वे मर्म इसमें विदित नहीं हो पाते और हूँ के कहने से चूंकि मैं तो उसके साथ है ही, क्रिया के साथ मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष के नियतकर्ता निश्चित हुआ करते हैं । एक अन्य पुरुष माने थर्ड पर्सन का कर्ता अनिश्चित होता है पर मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष (फस्ट एण्ड सैकिण्ड परसन) इनका कर्ता नियत हुआ करता है । तो हूँ के कहने से ‘‘मैं’’ कर्ता नियत हो ही गया, पर ‘‘हूंं’’ में अस्तित्व के कारण जो विशेषता में हैं वे और अधिक प्रत्यय में आ जाती है ।
हूं के प्रकाश में अस्तित्व और वस्तु का परिचय―सब से पहिले यह जानना है कि जो भी पदार्थ है, जिस किसी भी पदार्थ का अस्तित्व है उसमें 6 खासियत अवश्य होती हैं । पहिली विशेषता तो ‘‘है’’ की है । वह पदार्थ हे, उसका अस्तित्व है । मैं हूँ यदि मैं न होऊं तब तो बड़ी अच्छी बात निकली, क्योंकि मैं न हुआ तो सुख-दुख किसमें होंगे? जो है वह सदा रहेगा । जो नहीं है वह कभी उत्पन्न हो ही नहीं सकता । यह बात मूलत: कह रहें हैं । मैं हूँ, मैं हूँ, ऐसा कहने के साथ ही यह बोध हो जाता है । मैं मैं हूँ, मैं अन्य नहीं हूँ । जैसे कहा―घड़ी है तो हम अस्तित्वमुखेन घड़ी को सीधा जान रहे हैं, पर घड़ी है ऐसा कहने में यह बात गर्भित हो जाती है कि घड़ी-घड़ी है घड़ी को छोड़कर अन्य सब कुछ नहीं है । इन दो बातों में से याने विधि निषेध में से यदि एक बात मानो और दूसरी बात न मानें तो दोनों ही बातें गलत हो जाती हैं । घड़ी के बारे में माना कि यह तो ‘‘है’’ ही है । क्या है? घड़ी है? हां है, बेन्च है? हां है, सारी वस्तुवों के नाम लेकर इसे ‘‘है’’, ही है कहा जाय घड़ी के बारे में तो घड़ी एक चीज न रही । यह चीज पड़ी भी है, बेन्च भी है, चटाई भी है तो घड़ी कहां रही? और, यदि इसमें न न का ही हठ करते जायें, न बेन्च हे, न चटाई है, न घड़ी है तो फिर घड़ी क्या चीज रही? किसी भी पदार्थ के बारे में उसका अस्तित्व तभी कायम रह सकता है जब वह अपने स्वरूप से हो और पर के स्वरूप से न हो । यह बात वस्तु में अपने आप धर्म पड़ा हुआ है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नहीं है, यह है दूसरी खासियत । मैं हूँ यह है पहिला गुण । मैं मैं हूँ । मैं अन्य नहीं हूँ, मैं अपने स्वरूप से हूँ, पर के स्वरूप से नहीं हूँ । यह है इसमें दूसरा गुण । जिसका नाम है बबूल । अब आगे चलिये, देखिये अभी जो दो गुण कहे गये हैं इतने मात्र से वस्तु की सत्ता नहीं रह सकती है । याने कोई पदार्थ ‘‘है’’ इतने मात्र से वह पदार्थ रह नहीं सकता । उसकी कोई न कोई अवस्था हो, त्यक्त रूप हो, आकार प्रकार हो, परिणति हो तब उसका अस्तित्व रह सकता है । तो वस्तु में ही स्वयं यह धर्म पड़ा है कि वह निरन्तर परिणमती रहती है ।
आत्महित में साधारण गुणों के परिचय का महत्त्व―देखिये-―ये सब अभी छह साधारण गुण कहे जा रहे है । लेकिन ये साधारण गुण हैं तो सही साधारण गुण के नाम से, किन्तु अपने कल्याण के लिए इसकी जानकारी बड़े महत्त्व को रखती है । मैं मैं हूँ, मैं अन्य नहीं हूँ, मैं अपने स्वरूप से हूं, पर के स्वरूप से नहीं हूँ, ऐसा निर्णय हो जाय अपने आपके स्वरूप को छूकर, इस बात का यदि पक्का परिचय हो जाय तो उसे आकुलतायें नहीं रह सकती । लोग आकुलतायें दूर करने के लिए, अपने को सुखी शान्त रखने के लिए भारी श्रम करते हैं, लेकिन एक यह सत्त्व ज्ञान का थोड़ा भी श्रम किया जाय तो इसको शान्ति निराकुलता प्राप्त हो जायगी । सच पूछो तो अपने आपकी चर्चा, जानकारी, निकट रहना, धर्म का पालन करना, इनसे इस मनुष्य जीवन की सफलता है, अन्य बातों से मानव-जीवन की सफलता नहीं है । धन संचय खूब कर लिया गया तो उससे होगा क्या अन्त में? परिजनों को खूब पढ़ा-लिखा दिया, ऊंचे ओहदे पर पहूंच गए तो इसमें कौनसी सारभूत बात प्राप्त हो गई? अरे अनन्त जीव है । सबके साथ उनका अपना-अपना भाग्य, है, जिसका जैसा भाग्य है उसको वैसा बनता है पर लोग उन प्रकट भिन्न जीवों को अपना मानकर उनके पीछे हैरान होते है, उनके पीछे माना प्रकार के विकल्प, नाना प्रकार की चिन्तायें करते हैं । अरे इन व्यर्थ 7 विकल्पों में कितना पाप बंध हो रहा है? भले ही आज उन व्यर्थ के विकल्पों को पापरूप नहीं गिनते, उनमें मौज मान रहे हैं, पर उनका फल तो भोगना ही होगा । जैसे कोई आग में गिरे और मौज माने इसी प्रकार ये जीव इन विकल्प विपदाओं में गिर रहे हैं और मौज मान रहे हैं । ये विकल्प ही मात्र विपदायें हैं इस जीव पर । विकल्प न हों तो जो प्रभु का स्वरूप है वही इस जीव का स्वरूप है । इसे कोई दुःख नहीं । हम आप किसी को कोई दुःख नहीं । यदि अपनी ही दृष्टि रखें, अपनी ही ओर रहें तो कोई क्लेश नहीं । कोई कहे कि ऐसा कैसे रहा जा सकता है? आखिर घर में हैं । घर जाना पड़ेगा, कमाई करनी पड़ती, परिवार में बोलना ही पड़ता, तो ठीक है । सच्चे स्वरूप का ज्ञान करके परिवार में भी रहें तो वहाँ यह तो ज्ञान बनाये रब सकते हैं कि जितने लोग मैं परिवार के सबके साथ कर्म लगे हुए हें, । भाग्य लगा है । यदि बात असत्त्व हो तो मत मानो । अब मैं क्यों विह्वल होऊं यह क्यों सोच होता उनके बारें में कि मैं बहुत धन कमा जाऊं? अरे इनके यदि पाप का उदय है तो लाखों की सम्पदा एक वर्ष भी न ठहर सकेगी और यदि उदय पुण्य का है तो चाहे मैं उनकी कुछ भी न फिकर करूं, अपने धार्मिक कार्यों में ही मस्त रहूं तो भी उन सबके भाग्य से लाखों का वैभव कुछ महीनों में ही प्राप्त हो सकता है । और ऐसी बातें देखी जा रही हैं । सबके साथ भाग्य है । अच्छा आप बहुत-बहुत ममता रखें, बड़ी सेवा करें, बड़ी खबर ले और उनका आये पाप का उदय, शरीर में कोई कठिन रोग हो जाय तो आपका क्या वश चलेगा? दिमाग में कोई कठिन परिवर्तन हो जाय तो आपका क्या वश चलेगा? तो घर में रहने वाले लोगों के साथ भाग्य लगा है कि नहीं? लगा है, तो इतना ध्यान बनाये रहो कि सबका सबके साथ भाग्य है । अच्छे रहें उनकी बात, अच्छे न रह सकें उनकी बात । अपना तो अनायास थोड़ा सा व्यवहार, करने भर का काम है ताकि हमारा, घर में गुजारा बना रहे । तो वस्तु के साधारण गुणों का परिचय पाने पर भी कितना ही इस जीव को शान्ति प्राप्त हो जाती है ।
हूँ में ब्रह्मत्व का प्रकाश―मैं हूँ, अपने स्वरूप से हूँ, पर के स्वरूप से नहीं हूँ, और निरन्तर परिणमता रहता हूँ, किसी न किसी अवस्था में आता रहता हूँ । अवस्था बिना चीज क्या? कुछ लोगों ने ऐसा मान लिया कि सारे जगत में एक ब्रह्म और अविकारी है, अपरिणामी है, तो अपरिणामी कुछ क्या होगा? हव्वा होगा । कुछ समझ में ही नहीं आता । हव्वा में तो फिर भी कुछ रखा है । रात के समय उजेले की कोई छाया दिखाकर किसी बच्चे को यह कहकर डरा दिया कि देखो वह हव्वा है । तो वहाँ भी कुछ बात मिली, किन्तु जहाँ व्यक्ति नहीं, प्रकटरूप नहीं, अवस्था नहीं, उसका अस्तित्व क्या? ब्रह्म है । बात सही है, और उस ब्रह्मत्व के दर्शन से ही जीव पार पा सकेगा । लेकिन वह ब्रह्मत्व क्या है, कहां है, कहा मिलता है, उसकी विधि तो मालूम होनी चाहिए । वह कोई एक अलग है, स्वतंत्र है, फैला हुआ है ऐसा क्या एक ब्रह्म है । वह तो घट-घट में है, प्रत्येक जीव में हैं । जो भी जीव बाह्य विकल्पों को हटाकर अपने आप में विश्राम करके निर्विकल्प बने, किसी भी विकल्प में उपयोग न फंसाये केवल शुद्ध चित्प्रकाश मात्र ही उसके उपयोग में रहे, और इससे आगे और भी निर्विकल्प बने, जिसके लिए कोई कहने वाला शब्द नहीं है । उस अनुभूति की स्थिति में यह ब्रह्मत्व का साक्षात् अनुभव करता है । अनुभव करने के बाद यह ख्याल करेंगे कि ओह ! वह ब्रह्मत्व कहां था? क्या मुझमें था?....नहीं । क्या बाहर में था ꠰....नहीं । क्या सब एक था?....नहीं । क्या कहीं न था? नहीं । जिसके बारे में कोई एक आधार के ढंग से उत्तर हो ही नहीं सकता । वह तो अनुभूति में था । न उसकी जगह बता सकते, न उसका आकार-प्रकार बता सकते, न उसका फैलाव बता सकते । उस अनुभव करने वाले की जो दृष्टि है उतनी ही तो उसकी दुनिया है, और उसमें वह पूरा व्यापक है । तो यों वह ब्रह्म व्यापक है । उस अनुभव करने वाले को न एक का पता रहा न अनेक का, ऐसा वह विलक्षण अद्वैत है । पर उसे अपरिणामी और सर्वव्यापक व बाहर में रहने वाला न मान लिया जाय तो द्रव्यत्व? गुण माने बिना, परिणमनशील माने बिना उसका अस्तित्व नहीं कहा जा सकता ।
हूं के सहयोगी द्रव्यत्व और अगुरुलघुत्व―मैं हूँ, अपने स्वरूप से हूं; पर के स्वरूप से नहीं हूँ, और निरन्तर परिणमता रहता हूँ । अच्छा बनूं, बुरा बनूं, विकल्प वाला बनूं, निर्विकल्प बनूँ । होता रहता है निरन्तर कुछ न कुछ । पर इस परिणमन में स्वच्छन्दता नहीं है कि मैं जो चाहे परिणमता रहूं । जिस चाहे रूप बनता रहूं । यदि ऐसा करने लगूँ तो मेरा अस्तित्व ही न रहेगा । मैं दूसरी वस्तुरूप परिणमने लगूँ तो मैं ही तो वस्तु नहीं हूँ, कोई दूसरा मुझरूप परिणमने लगे तो फिर दुनिया में क्या रहेगा? इस कारण जो है उसमें यह भी गुण है कि अपने में ही परिणमे, दूसरे में न परिणमे । इतनी सब बातें समझ लेने पर भी जब तक उसका ठौर ठिकाना, आकार-प्रकार ज्ञात न हो, तब तक ये बातें भी कुछ समझ में न आयेंगी ।
हूं के सहयोगी प्रदेशवत्व व प्रमेयत्व―किसी चीज का हम वर्णन करे और उसका आकार भी हमारी नजर में न हो तो हम उस वर्णन का कुछ लाभ ही नहीं उठा सकते । और वस्तु में है यह सहज गुण कि वह किसी न किसी आकार में रहता है । जो है वह कुछ तो होगा । कितना ही तो फैला हुआ होगा । चाहे एक प्रदेशी हो, चाहे नाना प्रदेशी हो, वह तो कुछ होगा ही । तो किसी न किसी आकार में रहना, अपने आपके प्रदेश होना, यह उसमें गुण है । तो वस्तु में यह 5वां गुण है कि वह प्रदेशवान हो । साथ ही जो वस्तु है उसमें यह गुण है कि वह ज्ञान में आ सकता है । जो सत् है वह ज्ञान में आया करता है । जो सत̖ नहीं है वह ज्ञान में नहीं आता । तो मैं हूं इतना कहते ही यह सारी की सारी अपनी आन्तरिक रचना ज्ञानी के ज्ञान में आ जाती है ।
हूं के प्रकाश में अनेक गुणों का वास―परिचित पुरुषों को 6 गुणों को कहकर इतना बड़ा विस्तार बताने की जरूरत नहीं है मैं एक हूँ, इतना कहते ही वह सबका सब विस्तार विवरण गर्भित हो जाता है । हूँ इस कारण तो मैं अपने स्वरूप से हूं । पर के, स्वरूप से नहीं हूँ । अगर इन दो में से एक भी बात न रहे तो मैं हूँ रह ही नहीं सकता । मैं हूँ इसी कारण तो निरन्तर परिणमता रहता हूँ । यदि मैं परिणमता न होता तो मैं हूँ रह ही न सकता । मैं हूँ तभी तो अपने स्वरूप में परिणमता हूँ, पर के स्वरूप में नहीं परिणमता, इन दो बातों में से यदि एक भी बात खतम कर दें तो मैं हूँ रह ही नहीं सकता । मैं हूं इसलिए कुछ न कुछ अपना घेरा जरूर रखता हूँ । यदि कुछ घेरा न हो । कुछ भी आकार न हो तो मैं हूँ रह ही नहीं सकता । मैं हूँ अतएव ज्ञेय हूँ । ज्ञान में आता ही हूँ । ज्ञान में न आता होऊं तो मैं हूँ रह ही नहीं सकता । ज्ञान की ऐसी अद̖भुत शक्ति है कि जगत में जो भी सद हो मे सब ज्ञान में आ जाये । हम सामने की चीज देखते हैं और जान लेते हैं इससे कुछ ऐसा ख्याल बना लेते कि सामने हो तब ज्ञान में आता है । ज्ञान को जानने के लिए सामने पदार्थ के आने की कोई आवश्यकता नहीं । केवल उसके सत्त्व की आवश्यकता है । होना चाहिए सत्, तो वह ज्ञान मैं आएगा । हम आपकी जो भी स्थितियां बनी हैं कि सामने चीज हो तब ही ज्ञान में आये और पीठ पीछे चीज हो तो वह ज्ञान में न आये, यह तो हमारे ज्ञान की एक कमजोरी है । पर ज्ञान का ऐसा स्वभाव नहीं ज्ञान का स्वभाव सर्वदेश सर्वकाल के सर्व सत पदार्थों के एक साथ जानना । इस अमूर्त ज्ञान के लिये तो चारों ओर सामना ही सामना है । देशकृत सामना कहने से गुजारा न चलेगा । यह ज्ञान तो भूतभविष्य सबको जानता है । काल का सामना क्या? तो जैसे हम वर्तमानकाल को अपना सामना कहते हैं ऐसे ही ज्ञान ज्योति कई लिए अनादि अनन्तकाल सारा का सारा सामना है । ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि जो भी सत् हो वह सब ज्ञेय में आये । तो मैं हूँ इसलिए अवश्य ज्ञेय हूं ।
साधारण गुणों के परिचय में आत्महित का सहयोगी चिन्तन―अब इन 6 साधारण शक्तियों को निरखकर भी हम अपने आप में कल्याण की बात उत्पन्न कर सकते हैं । यद्यपि अभी असाधारण ली की बात नहीं कही―मैं चेतन हूँ, इसे अभी नहीं कहा, लेकिन असाधारण गुण के बिना वस्तु नहीं रहती, और तब साधारण का वर्णन करके भी असाधारण तो साथ ही साथ है । अपने आपके बारे में इतना विश्वास बना लीजिये कि मैं हूँ अपने स्वरूप से हूँ, पर के स्वरूप से नहीं हूँ । जिसका अर्थ है कि मैं समस्त परद्रव्यों से निराला हूँ । त्रिकाल भी मेरा किसी भी परद्रव्य के साथ सम्बंध नहीं है । मैं बनता हूं, अपने में बनता हूँ । इसका स्वात्मप्रदेशों से बाहर कुछ सम्बंध नहीं और ऐसे ही सब जीव हैं, इस कारण मेरा किसी भी जीव से कोई सम्बन्ध बन ही नहीं सकता । कहा अनुभव करें, इस ‘‘मैं’’ को? वह आधार अपने आप ही है । वही है मेरा प्रदेश, वही है मेरा आकार, तन्मात्र हूँ मैं । इससे बाहर अन्यत्र कहीं में नहीं हूँ । इस तरह सबसे विभक्त और अपने आपके एकत्व में रहने वाला यह मैं हूँ । इस तरह का निर्णय करने के बाद अब इस मैं हूँ की अन्य विशेषतायें कही जायेंगी ।
आत्मा की असाधारण गुणमयता―यह मैं आत्मा अस्तित्व, वस्तुत्त्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्त्व, प्रदेशवत्व और प्रमेयत्व इन 6 साधारण गुणोंरूप हूँ । किन्तु किसी भी पदार्थ में केवल साधारण गुण ही रहें उससे अस्तित्व नहीं बनता । पदार्थ की खासियत, विशेषता असाधारण गुणपदार्थ में होना ही चाहिए और इस कारण पदार्थ साधारण असाधारण गुणमय है । न केवल साधारण गुणोंरूप पदार्थ होता है और न केवल असाधारण गुणोंरूप पदार्थ होता है । जैसे―जीव में असाधारण गुण है चेतन । चेतन तो हुआ करे, पर अस्तित्व न हो तो है ही क्या? वस्तुत्व न हो, जिसके कारण चेतन अपने रूप से तो है और अन्य अचेतन पदार्थों के रूप से नहीं है, वस्तुत्त्व न हो तो असाधारण गुण क्या करे? द्रव्यत्व गुण न हो तो उसका कोई व्यक्तिरूप ही नहीं हो सकता । तो इसी प्रकार असाधारण गुण साधारण गुणों से सहित होकर ही अपना विलास कर पाते हैं और साधारण गुण भी असाधारण घुण से सहित होकर अपना विलास कर पाते हैं । यों आत्मा साधारण गुणरूप भी है और असाधारण गुणरूप भी है । पदार्थों की सामान्य विशेषात्मकता निवारे भी नहीं निवारी जा सकती है । प्रमाण का विषयभूत जो कुछ भी हैं अर्थात् जो भी सत् हैं वे समस्त सत् सामान्य विशेषात्मक हैं ।
सर्वसाधारण धर्मदृष्टि से विश्व की एकरूपता―सामान्य विशेषात्मकता का निरूपण भी दृष्टि की भिन्नता से भिन्न-भिन्न रूप भी हो जाता है । जैसे-अभी इस प्रसंग में कि आत्मा साधारण गुणोंमय है और असाधारण गुणों? भी है, साधारण गुणरूपता तो सामान्य है और असाधारण गुणरूपता विशेष है । यह आत्मा अस्तित्त्वादिक साधारण गुणोंरूप है । इसमें तो सामान्य का बोध होता कि हां है यह आत्मा । जैसे कि समस्त पदार्थ हैं तैसे ही यह आत्मा है और इस दृष्टि से सब पदार्थ एक हैं । सब सत् हैं और इस ही का एकान्त मत करके कहते हैं―सत् ब्रह्म । जो सत् है उस ही का नाम ब्रह्म है । समस्त पदार्थ ब्रह्मस्वरूप है यह कथन आता है । सामान्यरूप से समस्त विश्व को सत् कहना यह कुछ अयुक्त बात नहीं है, लेकिन कोई उसका ही एकान्त करले अर्थात् इस सत्स्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ विशेषता नहीं है तब वह वस्तु स्वरूप के विरुद्ध होता है । एक दृष्टि से अगर, निहारा जाय तो इस तरह से भी कल्पना कर सकते हैं कि सारा विश्व एक सत् है । और इस सत्त्व को निगाह में सब कुछ अद्वैतमात्र है । दूसरा कुछ है ही नहीं । बतलावो―सत् के अतिरिक्त भी कुछ है क्या ? सत् के अतिरिक्त शब्दों में कहा जायेगा असत् और असत् माने नहीं, उसका अस्तित्व ही नहीं है । तो जो भी हैं सब सत् हैं । सत्त्वस्वरूप का परित्याग करके कोई रह ही नहीं सकता, इस कारण सारा विश्व एक है ।
सदेकरूप विश्व का द्रव्यक्षेत्रकाल भाव की मुख्यता से परिचय―अब सत्त्व की दृष्टि से निहारे गए एकरूप विश्व में जब भेददृष्टि करेंगे तो भेददृष्टि करने का तरीका है―द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । किसी भी अभिन्न पदार्थ का भेद करना है विश्लेषण के साथ उसका विवरण करना है तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन अपेक्षावों की सहायता ली जाती है । जितने भी दर्शन प्रचलित हैं, जो भी मत निकले हैं वें सब के सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों में से किसी से सम्बंध रखते हैं और उनका योग्य केन्द्रीकरण न होने से वे एकान्त में आ गए । किसी भी दर्शन के सम्बंध में आप विचार करेंगे तो इन चारों में से किसी से सम्बंध मिलेगा । इन चारों के ही एकान्त से अनेक दर्शन उत्पन्न हुए हैं । तो जब एक अस्तित्व करके हमने सारे विश्व को एकरूप निरखा, अब उसका जब हम भेद करने ले तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से भेद होंगे ।
सदेकरूप विश्व के परिचय में आम स्थापना का प्रयोग―साथ ही साथ यह भी जाने कि नाम और स्थापना के बिना तो जरा भी कदम नहीं चल सकते । किसी भी पदार्थ का स्पष्टीकरण करने के लिए नाम पहिले रखना होता है । नाम के बिना तो कुछ व्यवहार नहीं चल सकता है । और, जब नाम रखा तो नाम रखने के बाद यह बुद्धि आनी भी आवश्यक है कि देखो―जिस नाम से बोला गया ना उस नाम का वाच्य यह पदार्थ है । इस ही का नाम स्थापना है । वैसे एक सीधे ढंग से यह कह दिया जाता कि आकारवान पदार्थ में स्थापना करना साकार स्थापना है और आकार रहित पदार्थ मैं अन्ध कीं स्थापना करना निराकार स्थापना है । लेकिन पर की पर में स्थापना करना यह तो उपचरित व्यवहार है, जो वास्तविक अधिगम से सम्बंध नहीं रखता जो वस्तु में धर्म प्राप्त हो उसका वर्णन करने वाला फिर यह स्थापना निक्षेप न रहा । वह स्थापनानिक्षेप क्या है कि कुछ भी व्यवहार करने में स्थापना को कहना ही पड़ेगा । यह तो अपने मन की बात है । हम कभी प्रतिमा में यह पार्श्वनाथ हैं ऐसा ज्ञान करते हैं कभी नहीं भी करते हैं यह तो इच्छा की बात है । कभी निराकार गोटों में ऊंट, घोड़ा आदिक की स्थापना करते हैं कभी नहीं भी करते हैं । तो व्यवहार में नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ये चार निक्षेप, आने ही पड़ते हैं वहाँ मनमौज की बात नहीं है कि हम किसी पदार्थ को समझायें या विवरण सहित जानें और वहां हमें स्थापना का सहारा लेना हो लें, न लेना हो न लें, किन्तु जो भी व्यवहार किया जायगा वह नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव इन निक्षेपों से ही हो सकेगा । तब खोजिये अब यह स्थापना-स्थापना न रही कि किसी पदार्थ में किसी अन्य की बात रख देना । हम जब भी आंख खोलकर कुछ देखते हैं और उस देखने के साथ ही अथवा तुरन्त ही जो हमें ज्ञान होता है उस ज्ञान के होने में नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ये चारों के चारों निक्षेप प्रयोग में आ जाते हैं । भले ही हम चिरन्तन अभ्यास के कारण उसमें ऐसा भान नहीं करते लेकिन आ जाते हैं चारों । जो भी भान हुआ उस भाव के साथ किसी न किसी शब्द के रूप में, किसी न किसी नाम के रूप में, चाहे वह बहिर्गत नाम बने चाहे अन्तर्वृत्ति नाम बने, नाम का भान तुरन्त होता है और साथ ही ‘‘यह है वह’’ यों स्थापना होती । यहां अन्य चीजों की स्थापना की बात नहीं कह रहे किन्तु जो पहिले विकल्प रूप से जाना, नामरूप से जाना उसके साथ ही साथ यह भी बोध रहता है कि इस नाम के द्वारा यह है वाच्य और फिर उसकी ध्रुवता का और उसकी वर्तमान पर्याय का, इनका भी बोध साथ मैं रहता है । तो हमारा व्यवहार और व्यावहारिक ज्ञान इन चार निक्षेपोंरूप है ।
सदेकरूप विश्व के अधिगम में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की मुख्यता की दृष्टि का प्रभाव―इस ‘‘हैं’’ के रूप से जाने गए सारे विश्व को हम 6 दृष्टियों में से पृथक्-पृथक् एक-एक दृष्टि की मुख्यता से जब हम कुछ विशेष जानना चाहेंगे तो हमें 6 जाति के द्रव्य नजर आयेंगे । यद्यपि एक सत् में इन 6 दृष्टियों से 6 द्रव्य नहीं निकले लेकिन बोध हम इन्हीं दृष्टियों मे बनायें तो बना सकते हैं । एक समझने की बात है । यह सारा विश्व एक सत् है । जब हम इसको नामदृष्टि से देखें तो नाम का काम है चलाना । नाम बिना कुछ नहीं चल सकता । किसी बच्चे का नाम न रखें तो कुछ भी बात न कर सकेंगे, उसे बुलावों, उसे लावो, क्या कहेंगे? बिना नाम के व्यवहार क्या है? तो नाम चलाने के काम आया करता है । और, लोग तो कोई-कोई इतने बेशरम भी हो जाते हैं कि अपने आप कहते हैं कि मेरा नाम चले । मेरा नाम कैसे चलेगा ऐसा लोग बोल भी देते हैं । तो नाम चलने की बात से सम्बंध रखता है । तो अब आप यह देखिये कि सारे लोक में जो कि समस्त पदार्थ एक सत् की दृष्टि से परख लिए गए हैं, उस नाम की मुख्य दृष्टि से कौनसा द्रव्य ध्यान में आया? धर्मद्रव्य जीव पुद̖गल की गति में, चलाने में सहायक है । और, नाम का भी काम चलाने का हैं । और, अब स्थापना दृष्टि से ध्यान में आया अधर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य जीव पुद्गल को स्थापित करा देता है, अर्थात् चलते हुए जीव पुद्गल के ठहरने में सहायक है । तो जब हमने एक दृष्टि में परखे गए विश्व को स्थापना की दृष्टि से परखा तो अधर्मद्रव्य विदित हुआ । अब द्रव्य दृष्टि से देखे अर्थात् पिण्ड दृष्टि से देखें । लोग पिण्डात्मकद्रव्य कहा करते हैं, जैसे―चौकी, बेन्च, भींट आदि का तो उस अवकाश से हमें पुद्गल ध्यान में आया क्योंकि पुद्गल ही अवयवी बन पाते हैं । क्षेत्रदृष्टि से आकाश ध्यान में आया, कालदृष्टि से काल और भावदृष्टि से यह मैं जीवतत्त्व समझ में आया इस कथन में केवल इतना ही प्रयोजन लेना है कि सद्भूत पदार्थों में से जब हम भावदृष्टि की प्रधानता रख के देख पायेंगे तो हम जीव को देख पायेंगे । इस जीव की कुछ पिण्डदृष्टि आकारदृष्टि की प्रधानता से न समझ पायेंगे कि मैं हूँ । इसे हम किसी वर्तमान परिणति से न समझ पायेंगे कि मैं क्या हूँ । इसी तरह आकारदृष्टि से मैं कितना लम्बा-चौड़ा हूं―ऐसा ध्यान में लाकर हम अपने को न समझ पायेंगे कि मैं क्या हूँ किन्तु भावदृष्टि से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द आदिक असाधारण भाव और उनमें भी मैं अभेदरूप से चित्स्वभाव हूँ । यों केवल चिद्भाव की दृष्टि से जब हम निरखते चलेंगे अपने आप में तो समझ पायेंगे कि मैं हूँ । ऐसा यह में साधारण गुणरूप भी हूं और असाधारण गुणरूप भी हूँ ।
‘‘हूँ’’ की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता―मैं हूँ इसका वर्णन चल रहा है । मैं हूँ तो नियम से उत्पादव्ययध्रौव्य वाला हूं । है में स्वरूप पदार्थ सत्ता से अनुस्यूत होता है अर्थात् तन्मात्र होता है और सत̖उत्पादव्ययध्रौव्य से युक्त होता है । सत̖ का लक्षण एक उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है । है कुछ तो नियम से वह कुछ बनेगा, बिगड़ेगा और बना रहेगा । जिनकी इस बात पर विश्वास नहीं वे जीव घबड़ाते हैं, हाय ! मैं नष्ट हो जाऊंगा । अरे मैं जीव हूँ । जीव कभी नष्ट नहीं होता । कुछ लोग ऐसा ज्ञान कर पाये कि मैं नष्ट नहीं होता, यहाँ से मरकर अन्य भव में जाऊंगा सिद्धपर भी इस बात से घबड़ाते हैं कि मैं न जाने क्या बनूंगा । न जाने कौनसी गति में जाऊंगा? न जाने कैसा शरीर पाऊंगा । यह भी घबराहट, मैं यथार्थ में क्या हूं? इसके ज्ञान, बिना हो रही है । जैसे मैं नष्ट हो जाऊंगा यह घबड़ाहट अपने आपके ध्रौव्यत्व के ज्ञान बिना होती है, तो मैं किसी कुगति में जाऊंगा, कहां जन्म लूंगा, यह घबड़ाहट भी आत्मा के सहजस्वरूप के ज्ञान बिना हो रही है । यदि आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय रहे तो परिचय के मायने तो यह हैं कि वही-वही दिखा करे । उस ही रूप अपनी प्रतीति बनाये रहें । तो जो पुरुष मैं ज्ञानमात्र हूं, ज्ञानातिरिक्त अन्य कुछ नहीं हूँ ऐसा विश्वास रखता है उसका उपयोग निर्मल होने के कारण उसको शंका ही नहीं है कि मेरा क्या भव होगा ? साथ ही जब उसने अपने सहज स्वभाव को जाना और वह है स्वभाव भवरहित । उस ज्ञानस्वभाव में नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव भव पड़े हुए हैं । क्या? अरे स्वभाव में तो विकल्प, विचार, वितर्क भी नहीं पड़े हुए हैं । तो ऐसे भवरहित स्वभाव की प्रतीति करने वाला हो कोई और मेरा भव कैसा होगा? इस प्रकार की घबड़ाहट बने, यह बात सम्भव नहीं । अगर है घबड़ाहट तो उसके अभी श्रद्धा में कमी है । भवरहित केवल चिन्मात्र मैं आत्मा हूं, इस प्रतीति में जब कमजोरी है तब घबड़ाहट हुआ करती है । मैं हूं, इस कारण उत्पादव्यय ध्रौव्य रूप हूँ ꠰
‘‘हू’’ का उत्पादधर्म―उत्पाद मिटाये नहीं मेटा जा सकता ꠰ मुझमें नवीन अवस्था निरन्तर आती हो रहेगी, उसे मिटाया नहीं आ सकता । लेकिन वह उत्पाद मेरा क्या है? जब अपने स्वरूप पर दृष्टि की तो उसे यह ध्यान में आया कि वह उत्पाद तो मेरे अस्तित्व का सहयोगी है । वह मेरा बुरा कैसे कर सकता है? वस्तु का धर्म वस्तु की बरबादी के लिए नहीं होता ꠰ कोई दूसरे पदार्थ का सयोग और दूसरे पदार्थ के निमित्त से होने वाले भाव में तो वस्तु के बिगाड़ में कारण होते हैं, किन्तु पदार्थ का स्वयं का कोई सा भी निजी धर्म उस वस्तु की बरबादी का कारण नहीं बनता । उत्पाद यह तो मुझ वस्तु का स्वभाव है । प्रतिक्षण अनन्त अवस्थाओं होती रहे, उस उत्पाद से मेरा बिगाड़ नहीं है । मेरा क्या उत्पाद है वह है जिससे मेरा अनंतकाल तक बिगाड़ नहीं हो सकता । जो पर के सम्बंध से हुआ हो ऐसा जो कुछ भी उत्पाद है वह मेरा धर्म नहीं, यह मेरा स्वरूप नहीं । जो मेरा धर्म है वह मेरे अस्तित्व का सहयोगी है विरोधी नहीं । जैसे कहते हैं आगम में षड̖गुण हानिवृद्धि रूप परिणमन, अर्थ परिणमन ꠰ वस्तु के अस्तित्व के कारण वस्तु में अस्तित्व बनाये रखने के लिए जो निरन्तर वस्तु का सहज व्यक्तरूप चलता है वही है वस्तु का वास्तविक उत्पादधर्म ।
‘‘हूँ’’ का व्ययधर्म―जब उत्पाद मेरे विनाश के लिए नहीं हुआ तो मेरा व्यय भी मेरे बिगाड़ के लिए न होगा । व्यय के मायने विनाश । विलीन होना । यह भी तो वस्तु का धर्म है । उत्पाद व्ययध्रौव्य से मुक्त वस्तु हुआ करती है । मैं निरन्तर नया-नया बनता हूँ और अपने में निरन्तर पूर्व-पूर्व रूप से नष्ट होता हूँ, लेकिन यह विलय मेरा विनाश न करेगा । यह व्ययधर्म मेरा विनाश नहीं कर सकता । मेरा अस्तित्व नहीं खो सकता । क्योंकि व्यय भी मेरा धर्म है, वस्तु का धर्म है तो वह व्यय किस रूप से होता है? जो मेरा व्यय करने अर्थात् विनाश करने में समर्थ नहीं है, व्यय होकर भी व्यय नहीं कर सकता है ऐसा वह व्ययरूपधर्म क्या है? वस्तु है वह अपना व्यक्तरूप रखती है और उस व्यक्तरूप में ही पूर्व पर्याय में व्यक्तरूप के लिए अपना समर्पण कर देती है अपना अस्तित्व विलीन कर देती है, सो वस्तु का सत्त्व बनाये रखने के लिए यह पूर्व पर्याय का बलिदान है न कि वस्तु कौ मिटाने के लिए । यों वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होती है ।
आत्मतत्त्व की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता―मैं हूं, क्या हूं, ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होते ही असाधारण गुण का प्रकाश आ ही जाता है । मैं चैतन हूं, मैं चेतता रहता हूँ, जानता रहता हूँ और जानते रहने की संतति में मैं प्रतिक्षण की जानन स्थिति को व्यापकर वर्तमान स्थिति के जाननरूप परिणमता रहता हूं । ऐसा ही तो भगवान करते हैं । भगवान में और प्रभुता क्या है? इतनी शुद्ध परिणति है प्रभु की कि उनका वह जानना निरन्तर चल रहा है ꠰ यों निरन्तर उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप मैं आत्मतत्त्व हूँ । देखिये―उत्पादव्ययध्रौव्यता मारे बिना किसी का गुजारा नहीं चल सकता । कोई भी दार्शनिक हो सबको: उत्पादव्ययध्रौव्य मानना ही पड़ा मगर बिखरा हुआ माना गया ꠰ किसी की कल्पना में है कि सार विश्व एक ईश्वर ने किया और वह इतने कल्पकाल बाद प्रलय करेगा और प्रलय के कुछ समय बाद फिर उत्पन्न करेगा और ईश्वर वह तो बराबर ही रहा आयगा? नहीं तो आये की सृष्टि बने कैसे? लोग किसी न किसी रूप में उत्पादव्ययध्रौव्यता मानते हैं, लेकिन जब उसके आवांतर प्रसंग में प्रश्न होता है कि यह तो हम रोज देखते हैं कि वस्तु बिगड़ती हे, बनती है, बनी रहती है ꠰ आप तो कल्पकाल की बात कहते । तो मानना पड़ा फिर कि तीन देवता सदा रहते हैं―ब्रह्मा, विष्णु, महेश । और उनमें ब्रह्मा का काम है पैदा करना, विष्णु का काम है बनाये रहना, महेश का काम है नष्ट कर देना । ठीक है लेकिन जब मेरे आवांतर में यह प्रश्न होगा कि हम तो देखते हैं वस्तु में एक ही समय में उत्पाद है, व्यय है, ध्रौव्य है तब इसका समाधान किसी भिन्नकर्ता पर दृष्टि रखकर नहीं बन सकता । तो मानना ही पड़ेगा कि प्रत्येक वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप है ꠰ यही सत्त्व का लक्षण है । ऐसा मैं हूँ ।
आत्मा की अहेतुकता व सनातनता―अपने आत्मा के अस्तित्व के सम्बंध में चर्चा चल रही है कि मैं हूँ, अपने स्वरूप से हूँ, पर के स्वरूप से नहीं हूँ, सदा परिणमता रहता हूँ, अपने में परिणमता हूँ, पर मैं नहीं परिणमता । किसी न किसी आकार को लिए हुए हूँ और ज्ञान के द्वारा ज्ञेय हूँ । ऐसा साधारणतया अस्तित्ववान होकर भी असाधारण गुण से शून्य नहीं हूँ ꠰ चेतना गुणात्मक हूँ और एक ही समय उत्पादव्ययध्रौव्य से युक्त हूँ । ऐसा हूँ । ऐसा यह मैं चैतन्य आत्मतत्त्व किस कारण से हूँ । मुझे किसने बनाया है, इस सम्बंध में अब विचार करें । मैं किसी कारण से नहीं हूँ । मुझे कोई उत्पन्न करता हो ऐसा नहीं है । लोकव्यवहार में इसके बारे में लोग कहा करते हैं कि मैं उत्पन्न हुआ हूँ । मैं मातापिता से उत्पन्न हुआ हूँ, वह सब एक व्यामोहभरी बात है । देह के नाते से ऐसा कहा जाता है । मैं अमूर्त चेतन आत्मा किसके द्वारा पैदा किया जा सकता हूं? और, अमूर्त चैतन्य की ही बात क्या, जो भी मूर्त अचेतन हैं वे भी किसी के द्वारा पैदा नहीं किए जा सकते । जितने जगत में अणु हैं अनादि से हैं, अनन्तकाल तक रहेंगे, न एक कम होगा और न एक के अधिक होगा? है अनन्तानंत, किन्तु जो असत् है वह सत् कैसे बनेगा ? जो सत् है उसका मूलोपहार कैसे होगा? तो कोई भी पदार्थ किसी कारण से बना नहीं, और अब अहेतुक है सभी पदार्थ तो उनकी सत्ता अनादि से है । किसी सम्बंध से आत्मा का अस्तित्व हुआ हो ऐसी बात नहीं है । आत्मा कब से है? उसके लिए यदि कोई दिन और समय कल्पना में नियत किया जाय तो यह प्रश्न होगा कि इससे पहिले क्या था? और, मैं न था । कुछ भी न था तो हो कैसे गया? किसी भी कार्य की उत्पत्ति बिना उत्पादन के नहीं है । यह मैं उपादानभूप चेतन अनादि से हूँ और अनन्तकाल तक रहूंगा ।
अहेतुकता व सनातनता होने के कारण आत्मा का अन्य पदार्थों पर अस्वामित्व―मैं जब अनादि से हूँ, अनन्तकाल तक रहूंगा, तब जिस किसी भी समय इन पदार्थों का संयोग हो जाता है वे पदार्थ इसके कुछ नहीं हैं और वे केवल एक अशान्ति के ही आश्रयभूत होते हैं । आत्मा स्वयं शान्त है, यदि यह अपने आप में ही रहे । बाहर अपनी दृष्टि न करे तो इसकी अशान्ति का कोई प्रसंग नहीं । मगर अनादिकाल से एकदम बाहर ही बाहर इसकी दृष्टि है, इस कारण से इसको न अपना पता है न बाहर से हटने में अपना कल्याण समझता है । मैं हूँ और अहेतुक हूँ । किसी कारण से हुआ नहीं ꠰ अनादि से हूँ, अनन्तकाल तक रहता हूँ । यह चर्चा चल रही है एक अमूर्त केवल चित्प्रतिभासमात्र की । देह की या उन विकल्पों की जिन विकल्पों में आत्मस्वरूप की श्रद्धा की गई है, इन किसी की भी चर्चा न करके केवल शाश्वत् एक चित्स्वभाव की बात कही जा रही है । मैं वह अनादि अनंत अहेतुक हूँ ।
‘‘हूँ’’ का प्रयोजन―अच्छा, अब हूं का प्रयोजन सोचिये, किसलिए हूँ मैं ? कोई पदार्थ होता है तो उसका कुछ न कुछ प्रयोजन रहा करता है । तो मेरे अस्तित्व का प्रयोजन क्या है? किसलिए हूं? देखो ना, यह तखत है तो बैठने के लिए है, बेन्च है तो पुस्तक रखने के लिए हैं । मैं किसलिए हूँ ? मैं किसलिए हूँ, इसका उत्तर पाने के लिए पहिले इन तखत बेंचों का ही निर्णय कर लीजिये कि ये तखत बेन्च आदिक किसलिए हैं । लोग कहते हैं कि तखत बैठने के लिए है, लोटने के लिए है ꠰ अर्थात् इसका अस्तित्व इस प्रयोजन के लिए है । तो ऐसा कहना गलत है ꠰ तखत बैठने लोटने आदिक के लिए नहीं है । कोई बैठ ले तो यह उस बैठने वाले की क्रिया है, उसकी जबरदस्ती है, पर तखत बैठने के लिए नहीं है । इसका अस्तित्व तो केवल अपना सत्त्व बनाये रखने के लिए है न उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक रूप से निरन्तर न रहा है । इसका प्रयोजन केवल यह रहे, इसका अस्तित्व न मिटे इसके लिए है, इसके आगे इन वस्तुवों का कोई प्रयोजन नहीं है । जैसे कभी कोई कहता है ना कि बेकार चीज थी और देखो―इसने किस तरह से इसका उपयोग कर लिया । तो इसी तरह यह मान लो कि जगत के समस्त पदार्थ बेकार चीज हैं एक दूसरे के लिए । पर यह चेतन है कि प्रभु है, बुद्धिमान है और वह इनका उपयोग करता, उपभोग करता, लेकिन ये सब हैं बेकार । इन पदार्थों का अस्तित्व मेरे उपभोग के लिए नहीं, मेरे आराम के लिए नहीं, किन्तु इनका अस्तित्व इनके ही लिए है । यदि ये पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक रूप से न रहते होते तो इनका अस्तित्व ही न था । सभी पदार्थों का प्रयोजन केवल अपना सत्त्व बनाये रखना है । ये अचेतन जानते नहीं हैं, ऐसी इनमें प्रयोजन की बात कहने से कुछ जरा बेतुका मामला लगता है, लेकिन ये न जानें, न सही, किन्तु ये हैं तो किसलिए हैं? यह प्रश्न व्यर्थ का नहीं है, । कभी पदार्थ अपना अस्तित्व बनाये रहने के लिए हैं, इसी प्रकार मैं हूँ तो माना है । इसके लिए ही हूं, इसके आगे मेरा कोई प्रयोजन नहीं ।
‘‘हूं’’ का अधिक प्रयोजन मानने से क्लेशापन्नता―जब ‘‘हूँ’’ इससे अधिक मेरा कोई प्रयोजन नहीं और मानते हैं प्रयोजन बस इसीलिए तो दु:ख आता है अजी में लोक में ऐसे ठाठ से रहने के लिए हूँ, इतना धन संचय करने के लिए हूँ, मैं इस तरह की इज्जत पाने के लिए हूँ । जहाँ और प्रयोजन बना रखे हों बस वही क्लेश है, और जब वस्तुगतस्वरूप यह समझ में आता है कि मैं हूँ तो ‘‘हूं’’ इसके लिए हूँ । इसके आगे मेरी कोई प्रयोजन नहीं है । देख लो―तभी जो बात सत्य है वह तथ्य की बात सामने आती है । सब छूट जाता है, रह जाता है वही अकेला, तो क्योंकि इसका प्रयोजन भी इतना ही था । वह कहीं नहीं मिटता और बाकी जो गैर-गैर प्रयोजन मान रखा वे तो मिटेंगे । जैसे कोई जबरदस्ती दूसरे की सम्पदा को अपनी समझकर और वह अपने में निर्णय बना ले कि बस यही तो मेरी सम्पदा है और इसके लिए ही मैं है तो उसे सिवाय क्लेश के और क्या मिलता है ? तो इसी तरह जो मेरे प्रयोजन में बात ही नहीं है उन उनको हम अपना प्रयोजन माने तो उसमें क्लेश के सिवाय और क्या बात है? मैं हूं और अपने अस्तित्व के लिए ही हूँ । निरन्तर उत्पादव्ययधौव्यात्मक बना रहूं बस इसके लिए हूँ । जब मोहबुद्धि होती है तब बाहर में संकोच होता है । लिहाज, भय आदिक ये सारी बातें आने लगती हैं । यद्यपि यह बात गृहस्थावस्था में कुछ दर्जे तक ठीक बतायी गई हे, लेकिन साधुजनों की वृत्ति देखो तो उन्हें संकोच, लिहाज शर्म, भय, शंका आदिक किसी का भी स्थान नहीं है । उनकी तो एक अलौकिक वृत्ति होती-है । जैसी वृत्ति गृहस्थजनों की होती है उससे उल्टी वृत्ति साधुजनों की होती है । उनमें ऐसी वृत्ति होने का कारण है आत्मस्वरूप का यथार्थ परिज्ञान ꠰
अस्तित्व का प्रयोजन उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत्त्व बनाये रखना―किसी को भी यदि आत्मस्वरूप का यथार्थ परिज्ञान हो जाय, तो फिर सारी समस्याओं का समाधान पाना उसके लिए अत्यन्त सुगम हो जाता है । बस मैं हूँ, ‘हूं’, बने रहने के लिए हूँ, इसके आगे और कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि अपने स्वरूप मे यह अकेला है अपने आप में यह केवलमात्र है । इसमें दूसरे का कोई सम्बंध नहीं । दूसरे का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हम मे आती नहीं । तो जब केवलमात्र यही है तो इसका काम क्या रह गया? सिवाय यही के अपने स्वरूप में नवीन परिणति उत्पन्न करे, पुरानी परिणति विलीन करे और ऐसा ही यह करता रहे । सिवाय इसके और इसका काम क्या रह गया ? अन्दर में सोच लीजिए ꠰ अब ज्ञान से उपयोग से हम अन्य-अन्य अनेक बातें लपेट से रहते हैं तो यह तो हमारा व्यामोह है । स्वरूप से चिगने की हालत में ये सब कल्पनायें और विडम्बनायें है । मैं हूँ और अपने हूँ के लिए ही हूँ, इसके आगे मेरा प्रयोजन नहीं ।
आत्मा के स्वामित्व का विचार―यह मैं किसका हूं? इसका उत्तर जानने के लिए पहिले बाहर में भी सभी जगह यह निरख डालें कि कोई भी किसी अन्य का हुआ करता है क्या? पुद̖गलों में, हम स्कंधों मे देख लो―जैसे भींट पर गाटर रखा है तो लोग कहते हैं कि इस भींट का गाटर अच्छा है, तो वह गाटर भींट का है क्या? अरे गाटर का अस्तित्व गाटर में है, भींट का अस्तित्व भींट मैं है, पर केवल बाहरी सम्बंध है, वह भी वस्तुगत नहीं । अव्याप्यवृत्ति, बिना एक दूसरे में व्यापकर वहीं समीप रहना इतनी मात्र ही तो बात है । तो यह भी बात किसी की नहीं है । किसका है वह संयोग? गाटर का संयोग है क्या? नहीं, भींट का संयोग है क्या? नहीं, क्या दो का संयोग है? नहीं, दो की तो कोई एक चीज होती ही नहीं । तो अब वस्तुगत दृष्टि से देख रहे हैं भींट की गाटर नहीं है, क्योंकि भींट का गाटर में प्रवेश नहीं है । कोई कहे कि संयोग है, तो क्या भींट का संयोग है? भींट को खूब निरख डालो―कहीं संयोग न नजर आयगा । तो क्या गाटर का संयोग है? गाटर मैं अणु-अणु में खूब निरख डालो―वहां संयोग न मिलेगा । और, दो की मिलकर एक चीज कभी होती नहीं । भले ही यह लोग कहते हैं कि हम दो भाइयों की मिलकर यह सम्पत्ति है, यह चीज तो हम दो जनों की है । तो ठीक है, यह व्यवहार है, यह काल्पनिक है, पर कोई सी भी चीज क्यों दो की हो सकती है? नहीं हो सकती । और, जिस चीज को दो की कहते हैं वह किसी की भी नहीं है । तो बाहर में भी निरख डालो कि कोई अणु किसी दूसरे अणु का नहीं है । भले ही दुनिया में ये सब पदार्थ हैं, कुछ बुद्धि द्वारा, उपाय द्वारा करके इकट̖ठे हुए हैं तो कुछ अनाप-सनाप अटपट ही हुए हैं । हो जायें इकट̖ठे अथवा अनेक अणुवों का मिलकर बन जाये पिण्ड लेकिन वहाँ कोई सत् किसी अन्य सत् का नहीं है । तब एक यह आम कानून बन गया कि कोई भी सत् किसी दूसरे का नहीं है, गुंजाइश ही नहीं है । तय अस्तित्व सबका पृथक् है । और, सभी पदार्थ अपने ही प्रदेश में अपने हीं गुणों में उत्पादव्ययध्रौव्यरूप से रहते हैं, तब किसी का कोई बन ही कैसे जायगा?
पर का स्वामी मानने का परिणाम―भैया ! है नहीं किसी का कुछ, फिर भी मानना कि मेरा यह कुछ है, बस यही संसार में जन्म-मरण करने का और इतने भवों में, देहों में, दुर्गतियों में बने रहने का, फंसे रहने का यही कारण होता है । जैसे जिस किसी भी झगड़े को कहते हैं―बात तो कुछ भी नहीं और बिना काम का झगड़ा बन गया, यों ही यहां देखिये ना, यह झगड़ा क्या कम बन रहा कि यह मैं जीव निगोद में, प्रत्येक स्थावर में ꠰ कीड़ा-मकोड़ा में, देव, नारकी, पशु-पक्षी आदिक अनेक प्रकार के देहों में फंसता हूँ, बंधता हूँ, जन्ममरण करता हूँ, दुःखी होता हूँ । यह झगड़ा कितना बड़ा बन गया । और, बात है कुछ भी नहीं, झगड़ा बताने के लिए कुछ समझाने के लिए कि किस बात पर यह झगड़ा है । अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति, अनन्त आनन्द के स्वभाव वाला यह प्रभु जो इतनी गर्त अवस्था में दुःख भोग रहा है, यह किस बात पर भोग रहा है, असली चीज क्या है? लोग तो अंदाज लगाते कि यदि कोई बड़ा आदमी बिगड़ रहा है तो कोई बात होगी । तो यहाँ इतना बड़ा पुरुष जो प्रभु की तरह अनन्त ज्ञानादिक स्वभाव वाला है और वह जो इन दुर्गतियों में, भवों में जन्ममरण करता फिर रहा है तो कुछ बात तो होगी । बात कुछ नहीं । हां बात की बात है । चीज की बात कुछ नहीं है ।
बात के झगड़े का बतंगड़―देखिये बात के झगड़े चीज के झगड़े से भी बड़ा रूप रख लेते हैं । तो इतना जो बड़ा झगड़ा बन गया है वह झगड़ा बात का झगड़ा है । वह बात क्या? यही कि मैं तो किसी का हूँ नहीं और ये मेरे कुछ हैं नहीं ओर मानते यह हैं कि मेरा अमुक है, मैं इसका हूँ, इतनी एक कल्पनाभर करी, किसी वस्तु का बिगाड़ नहीं किया, किसी वस्तु को तोड़ा फोड़ा नहीं, केवल एक अपने आशय में भाव बनाया यदि आशय में यह भाव न बनाते और इन चीजों को तोड़ते-फोड़ते भी रहते तो इतना झगड़ा न था लेकिन आशय में जो ये मिथ्या कल्पनायें मन में आयीं, उपयोग में आयीं, इनसे इतना बिगाड़ हुआ कि देखो―यह शरीरों का भार ढोते फिर रहे हैं । हाथ, मांस, चमड़ी, मल, नाविक अपवित्रता में आ गयी, यह गलता है, सड़ता है, जन्मता है, मरता है, कितनी तोड़फोड़ हो रही है । ये सब बातें हो क्यों रही हैं ? बस एक इतना आशय करके मानने कि मेरा कुछ हैं और इसका मैं हूं ꠰
स्वरूपदृष्टि में अन्य की बाधकता का अभाव―स्वरूपदृष्टि कर लेने वाला पुरुष, अपने आपके सहज स्वरूप का अनुभवी पुरुष कभी भी यह विश्वास नहीं रखता कि मैं किसी अन्य का हूँ या अन्य कोई मेरे हैं । मैं हूँ स्वतंत्र हूँ, हूँ और परिणमता हूँ । इससे आगे मेरा कुछ काम नहीं । इससे आगे मेरा कोई सम्बंध नहीं । जब कभी सम्बंध भी मान रहे हैं, उस मानने की स्थिति में मीन मेरा कुछ है न किसी का मैं हूँ । ऐसा सबसे निराला अपने साधारण और असाधारण गुणों रूप मैं आत्मा हूँ । अनुभव करके किसी क्षण यह तो परख लीजिये पूरा उत्साह करके, श्रम करके, प्रयत्न करके कि मैं वास्तव में हूँ क्या ? इस हूं की समझ में बाधा डालने वाला कोई दूसरा नहीं है । जैसे कि कोई समझे कि भाई मेरी स्त्री उल्टी-उल्टी चलती है, मेरा पति यों ही अटपट चलता है, मुझे चैन नहीं है, मेरा लड़का या मेरा पिता बिल्कुल मुझ से डिफरन्ट है, ये लोग मुझ पर रोब जमाते हैं । मैं क्या करूं? कैसे मुझे शान्ति मिले? अरे कोई कितना ही दबा रहा हो कहां दवा रहा? वह तो सिर्फ बात कर रहा, अपने में अपनी चेष्टा कर रहा, मैं अपन आप में स्वयं मैं एक दृढ़ बनकर अपने में दृष्टि करूं तो इसमें बाधा देने वाला कौन?
आत्मा की अन्त: स्वतन्त्रता―भले ही कोई प्रबंधक या कोई सिगड़ी इसे कैद करके ले जाय, जेल की कोठरी में इसे बन्द कर दे, पर यह तो बतलावो कि वह आत्मा बन्द है क्या? ज्ञानी पुरुष के और वहीं अपने आप में अपने स्वरूप की दृष्टि कर रहा, अनुभूति कर रहा, अपने स्वरूप दर्शन का आनन्द ने रहा तो इस आनन्द को भी कोई कैद कर सकेगा क्या? वह तो वहाँ बन्धन में नहीं है । घर के लोग, परिजन लोग किसी तरह कितना ही दबाव करें, कुछ करे, अथवा राग करें, स्नेह करें फिर भी मैं अपनी कल्पना के दबाव से ही दबता हूँ । विरोध और द्वेष के दबाव से राग का दबाव और खराब है । किसी पुरुष को दबाकर, डाट डपटकर जो काम नहीं करो सकते वह काम स्नेह दिखाकर प्रशंसा करके आप करा लें । तो क्या राग का दबाव द्वेष के दबाव से कम है, लेकिन दबाव किसी पर किसी का नहीं है । वस्तुत: कोई अपने आपको अपनी दृष्टि में रखे, समझे, जरासा ही तो काम, है, भीतर ही रहने वाला यह मैं भीतर हीं भीतर अपने को निरखने लगूं, इसमें कोई विशेष श्रम तो नहीं है, पर रुचि हो इस तरह, यह ज्ञान रखा हो कि जगत में जितनी भी सम्पदा, जितने भी समागम हैं वे सब असार हैं, इतना भी दृढ़ श्रद्धान हो तो इसको आत्महित का मार्ग प्राप्त होना सुलभ हो जाता है । तो यह मैं हूँ, अनादि से हूँ, अनन्तकाल तक हूँ, किसी का नहीं हूं, अपने ही हूँ के लिए हूँ, और किसी भी अन्य पदार्थ का नहीं हूँ ।
आत्मस्वरूप को यथार्थ जानने की अत्यावश्यकता―आत्मस्वरूप के जाने बिना इस जीव को कभी भी शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती, कारण यह है कि अपने आपको छोड़कर किसी भी बाह्य पदार्थ में उपयोग लगाया तो-प्रथम तो इस उपयोग का बाह्य पदार्थों के साथ मेल नहीं खाता, क्योंकि भिन्न द्रव्यपना है । दूसरी बात यह है कि वह आश्रयभूत पदार्थ नष्ट हो जायगा । तब यह उपयोग अनाश्रित होकर या अपने आप ही आसक्ति से अनाश्रित होकर फिर किसी बाह्य पदार्थ की खोज में लगेगा तो यों कभी भी इन बाह्य पदार्थों में इस जीव को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती । हम आप सबको यदि वास्तव में शान्त सुखी होना है तो नियम से अपने आपके स्वरूप में मध्य होना ही होगा, यह अपना पक्का निर्णय बनाम । इस भव में, जिसे कहेंगे सम्यक्त्वी यदि सम्यक्त्वी नहीं हो पाता तो फिर इस जीव का कुछ ठिकाना न रहेगा । आज तो मनुष्यभव पाया है । अच्छा समागम मिला है । अन्य मदों में यह फिर क्या उपाय बनायेगा सुखी होने का? अतएव आत्मस्वरूप का ज्ञान कर लेना अत्यन्त आवश्यक है, यह उतना अधिक आवश्यक है जितना आवश्यक भोजन और घर नहीं है । एक भव में यदि घर का ठिकाना न मिला और कहीं जाड़ा, गर्मी, बरसात आदि में स्वतंत्रता से टिक न सके तो कुछ हर्ज नहीं, किसी भी जगह रह लिया, कोई बात नहीं, पर यह भव सदा तो नहीं रहने का । जिस किसी भी प्रकार गुजारा कर लिया जायगा, लेकिन आत्मा को आत्मा का ठौर न मिलेगा । तो यह अनन्तकाल तक बेघर का रहकर भटकता रहेगा ।
शान्तिलाभ के लिये धर्म और धर्माधार के आश्रय की प्रमुखता देने का कर्तव्य―जिस तत्त्व की और प्राय: मनुष्य की रुचि और दृष्टि नहीं है और जिसको एक काल काम समझते हैं कि जो एक कुल परम्परा में चला आया है―मंदिर जावो, पूजापाठ स्वाध्याय आदि करो, इनके
करने से समाज में मान बड़ाई मिलती है, यों ही समझकर अगर यहां समय मिला तो उतने समय यह भी कर लिया जायगा । यह इस तरह की बात नहीं है । जीवन का समय सबसे पहिले रत्नत्रयरूप धर्म की आराधना के लिए है और फिर समय बचता ही है, जो समय बचा उसमें फिर अपनी व्यवस्था बना लें । जैसे जीवन में जो मुख्य काम होता है उसके लिए आपका सारा रातदिन है लेकिन अन्य काम भी तो किया करते हैं । तो जैसे मुख्य काम के अतिरिक्त बचे हुए समय में अन्य छोटे-मोटे काम भी कर लिए जाते हैं यों ही इस आत्मा के सुखी शांत होने के अर्थ मुख्य काम है आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, आत्मरमण । यदि ये मुख्य काम भी रहते तो अन्य कामों की तो आवश्यकता ही न थी, पर इस मुख्य काम में टिक भी नहीं सक रहे, कोई जरा भी नहीं टिक पाता तो उसके लिए अन्य काम खोजे जाते हैं । तो अपने जीवन में मुख्य काम समझना चाहिए धर्म । आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, आत्मरमण । यह अपनी ही तो बात हैं, अपने ही लिए करने की बात है । इसमें दूसरे की कुछ बात नहीं । जातिकुल, मजहब आदिक की कुछ बात नहीं । केवल अपने आपकी ही बात कह रहे हैं । आप कैसे सुखी रह सकते हैं? एक वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग कर करके इसका निर्णय बना लो ꠰ इसमें संतों ने कहा है, प्रभु ने कहा है कि ऐसा करो, इसलिए हम ऐसा करते हैं यों रूढ़ि के वश न रहे । किन्तु यह निरखें कि प्रभु ने जो कहा है वह सच है ना । उसकी सत्यता अपने आपके प्रयोग में ला करके निरखिये । देखो―जब ज्ञानोपयोग अपने आत्मा के उस ज्ञानानन्द स्वरूप पर आता है तम शान्ति मिलती है कि नहीं । जब यह उपयोग किन्हीं बाह्य पदार्थों में रमता है भ्रमता है तब इसको अशान्ति, आकुलता होती हैं कि नहीं? परख करके श्रद्धान कर लो । और, फिर जहाँ आपको शान्ति प्रतीत हो, वास्तविक ढंग से जहाँ निराकुलता का मार्ग मिलता हो उस मार्ग पर आप चल दीजिए तो यह निर्विवाद सिद्ध होगा कि मुझे शान्ति मिल सकेगी तो अपने आपके आत्मा में समा जाने से मिल सकेगी ।
स्याद्वाद से स्वकीय अस्तित्व का निर्णय―आत्मशान्ति के उपाय में सर्वप्रथम यह बात कह रहे कि अपने अस्तित्व का निर्णय सो करें कि मैं हूँ । मैं का निषेध तो क्रिया ही नहीं आ सकता । यदि कोई पुरुष कहे बड़े जोर से शब्दों द्वारा डटकर कि मेरे जीभ नहीं है तो क्या कोई सुनने वाला मान लेगा? जिससे कहा जा रहा है कि मेरे जीभ नहीं है वहीं तो जीभ है । इसी प्रकार कोई कहे कि मेरे आत्मा नहीं है, मैं आत्मा नहीं हूँ, तो जो चिन्तन कर रहा, जो ऐसी समझ बना रहा कि मैं नहीं हूँ वही तो आत्मा । मैं का निषेध कौन कर सके? तो सर्वप्रथम अपने आप में यह निर्णय लेना है कि मैं हूं और, जब मैं हूँ तो मैं मैं हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ । किसी मी पदार्थ का आप अस्तित्व तब समझ पायेंगे जब यह सामने बात होगी कि यह यह ही है, यह अन्य कुछ नहीं है । इस ज्ञान में यदि संशय है तो ‘‘यह है’’ यह भी आप न समझ सकेंगे । ‘‘यह है’’ इसमें यदि कुछ संशय है तो यह अन्य कुछ नहीं है वह बात भी आप निर्णय न कर सकेंगे । तो कुछ भी आप कहें, किसी भी वस्तु का सत्त्व बताइये तो उसकी हां के साथ ना भी लगा हुआ है, लेकिन हां और ना दोनों की दृष्टियां अलग-अलग हैं । यहाँ यह देखिये कि हम आप सबके काम में, व्यवहार में स्याद्वाद का कितना गहरा सम्बंध है । किसी भी मनुष्य को निरखकर जब जानते हैं कि यह फलाना पुरुष है तो उसके साथ ही क्या यह नहीं जानना होगा कि यह और अन्य कोई नहीं है? दोनों ही बातें इसके साथ ही साथ हैं । और, अब ये दोनों बातें उसके साथ हैं तो दोनों बातें जिसमें लगती है हां और ना, तो वे वास्तव में हैं क्या? एक शब्द में तो बताओ । तो कहना पड़ेगा कि अवक्तव्य । बस प्रत्येक पदार्थ कई बात इन तीन दृष्टियों में गर्भित होती है । कुछ भी है तो वह है, अन्य नहीं है, फिर भी वास्तव में अवक्तव्य है ।
अनुरूप प्रयोग से अपने अस्तित्व का दृढ़ निश्चय―यह मैं, मैं हूं, अपने स्वरूप से हूं, यह बात चित्त में तब उतरती है जब किसी भी बाह्य पदार्थ का विकल्प न हो । बाह्य पदार्थ या बाह्य तत्त्वों के विपरीत श्रद्धा न हो । उन्हें यथार्थ जाने, अपने आपके स्वरूप की भी विपरीत श्रद्धा न हो जिसके कारण जिसके आधार पर बाह्य पदार्थों की चिन्ता न रहे, व्याकुलता न रहे तो इस प्रयोग से जब हमें अपने आप में विश्राम मिलता है तो यह ज्ञान ही स्वय, ढूंढ नेता है, जान लेता है कि यह हूँ मैं आत्मा । अपने स्वरूप में हूँ । अब आप जानें कि आत्मज्ञान कितना उच्च वैभव है । और, समस्त हितों का कारणभूत है । हम धर्म के नाम पर भी सब कुछ समझ डाले, सब बाह्य प्रसंग कर डालें, लेकिन यह आत्मतत्त्व की समझ न बनायें तो उन सब बाह्य पदार्थों से इस आत्मा को शान्ति तो मिली नहीं, न कर्म कटे । धर्म का आधार है आत्मज्ञान । आत्मा का ज्ञान नहीं तो धर्म का पालन भी नहीं । किसी दूसरे का धर्म थोड़े ही पालना है । हमें तो अपने आपके आत्मा का धर्म पालना है तो आत्मा का जो धर्म है, आत्मा का जो स्वरूप है, स्वभाव है वह विदित हो तो मैं क्या पालूं?
धर्मपालन का संक्षेप में दिग्दर्शन―संक्षेप में आप इतना जाने कि आत्मा का धर्म है जानना देखना । केवल जानना रहे, केवल देखना रहे उसके साथ विकल्प न हों, रागद्वेष के विकल्प न उठें, मात्र जानन देखन रहे तो समझिये कि हम धर्म में स्थित हैं और हम धर्म के पालनहार हैं । और, ऐसा बनने के लिए व्यवहार में भी हमारी ऐसी प्रवृत्तियां हों कि हम अपने को आत्मा के धर्म में ठहराने के पात्र बनाये रखें तो व्यवहार में यह भी धर्म कहलाता है । जिन प्रकृतियों में रहकर हमें यह शिक्षा नहीं मिलती कि हमें अपने ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा में ठहरना है, बल्कि इससे विपरीत ही चले जाते हैं तो वे सब बातें व्यवहार धर्म भी नहीं कहलाती । व्यवहार धर्म वह कहलाता है जो निश्चयधर्म पालने में सहायक हो । तो हम आपको करने के लिए केवल एक ही काम है दूसरा काम नहीं । दूसरा काम तो जब इसमें हम ठहर नहीं पाते तब करना चाहिए । करने पड़ते हैं । तो यह मैं आत्मा हूँ, अपने स्वरूप से हूँ और पर के स्वरूप से नहीं हूं ꠰
आत्मस्वतन्त्रता के निर्णय का निर्णयन―अब अपने आपके सम्बंध में विचार करें कि मैं स्वतंत्र हूँ । स्वतंत्र का अर्थ है―अपने आपके द्रव्य के आधीन हूँ । एक सामान्यतया वस्तुस्वरूप की ही बात कही जा रही है । समस्त वस्तुयें स्वतंत्र हैं । यथार्थ दृष्टि से देखो तो पदार्थ का अस्तित्व किसी दूसरे की कृपा पर निर्भर नहीं है । हां यह आत्मा ही जिन जिनकी उपासना करता है, अपने आपको कुछ अलौकिक शान्तिधाम में पहूंचाता है उसको कृपा कही जाती है । पर अस्तित्व किसी दूसरे के आधार पर नहीं है । जो है सो स्वत: सिद्ध है ꠰ असत् कभी बनाया नहीं जा सकता । असत् की उत्पत्ति नहीं, सत् का विनाश नहीं । यह ऊंचे-ऊंचे सभी दार्शनिकों ने माना है । तो मैं हूँ तो हूँ, सदा से हूँ, सदा तक रहने वाला हूँ । अब यह बात हमारी है कि हम कैसी दृष्टि बना में तो हम पर क्या बीते? कैसी दृष्टि बनाते तो हम क्या पाते? यह एक निर्णय करने की बात है । और यह आत्मीय विज्ञान की बात है । किसी भी वस्तु का निर्णय होगा तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से होगा, सो आत्मा का परिचय निर्णय भी द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों रूप से होगा ।
स्वातन्त्र्यनिर्णय के स्वरूपचतुष्टय को दृष्टान्तपूर्वक कथन―जैसे यही एक पुस्तक है, तो इसका है आपने कब समझा कि यह है? जब आप को इसका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों विदित हों तब आपने समझ पाया कि यह है । द्रव्य से कैसा है यह पिण्ड? जिसे आंखों से देख सकते हैं वह तो है पिण्ड और इसके साथ ही साथ इसका आकार प्रकार भी आपको विदित हो रहा है । जितने में यह फैला है वह कहलाया इसका क्षेत्र । और, इसमें जो परिणति है, जो व्यक्ति है, जो रंग प्रकट है, जो स्पर्श प्रकट है, जीर्णशीर्ण अथवा मजबूत जो कुछ भी परिणति इसमें हैं वह भी आपको तुरन्त समझ में आयी । साथ ही इसका भाव, अर्थात् जो चीज शाश्वत रह सकती है, कुछ समय का भी भाव आपकी निगाह में है । जब द्रव्य, क्षेत्र, काम, भाव चारों आपकी समझ में है तो आपने उसमें तत्त्व को जाना । बेन्च चौकी आदिक जो हमारे आपके ज्ञान में आते हैं तुरन्त ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये चारों ज्ञान में आते हैं । कोई बता सके अथवा नहीं । बालक से लेकर बड़े-बड़े बुद्धिमान तक सबको जो कुछ भी चीज विदित होती है उसका द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव यह चतुष्टय विदित हो ही जाता है । इसके बिना वस्तु के जानने का कुछ उपाय नहीं है ।
आत्मा का स्वरूप चतुष्टय से निर्णय तथा द्रव्यदृष्टि से परीक्षण-―अब आत्मा को भी देखिये―मैं आत्मा हूँ तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये चारों चीजें होनी ही चाहिएं । तो द्रव्य क्या है? जो पिण्ड हो । रूप, रस, गंध, स्पर्श वाला हो । इस तरह के पिण्ड रूप से अगर निरखा जाय तो आत्मा के जानने में बाधा आयगी । और, ऐसा निरखना तो जीव का अनादिकाल से बना हुआ है । यह जीव शरीर को आत्मा मानता है, तो पिण्डरूप से ही तो अपने को समझता । परन्तु, इन रूपरसादिक पिण्डरूप मैं नहीं हूँ । मैं तो ज्ञानदर्शन, आनन्द श्रद्धा आदिक गुण वाला हूँ । अर्थात् मैं निरन्तर कुछ न कुछ जानता रहता हूँ, मैं किसी न किसी पदार्थ मैं रमता रहता हूँ । स्व में रमूं, पर में रमूं, पर रमण करने का, लगने का इस आत्मा का स्वभाव है । कुछ भी जाने । बेहोश भी हो जाय तो भी वह जानता रहता है । लोग समझते हैं कि यह बेहोश हो गया । अब यह कुछ भी नहीं समझ रहा पर वह समझ रहा है, अंत: समझ रहा है । कोई पुरुष सोया हुआ है तो क्या उसका ज्ञान नदारद है? क्या वह कुछ समझ नहीं रहा? और, वह सोये हुए में भी समझ रहा है । यह जानन गुण एक क्षण को भी अलग नहीं होता । तो जो कुछ जानने में आ रहा है वह है जानने की परिणति । वे परिणतियां जिनके संतान पर, जिनके आधार पर यह सब जानन-जानन बनता चला जाय वह है ज्ञानगुण । तो यों उस ज्ञान, दर्शन, चरित्र, आनन्द, श्रद्धा तथा इनका परिणमन इनका पिण्ड हूँ मैं । हूँ मैं । जिसमें सुख-दुःख आदिक अनुभव होते हैं वह मैं आत्मा वास्तविक सत् हूं ! तो द्रव्यदृष्टि से, पिण्ड दृष्टि से आत्मा अपने द्रव्य, गुण, पर्याय वाला विदित होता है ।
द्रव्यदृष्टि से आत्मा का स्वातन्त्र्य―अब आप यह देखें कि गुणपर्यायरूप मैं अपने आपके सत्त्व से ही हूँ, या किसी दूसरे का आधार लेकर मैं बना हुआ हूं? मैं अपने आपके अस्तित्व से ही अपने गुणपर्यायरूप रहा करता हूँ । तब मैं द्रव्यदृष्टि से स्वतंत्र हुआ ना, किसी पर के आधीन तो न रहा । अब इतनी बात है कि अपनी परिणति अगर परपदार्थों में लगने की बनाऊं तो दुःखी होऊंगा और यदि अपनी परिणति अपने ही प्रभुस्वरूप में लगाऊंगा तो सन्मार्ग पाऊंगा और कभी शान्त होकर कृत्यकृत्य हो जाऊंगा । यह है अपनी करतूत की छांट लेकिन सत्त्व मेरा मेरे में मेरे ही सत्त्व के कारण है, किसी दूसरे के सत्त्व के कारण नहीं है । जैसे अनेक लोग घबड़ा जाते है किसी विपत्ति के आने पर कि अब तो हम इन लोगों के ही बल पर जीवित हैं अन्यथा मेरा अस्तित्व ही नहीं, पर ऐसा कभी हो ही नहीं सकता । किसी पुरुष को फांसी लगा दी जाती है तो वह आत्मा, वह जीव कहीं नष्ट नहीं हो जाता । वहाँ अर्थ इतना ही है कि उस जीव का उस देह से वियोग हो गया । कोई पुरुष अपनी ही बीमारी से मर जाते हैं तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि वे जीव नष्ट हो गए? अरे नष्ट कहां हुए वहां से मरण करके एक समय बाद में दूसरी जगह जन्म ले लेते हैं । जो जीव यहाँ मे मरण करके कहीं का कहीं पहूंचा उसके लिये यहाँ कोई कितनी ही किया में करें, कितने ही जाप करवायें, लोगों को भोजन करवाये, वस्त्र वगैरा बांटे, पर यहाँ के कोई भी चीज उस जीव के पास नहीं पहूंच सकती । इतना स्वतंत्र है यह जीव । किसी भी अन्य पदार्थ का द्रव्य लेकर अर्थात् गुण पर्याय का पिण्ड लेकर यह जीव अपना अस्तित्व नहीं बनाता । यह किसी के आधीन नहीं है कि आप यदि उस मरण कर जाने वाले के नाम पर कुछ मंत्र फेर लेंगे तो उसे कुछ फायदा पहूंच जायगा । अरे मैं अपने भाव निर्मल बना सकूं, मंत्र फेरूं अथवा नहीं, मंत्र तो भाव निर्मल करने का साधन हे, वह करें अथवा न करें यदि अपने में निर्मलता जागती है तो हम तो अपना लाभ पा ही लेंगे । मैं अपने गुणपर्याय के पिण्ड से पूर्ण स्वतंत्र हूँ । किसी दूसरे का सत्त्व लेकर मैं सत् नहीं हूँ । इस तरह मैं द्रव्य से स्वतंत्र हूँ । अब क्षेत्रादिक से भी मैं इसी प्रकार स्वतंत्र हूँ इसका वर्णन करेंगे ꠰
क्षेत्रदृष्टि से आत्मा का स्वातन्त्र्य―मैं द्रव्य से अपने ज्ञानादिक गुण और उन गुणों की परिणतियों का पिण्ड हूँ । क्षेत्र से मैं अपने ही प्रदेश में, अपने ही आकार में हूँ, काल से मैं अपनी ही परिणतियों में, अवस्थाओं में रहा करता हूँ और भाव से मैं अपने ही स्वभाव में, अपने ही गुणों में रहा करता हूँ । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अपना अस्तित्व रखने वाला स्वतंत्र हूँ । जो मेरा गुण है अर्थात् आत्मा के जो गुण हैं और जो परिणतियां हैं उनका पिण्ड जो मैं बन रहा हूँ तो किसी अन्य की कृपा से नहीं बन रहा, किन्तु मुझ में ही स्वयं अपना अस्तित्व है जिससे कि मैं यह हूँ । तो मैं द्रव्य अपेक्षा से स्वतंत्र हूँ, क्षेत्र अपेक्षा से भी स्वतंत्र हूँ । जो आकार है, जब-जब जिस-जिस देह में मैं गया उस-उस देह में मुझे संकोच विस्तार का आधार प्राप्त होता रहा, छोटे शरीर में गया तो छोटे आकार वाला हो गया और बड़े शरीर में गया तो बड़े आकार वाला हो गया । सो यद्यपि कर्मोदयवश जिस शरीर में यह जीव गया वैसे ही परिमाण वाला बन गया, इतना होने पर भी आत्मा में जो आत्मा का क्षेत्र है, आत्मा का प्रदेशवत्व है वह किसी दूसरे के आधीन नहीं रहा । प्रत्येक पदार्थ प्रदेशवान हुआ करता है और उनका यह प्रदेशवत्व उनका स्वयं स्वरूप से हुआ करता है । किसी दूसरे की कृपा पर नहीं सकता । ऐसा यह मैं नाना, आकारों में, संसार अवस्था में रहकर भी अपने प्रदेश में ही रहा दूसरे के प्रदेशवत्व से मेरा अस्तित्व नहीं चला, इस कारण से क्षेत्रदृष्टि से भी मैं स्वतंत्र हूँ । भैया । यों समझिये कि जो चीज होती है वह अपने स्वरूप से अपना घेरा बनाये रहती है । वस्तु है तो वह कितने में हैं? अवगाह प्रत्येक पदार्थ में रहता है । तो ऐसा क्षेत्र, अपने प्रदेश सबके अपने आपके आधीन हैं, किसी दूसरे के क्षेत्र के आधीन नहीं हैं । शुद्ध आशय होने पर तो आत्मा जिस आकार में मुक्त होता है उस ही आकार में अनन्तकाल तक रहता है । वहाँ अन्तर नहीं आता । अन्तर संसार अवस्था में आता है । चींटी के देह में गया तो चींटी के बराबर देह बना, हाथी के देह में गया तो हाथी के बराबर देह बना, इतने पर मी आत्मा के प्रदेशों में आकार का जो परिणमन हुआ वह तो उसके ही स्वयं के अस्तित्व से हुआ है । किसी दूसरे के कारण नहीं ।
कालदृष्टि से आत्मा का स्वातन्त्र्य―जब हम इस आत्मा को काल अर्थात् परिणमन की दृष्टि से देखते हैं तो इसकी प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थायें बनती जा रही हैं । देखिये आत्मा के शाश्वत स्वरूप में रूचि रखने वाले ज्ञानी पुरुषों की अवस्था पर दृष्टि नहीं होती । और, ऐसे ज्ञानी पुरुषों के द्वारा निरखा गया स्वभावत: द्रव्य जो अन्तस्तत्त्व है वह जब वर्णन में आये तो कहा जाता कि अपरिणामी है, शाश्वत है, नित्य है, एकस्वभावरूप है । तो इस दृष्टि से आत्मा नित्य है, एक है, एकस्वभावरूप है, अपरिणामी हैं लेकिन यह चर्चा यदि सर्वथा ही लगाया जाय आत्मा में तो वस्तु का अभाव हो जायगा । कोई भी पदार्थ हो वह उत्पादव्यय से बाहर नहीं है । भले ही यह एक आकाश अखण्ड व्यापक है जिसमें हम परिणमन क्या समझ सकते है? आकाश में क्या बदल हुई, हम नहीं जानते हैं, लेकिन वस्तु का अर्थात् सत् का यह नियम है कि यदि है तो वह अवश्यमेव अपने नये क्षणों में अपना रूप बनाये हुए है याने प्रति समय में अपनी अवस्था बनाता हुआ रहता है । वह चाहे एक सी ही अवस्था हो जिस कारण परिवर्तन विदित नहीं होता, लेकिन नये क्षण में सत्त्वरूप से रहता, अगले क्षण में सत्त्वरूप से रहता, इतने पर भी वहां उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता आती ही है ꠰ इस आत्मा के संबंध में तो अनुभव भी यह कहता है कि यह मैं जीव कभी सुख का वेदन करता, कभी दु:ख का वेद न करता । अनेक प्रकार के मैं अनुभव करता रहता हूँ । तो आत्मा में परिणतियां हैं, काल हैं जब जो परिणमन होता है । जैसे कि वर्तमान समय में मंद कषाय-रूप परिणमन है, क्रोध, मान, माया, लोभ, इन चारों कषायों में से एक समय में एक प्रकार की कषाय होती है और वासना में तो सब कषायें बनी रहती हैं, लेकिन प्रयोगात्मक परिणतिरूप एक समय में एक जीव की एक कषाय होती है । जब क्रोध कषाय का परिणमन चल रहा है तब यह जीव क्रोधरूप है । जब मान कषाय का परिणमन चलता है तो यह जीव मानरूप है । यों ही जब माया, लोभ आदि कषायों का परिणमन चलता है तो यह जीव उस समय उन रूप है । यों नाना परिणतियों में परिणमता हुआ यह जीव जब जिस समय जब जिस परिणति से परिणमता है तब उसका परिणमन उसके आधीन है न कि किसी दूसरे के आधीन है ।
विश्लेषणपूर्वक आत्मपरिणमन के स्वातन्त्रय का कथन―जैसे कोई पुरुष किसी दूसरे को गाली देने लगा तो उसे सुनकर दूसरे पुरुष ने भी क्रोध किया, तो दूसरे पुरुष ने उस गाली देने वाले पुरुष में क्रोध उत्पन्न किया? बद दूसरा स्वयं अपने अन्दर विकल्प बनाकर, अर्थ लगाकर स्वयं
एक नये क्रोध में आ गया, पर एक पुरुष दूसरे पुरुष में क्रोध उत्पन्न कर दे सो बात नहीं है । एक के विरोध ने दूसरे को विरोधी बना दिया सो भी बात नहीं । एक के राग ने दूसरे को रागी बना दिया सो भी बात नहीं । प्रत्येक जीव अपने आपके रागद्वेष के परिणमन से परिणमता है । कोई किसी दूसरे की परिणति को लेकर नहीं परिणमता । ऐसा यह मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा सदा
अपने परिणमन से ही परिणमता रहता हूँ । जीव के परिणमन में निमित्त कर्म का उदय है । और, बाहरी पदार्थ, धन, पुत्र, मित्र, प्रतिकूल, अनुकूल ये सब आश्रय कहलाते हैं । होता क्या है कि यह जीव तो ज्ञानी है ना, सो अन्य जीव के क्रोध विषय का आश्रय बनाकर स्वयं क्रोध कर बैठता है । तो कर्म का उदय हुआ निमित्त और जिस पदार्थ पर क्रोध किया, जिस जीव को लक्ष्य में लेकर गुस्सा किया वह हुआ आश्रय और क्रोध करने वाला यह जीव हुआ उपादान । तो यहाँ इस जीव का जो क्रोध रूप बन गया सो कर्म के उदय की परिणति लेकर नहीं बना और आश्रयभूत पदार्थ की परिणति लेकर नहीं बना किन्तु निमित्त-निमित्त रहा, आश्रय-आश्रय रहा, और यह स्वयं अपने आप में परिपूर्ण रहता हुआ क्रोधकषायरूप से परिणम गया । तो जीव का प्रत्येक परिणमन स्वतंत्र होता है । किसी दूसरे के द्वारा किया नहीं जाता । निमित्त और आश्रय होते सो निमित्त और आश्रय का कोई अंश कोई परिणमन कुछ भी गुण, कुछ भी अस्तित्व इस क्रोधरूप परिणमने वाले में पहूंचा नहीं है, इस कारण यह आत्मा अपने परिणमन में स्वतंत्र है ।
वर्तमान आत्मपरिणमन के सम्बन्ध में चिन्तन का अनुरोध―काल की अपेक्षा से भी मैं स्वतंत्र हूँ । अब थोड़ा अपने आपके बारे में विचार तो कर लीजिए । मैं अनेक पदार्थों में राग अथवा द्वेष किया करता हूँ । यह मेरा परिणमन जो पर की ओर आकर्षित होकर हो रहा है वह परिणमन पर ने तो किया नहीं, किन्तु मैंने ही स्वयं अपनी इच्छा बनाकर, अपने आपके मन को काबू में न रखकर किया है । इस परिणमन से अपने आपका कुछ लाभ है क्या? जितने क्रोध, मान, माया, लोभरूप परिणमन चलते हैं वे मिट जायेंगे फिर नये बनेंगे । ये स्वयं विभाव हैं, मलिन हैं, क्षणिक हैं, अशरण हैं, इन भावों के वश होकर मैं अपने आपको जो पर की ओर बहा रहा हूँ इस बहाव से मेरा कुछ उत्थान है क्या? ऐसा तो अनन्त भवों में करते चले आये हैं । जिस भव में जन्म लिया उप ही भव में किसी से भी राग किया, किसी से भी विरोध किया । देह में ममत्व किया, पर इस करतूत से कुछ अपना उद्धार हो सका क्या? वर्तमान की बात भी विचारो । वर्तमान में जो अनेक पदार्थों से रागपरिणति चल रही है वह परिणति मेरे आत्मा का उद्धार कर सकेगी क्या? यह मनुष्यभव तो आत्मोद्धार के लिए है । विषयकषायों के, भोगोपभोग के सेवन के लिए नहीं है । ये सब व्यर्थ अनर्थ तो पशु-पक्षियों के भवों मे रहकर भी लिए जा सकते हैं । इनमें समय खोने से क्या लाभ? जैसे-जैसे उम्र बड़ी होती जाती है वैसे ही वैसे मृत्यु के निकट पहूंच रहे हैं । इतने पर भी हम आप अपने आत्मोत्थान के लिए तीव्र रुचि नहीं बनाते ।
आत्महित को महत्त्व देने का विवेक―भैया ! यह पक्का निर्णय किये बिना काम न चलेगा कि हमारा गुजारा, हमारी शान्ति, हमारा उद्धार तो एक अपने सहजस्वरूप को जानकर उस ही में रमने से होगा, अन्य प्रकार न होगा । मेरा काम भी मात्र एक यही है । अपने को जानूं, अपने में रुचि करूं? और अपने में रहूं इसके सिवाय अन्य कोई दूसरी बात न सुहाये, यह बात गृहस्थी में भी सम्भव होती हैं । ज्ञानी पुरुष का ऐसा चित्त हो जाता, ऐसा उपयोग हो जाता कि उसे धन वैभव आदिक अन्य वस्तुवों मे महत्त्व नहीं दिखता । वह महत्त्व मानता है अपने आपके धर्म का, स्वरूपदर्शन का, स्वरूप में रमने का । जिनको यह बात नहीं सुहाती तो यों समझना चाहिए कि जैसे पुत्र प्रसव करने वाली माता के दुःख का अनुभव बंध्यास्त्री तो नहीं कर सकती इसी प्रकार ज्ञानी संतजनों की जहाँ दृष्टि लगी है, जिसे सार समझा है, जिसे शरणभूत माना है, उसके सिवाय अन्यत्र कही उसका उपयोग जमता नहीं । करना पड़ रहा, फिर भी जमता नहीं, उसका क्या अनुभव है, उसकी क्या स्थिति हे, इस बात को मोही अज्ञानीजन नहीं समझ सकते हैं । सचमुच उस ज्ञानी गृहस्थ की भी इच्छा किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है । जैसे कहते हैं कि अनाकांक्ष होता है ज्ञानी सम्यग्दृष्टि । नि:कांक्षित अंग होता है । उसमें कोई भले ही यह शंका करे कि यदि दूकान पर बैठा है तो क्या वह इच्छा नहीं करता कि आज इतना लाभ होना चाहिए? भले ही इच्छा करता है मगर वह इच्छा अन्त: इच्छा ही नहीं है । जिसको यह निर्णय है, जिसको यह प्रतीति है कि करने योग्य काम तो मात्र एक यही है―आत्मा के रत्नत्रयस्वरूप में
रमना, दूसरा काम जिसे सुहाता ही नहीं है, सम्यक्त्व के कारण जिसकी इतनी तीव्र लगन हुई है उस पुरुष में इच्छा भी आये तो भी वह इच्छा उसके अंत: घर नहीं कर सकी, इस कारण वह इच्छा इच्छा ही नहीं कहलाती । इच्छा होकर भी इच्छा नहीं है क्योंकि उनको महत्त्व नहीं दे रहा है वह ।
शीघ्र आत्मोत्थान के उपाय में लगने में बुद्धिमानी―भैया ! आत्मोत्थान की बात इस भव में बना लें तो भला ही भला है और न बना सके तो इसका फल बहुत कटुक है । समय बराबर नहीं मिलता । भला ऐसा मन, ऐसा देह, ऐसी बुद्धि, ऐसा समय, ऐसा क्षेत्र, शास्त्र, गुरु की समागम ये सारी बातें इन मायामयी नाना दुर्गतियोंरूप, क्लेशमय संसार में पा लेना कितना दुर्लभ है । इतनी दुर्लभ चीजें पाकर भी इनका महत्त्व नहीं कि रहे, यह कितनी अज्ञानता भरी बात है । जैसे कोई गरीब पुरुष एक लखपति पुरुष के धन का महत्त्व तो कृत लेता है पर वह लखपति पुरुष धन में तृष्णा होने के कारण उस प्राप्त धन का महत्त्व नहीं कूत पाता, वह तो यही समझता है कि मेरे पास तो कुछ भी धन नहीं है, इसी प्रकार हम आपको आज मनुष्यभव मिला है, श्रेष्ठ समागम मिले हैं फिर भी अज्ञानतावश इन दुर्लभता से प्राप्त समागमों का महत्त्व नहीं कूत पाते । इस मनुष्यभव के महत्त्व को जब देव भी अंगीकार कर लेते हैं कि मनुष्यभव महान् है तभी तो देखो―तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण आदि सब कल्याणकों में और सब समयों में देव और इन्द्र किम प्रहार की मेधा करते हैं । वे देव इस मनुष्यभव का महत्त्व जानते हैं । मुक्ति प्राप्त होती है तो इस मनुष्यभव से । मनुष्य का मन सब संज्ञी जीवों से श्रेष्ठ कहा गया है ।
कालदृष्टि से आत्मस्वातन्त्र्य जानकर इस ज्ञान के सदुपयोग की वार्ता―यहां अपने परिणमन के सम्बंध में विचार करिये कि मैं कहीं पर पदार्थों के द्वारा फंसा हूँ ? किसी दूसरे ने मुझे कहीं वश में किया है? मैं स्वतंत्र हूँ, मैं ही अज्ञानभाव में बढ़कर परपदार्थों में लग बैठता हूँ । मैं अपने को सम्हालूँ तो अपने आप में अपनी हठ बना सकता हूँ । मुझे तो अपना ही कार्य करना है । स्वयं के स्वरूप को निरखकर उसमें ही तृप्त बने रहना है । दूसरा काम मेरे करने को पड़ा ही नहीं है । बाह्य में जो कुछ होता हो, होगा उदयानुसार । किसी भी प्रकार हो, किसी भी बाह्य पदार्थ की परिणति से मेरा सुधार बिगाड़ बंधा हुआ नहीं है । मैं ही अपने उपयोग में अपने को बुरे रूप से बर्तता हू तो अपना बिगाड़ कर लेता हूँ और मैं ही अपने स्वरूप की ओर वर्तता हूँ तो अपना सुधार कर लेता हूँ । मैं बिगाड़ नहीं चाहता । बिगाड़ में अनन्तकाल व्यतीत हो गया । विषयकषायों में क्रोधादिक भावों में परिग्रह के लपेट में बहुत समय व्यतीत हो गया, मिला कुछ नहीं, मिलेगा कुछ नहीं । यह आत्मा अमूर्त अपने ही स्वरूप में रत रहने वाला शरीर को छोड़कर जब चल देगा तब एक अणु भी इसका साथ न देगा । ये धन वैभव, पुत्रपरिजन कुछ भी काम न देंगे जिन्हें आज कल्पना से अपना माना जा रहा है । तो ऐसे असार अशरण संसार में हम मौज मानकर बैठे हुए हैं और आत्मोत्थान के लिए कोई गहरी दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं, कुछ गम्भीर चिन्तन नहीं कर रहे हैं तो इसका फल क्या होगा? मैं स्वतंत्र हूँ, मैं बाह्य विकारों से बाह्य फंदों से, बन्धनों से हटकर सबको भूलकर एक अपने आपके स्वतंत्र स्वरूप को निरखूँ तो निरख लूँगा । मुझ में बाधा देने वाला कोई नहीं है । मैं ही बाधक बनकर दुःखी होता रहता हूँ । मैं अपने ज्ञान को सम्हालूँ तो मैं ही साधक बन जाता हूँ । मैं द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से स्वतंत्र हूँ ।
आत्मा की निश्चलता―मैं निश्चल हूँ । जो मेरा स्वरूप है उस स्वरूप से मैं कभी विचलित नहीं होता । प्रत्येक पदार्थ निश्चल है । यदि पदार्थ निश्चल न होते तो आज दुनिया में कुछ न होता । सब शून्य हो जाता ꠰ एक पदार्थ यदि दूसरे पदार्थ में अपना स्वरूप रख दे, किसी दूसरे का स्वरूप ग्रहण कर ले तो अटपट कोई किसी का स्वरूप लेता कोई किसी का स्वरूप लेता । कोई मेरा स्वरूप ही ले लेता तो मैं जगत में कुछ भी न रहता और अन्य भी कुछ न रहता । पदार्थ सत् तब ही रह पाते हैं जब अपने आपके स्वरूप में अचलित हैं । कितनी ही कठिन दुर्गतियों में यह जीव गया, जिस अवस्था में गया, जहाँ कहने मात्र का ज्ञान था, तिस पर भी इसने अपने चैतन्यस्वरूप को खोया नहीं कोई भी सत् अपना स्वरूप खोता नहीं । तो जो मुझसे खोया नहीं जा सकता, जो मुझ से त्रिकाल अलग हो नहीं सकता ऐसा चैतन्यस्वरूप मैं स्वरूपत: अपने आप में निश्चल हूँ । उस स्वरूप को अधिकतर दृष्टि में लेने से मोह हटता है, निर्विकल्प उपयोग की परिणति बनती है, और आत्मा ऐसे विशुद्ध आनन्द का अनुभव कर लेता है कि जिस अनुभव में अनेक कर्मों की निर्जरा होती है और शान्ति का अनुभव होता है । बाह्य पदार्थों के परिचय में न पड़कर अपने आपके स्वरूप के परिचय में चलें, और स्वरूप के निकट उपयोग को रखकर सन्तोष पाये, अपने को कृतार्थ मानें, फिर उसके करने को कुछ रहा ही नहीं । करने योग्य कुछ काम बाहर में दिखता ही नहीं । तो जिसको यह निर्णय हुआ है कि बाहर में मुझे कुछ काम करने को रहा ही नहीं है उसे शान्ति अपने आप होती है । तो अपनी निश्चलता विचारने से अद्भुत शान्ति की प्राप्ति होती है । मैं स्वरूप से निश्चल हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, ऐसे चैतन्यस्वरूप में रूचि हो, यहां ही उपयोग लगायें तो यह आत्मा के उद्धार का काम है ।
स्वभाव की सार्वकालिक निश्चलता―जिस पदार्थ का जिस स्वरूप में अपने आप सहज सत्त्व होता है वह पदार्थ अपने उस स्वरूप को, स्वभाव को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता । चाहे विरुद्ध अनेक विभाव परिणतियां हो जायें, तिस पर भी स्वभाव अनुपपन्न नहीं है । जैसे―मान लो जल का स्वभाव ठंडा है तो जल कितना ही खौला हो, गर्भ हो जाने पर भी और उस जल में ठंड कहीं पायी न जाने पर भी जब स्वभाव दृष्टि से सोचेंगे तो यह कहना होगा कि जल स्वभाव से ठंडा है । जैसे दर्पण के सामने बहुत बड़ी चीज रंग-बिरंगी उपाधि खड़ी हो तो वह सारा दर्पण रंगा प्रतिबिम्ब है । उस दर्पण में किसी भी जगह कोई हिस्सा दर्पण का जैसा असली स्वरूप है उस स्वच्छता के रूप में प्रगट नहीं है फिर भी स्वभाव तो स्वच्छता का है । उस रंग-बिरंगे विकार से रहित होने का उसका स्वभाव है, इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव एक चैतन्य है, चेतना, चित̖प्रतिभास । तो यह आत्मा चाहे कितनी ही विभाव परिणति में हो, जहाँ सारा ज्ञान ढकासा है, कथनमात्र का ज्ञान है । कषायों से सारा ज्ञान रंजित हे, जिसका ठीक टिकाना भी नहीं बन रहा है ऐसी विचित्र विभाव परिणतियों के बीच भी स्वभावदृष्टि से निरखा जाय तो कहना होगा कि वह स्वरूप से, स्वभाव से निश्चल है । उसका जो स्वभाव है वह चलित नहीं हुआ । यदि स्वरूप चलित हो जाय किसी परिस्थिति में तो वस्तु का अभाव हो जाता तथा वह वस्तु कभी भी अपने असली रूप में न आ सकेगी यों यह मैं विचित्र विभाव परिणतियों के बीच भी स्वभावत: स्वरूप से अपने असाधारण गुण से निश्चल हूँ ।
आत्मा की निष्कामता―जगत के समागमों को असार जानकर किसी भी जगह चित्त न रमने के कारण स्वत: ही अपने आपके हित के लिए उद्यमी ज्ञानी संत पुरुष आत्मतत्त्व के सम्बंध में चिन्तन कर रहा है कि यह मैं निष्काम हूँ । काम, कामना―इच्छा का नाम काम है, कामना है और उपलक्षण से समस्त विकारों का नाम काम है । यह मैं आत्मा निष्काम हूँ अर्थात् अविकारी हूँ । किसी भी वस्तु में वह ही मात्र एक रहता है दूसरे का प्रवेश नहीं होता । यह सदा सिद्धस्वभाव है, अन्यथा सत्त्व नहीं रह सकता तो मुझ आत्मा में क्या बसा हुआ है, क्या शाश्वत है? वह एकमात्र चैतन्यस्वरूप । जो सत्त्व है सहज, किसी ने बनाया तो नहीं, अनादिसिद्ध जिस पदार्थ में जो स्वभाव है वह पदार्थ उस स्वभावरूप में है । उसके अतिरिक्त जो पर का सम्बंध है अथवा परसम्बंध के कारण जो विकारभाव होता है वह मेरे स्वरूप में, स्वभाव में नहीं कहा जा सकता । तो स्वभावदृष्टि से देखने पर विदित होता है कि मैं अविकारी हूँ ।
हितरूप निरूपधि स्थिति की साधिका निरुपधि दृष्टि―देखिये―लोक में अपने लिए हितरूप क्या चीज है, और पाने योग्य क्या तत्त्व है? वह है निरूपधि स्थिति, उपाधिरहित, परद्रव्य के सम्बंध से रहित । परद्रव्य के सम्बंध से होने वाले प्रभावों से रहित जो आत्मा की सहज स्थिति हो बस वही निराकुल है, कृतार्थ है, सर्वकल्याणसम्पन्न है । उस स्थिति में जो आत्मा पहुँचे हैं उन्हें कहते हैं सिद्ध प्रभु । तो जो निरुपाधि स्थिति है वही हितरूप है और वही पाने योग्य है । ऐसी निरुपाधि स्थिति को मैं किस प्रकार पा सकूं, उसका उपाय क्या? उसका उपाय तब ही बन सकता है, जबकि यह आत्मा निरुपाधि हो, अर्थात् मूल में, स्वभाव में यदि निरुपाधि है तो निरुपाधि स्थिति बन भी सकेगी? अतएव निरुपाधि स्वभाव की दृष्टि करना उस शुद्ध दशा के व्यक्त होने का कारण है । मैं यहाँ अपने को मानूं कि जिस शरीर को पाया कि यह ही मैं हूँ तो मेरा उपयोग शरीर में । मैं शरीररूप अपने को अनुभव करता रहूं तो ये शरीर मिलते चले जायेंगे, और यदि यह भाव बना कि यह शरीर मेरे दुःख का कारण है, मैं शरीर से न्यारा रहूं तो मुझे किसी प्रकार की विपत्ति नहीं । मुझे तो शरीर से न्यारा अपने आपके सत्त्वरूप रहना है । यहां मान रहे शरीर को कि यही मैं हूँ और चाहे कि मैं शरीर से निराला अपने विकासरूप हो जाऊं तो यह असम्भव बात है । मुझे अभी से यह दृष्टि बनानी होगी कि मैं शरीररहित केवल अपने चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ तब इस स्थिति को पा सकेंगे । तो निरुपाधि स्वभाव का दर्शन करना यह शुद्ध दशा पाने के लिए सर्वप्रथम और अतिआवश्यक है । उसी प्रयोजन में यह चिन्तन चल रहा है कि मैं अविकार हूँ ।
दृष्टिमात्र से सृष्टियों का महाविधान―विकारों को अपनाने से, विकारों को आत्मस्वरूप मानने से विकारों की संतति बढ़ेगी और अविकारस्वरूप अपने को मानने से, अविकार स्वभाव को अपनाने से अविकारता का विकास होगा । तो आप यह देखिये कि मैं अपने आपके ही प्रदेश में विराजा हुआ यहाँ ही सारी सृष्टियों का प्रबंध बना लेता हूँ । जैसे कोई समर्थ अधिकारी अपने आफिस में बैठा हुआ जहाँ कि अनेक तरह के यंत्र चल रहे हैं, किम कक्षा में कैसी पढ़ाई चल रही है उसका दृश्य देखने का भी यंत्र लगा है । कहां कौन किस तरह पढ़ा रहा है वह सारी स्पीच सुनने का भी यंत्र लगा है और उनसे बोलने-चालने का भी यंत्र लगा है, सारी सुविधायें हैं तो वह अपने ही कमरे में बैठा हुआ सब तरह की व्यवस्थायें बनाने में समर्थ है । तो आत्मा को तो कोई भी श्रम करने की आवश्यकता नहीं, केवल एक दृष्टिभर करने की आवश्यकता है । उस दृष्टि में कहीं हल्ला नहीं, कहीं श्रम नहीं, केवल एक उपयोग के मुड़नेभर की बात है । जिस पर हमारा सारा भविष्य निर्भर है―मैं कैसा बनूं, किस ढंग से रहूं, ये सब बातें अपने आपकी दृष्टि पर निर्भर हैं । जहाँ अपने ही स्वरूप को निरखा, सर्व से निराला ऐसा चेतनामात्र अपने आपके स्वभाव में जहाँ उपयोग गया वहाँ इसका परिणमन क्या बनेगा? सब कल्याणप्रद परिणमन बनेगा । जहाँ इसने अपनी प्रभुता का आश्रय बनकर बाग पदार्थों में उपयोग दिया वहाँ इसका क्या परिणमन बनेगा? दुःखरूप, आकुलता रूप । तो देख लो―हमारा सारा भविष्य हमारी दृष्टि पर ही निर्भर है ।
अपने आपमें अपना अन्त: निर्णय―हमें अधिकाधिक यह यत्न करना चाहिए कि किसी भी प्रकार हो, बाह्य समागमों से वैराग्य हो और अन्त: स्वभाव की हमारी रुचि जगे । एक ही निर्णय है । सब कुछ हो जावे, मिटे बिगड़े, पर मेरे आत्मस्वभाव की दृष्टि मत बिगड़े । यदि यह डोर बिगड़ गयी तब फिर परिणति पतंग ठिकाने नहीं है । यहाँ भाव ऐसा निश्चल आना चाहिए अपने आप में कि जिसमें किसी भी परिस्थिति में चलितपना न हो सके । प्रतीति होती है अनुभूति के बाद । किसी भी सम्बंध में उसका पूर्ण विश्वास बनता है उसका अनुभव प्रत्यक्ष होने के बाद । और अनुभव बनने से पहिले एक साधारणतया प्रतीति भी होती है । आत्मा कैसा है इसकी निरन्तर प्रतीति बनी रहे, इसके लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम एक पूरे आत्मा की अनुभूति बने । किसी मनुष्य को देखो―किसी मनुष्य से बोलचाल व्यवहार किए बिना, बहुत दिन तक परखे बिना उसकी प्रतीति तो नहीं हो पाती, इसी प्रकार आत्मा को बहुत दिनों तक बातों से परखा और फिर कभी अनुभूति से परख लिया तो उसके बाद उसकी प्रतीति अडिग हो जाती है । सम्यक्त्व जिस क्षण उत्पन्न होता है उस क्षण अनुभूति को लेकर उत्पन्न होता है । उसके बाद फिर भी अनुभूति बनाने पर प्रतीति सदा रहा करती है । तो हम अपनी श्रद्धा में यह बात लायें कि मेरा अन्य सब कुछ भी न्योछावर हो जाय, पर किसी भी प्रकार मुझे अपने आत्मा के सहजस्वरूप का अनुभव बने । यही सर्वोत्कृष्ट वैभव है । इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरे लिए सार और शरण नहीं है ।
आत्मा का ज्ञात दर्शन स्वरूप―मेरा स्वरूप है चेतन । चेतन में क्या होता है? चेतना, प्रतिभास । प्रतिभास-सामान्य-विशेषात्मक होता है । जैसे दर्पण में स्वच्छता । अब वह स्वच्छता सामान्य-विशेषात्मक है । यदि दर्पण में कभी प्रतिबिम्ब न आये तो हम कैसे विश्वास कर सकें कि दर्पण में स्वच्छता है, और, दर्पण में जो प्रतिबिम्ब आया, जो स्वच्छता का व्यक्तिकरण बना, वह इस ही आधार पर बना कि दर्पण में स्वच्छता साधारण रूप से निरन्तर बनी रहती है । हम चेतते हैं और हमारी चेतना में वे सब पदार्थ ज्ञात होते हैं । इसका ज्ञान होता है तो इन सब पदार्थों का ज्ञान तभी तो हुआ जब मुझ में एक साधारण प्रतिभास की भूमिका है वह तो है दर्शन और जो एक विशिष्ट प्रतिभास है, बोध है, जो मेरा साकार रूप है वह है ज्ञान ꠰ मैं निरन्तर जानता हूँ और देखता हूँ । ज्ञान और दर्शन इन, दोनों का काम मुझ में निरन्तर चलता रहता है । छद्मस्थ अवस्था के कारण उपयोग दोनों का एक साथ नहीं हो पाता । उपयोग दोनों का एक साथ होता सिद्ध अवस्था में, सर्वज्ञ अवस्था में । लेकिन ज्ञान, दर्शन, गुण ये मेरे निरन्तर चल रहे हैं । दर्शन निरन्तर चले तो ज्ञान कहां विराजे? ज्ञान निरन्तर न चले तो मेरा रूप ही क्या रहा? मेरा काम जानना देखना है, इसके अतिरिक्त अन्य काम मेरा नहीं है ।
ज्ञाता दृष्टा रहने के विरुद्ध विचार में आपत्ति―भैया ! जिन किन्हीं भी दो-चार जीवों को मान लिया कि ये मेरे हें, ये मेरे घर के हें, यह तो विपदा है, विडम्बना है, व्यामोह है ऐसा मान लेना और ऐसा रागरंग बनने में बना रहना यह मेरा स्वरूप नहीं । मेरा काम नहीं । मेरा विशुद्ध कार्य है जानना देखना । जानने देखने में कोई आपत्ति नहीं । आपत्ति आती है तो राग-विरोध के भावों में, इष्ट अनिष्ट के भावों में आती हे । तो ये इष्ट अनिष्ट भाव मेरे स्वरूप नहीं । मेरा स्वरूप है जानन देखन । जानता हूँ ज्ञानस्वभाव से और देखता हूँ दर्शनस्वभाव से । दर्शन का अर्थ आंखों से दिखना नहीं, जो आंखों से दिखता है वह तो ज्ञान हे । इसे दर्शन नहीं कहते । जैसे कर्णइन्द्रिय से जो जाना वह ज्ञान है, नासिका-इन्द्रिय से जो जाना वह भी ज्ञान है, स्पर्शन, रसना-इन्द्रिय से जो जाना सो ज्ञान है, इसी प्रकार चक्षु―इन्द्रिय से भी जो जाना सो ज्ञान हे, जिसमें न कोई व्यक्तिगत चीज आयी, न आकार आया, न व्यक्ति आया, न अवस्था आयी, ऐसा जो सामान्य प्रतिभास है उसको दर्शन कहते हैं । यह दर्शन हम आपके चल रहा है निरन्तर, किन्तु उनका उपयोग कम से चलता है । दर्शन, फिर ज्ञान, फिर दर्शन, फिर ज्ञान ।
बाह्य पदार्थों के आकर्षणात्मक ज्ञानोपयोग की धुन में दर्शनोपयोग के लाभ से वंचितपना―भैया ! उस दर्शन की पकड़ यदि हो जाय, जैसे हम ज्ञान की पकड़ कर लेते हैं, यह है जानकारी में, तभी तो ज्ञान उपचरित भी हो जाता है, तो जैसे―हम ज्ञान की पकड़ कर सकते हैं इस तरह यदि दर्शन की पकड़ हो जाय तब तो बेड़ा पार है । हम लोगों के दर्शन होता तो रहता है मगर पकड़ नहीं हो पाती । ग्रहण हो तो अनुभूति जगे । जैसे―किसी धनार्थी पुरुष को किसी ने बता दिया कि देखो―अमुक पहाड़ पर इतने कंकड़-पत्थर पड़े हैं उनमें से कुछ पारस-पत्थर भी है, यदि पारस-पत्थर तुम्हारे हाथ लग जायगा तो तुम जितना चाहे लोहे का सोना बनाकर धनी हो जावोगे । तो वह धनार्थी पुरुष पहूंचा उसी पहाड़ पर । वहाँ दसों गाड़ी पत्थर लेकर उसने क्या किया कि समुद्र के किनारे पर एक लोहे का मोटा डंडा गाड़ दिया, और पत्थर मारकर देखे । यदि वह लोहे का डंडा सोना नहीं बना तो उस पत्थर को उठाकर समुद्र में फेंक दे । यों ही वह बार-बार करता गया, पत्थर उठाया, मारा फेंका । अब वहाँ लाखों पत्थरों में से कोई एक पारस-पत्थर था । उसकी धुन ऐसी तेज बन गयी कि झट पत्थर उठाया, मारा और फेंका । इसी धुन में वह पारस-पत्थर भी उठाया, मारा और फेंका । उसके बाद देखा तो वह लोहे का डंडा सोना बन गया था । अब वह पछताता है । हाय ! मैंने तो पारस-पत्थर पाकर भी खो दिया । इसी तरह से हमारे ज्ञानोपयोग की धून ऐसी तेजी से लग रही है परपदार्थों में, उपयोग हमारा ऐसा भ्रमण कर रहा है कि प्रत्येक ज्ञानोपयोग से पहले दर्शनोपयोग होता रहता है लेकिन उस धुन में दर्शनोपयोग के समय जो विश्रांति पा लेना चाहिए वह पा नहीं सकते ।
आत्मा का विशुद्ध कार्य―आत्मा का विशुद्ध कार्य जानन-देखन है । ज्ञाता दृष्टा परिणमन से आगे बड़े तो इसके मायने है कि हम भगवान से आगे बड़े । जो काम भगवान नहीं कर सके उस काम को करने की हमने कमर कसी । तो जो बड़े से बड़े बन जायेंगे वे भी गिरेंगे, भ्रमण करेंगे । ये मोही जीव बाह्य पदार्थों के आश्रय में प्रभु से आगे बढ़ना चाहते हैं । प्रभु तो ज्ञाता दृष्टा हैं । ये मोही जीव ज्ञाता दृष्टा न रहकर रागद्वेष मोह में बढ़ रहे हैं । जैन शासन प्राप्त करने का वास्तविक लाभ उठाना तो यह कहलायगा कि जिस किसी भी प्रकार हो हम अपने को सबसे निराला केवल चैतन्यस्वरूपमात्र अनुभव में लायें । यह बात बन सकी तो यह जीवन सफल है । और, यह बात न बन सकी तो जैसे अनन्त जीवन पाये वैसे ही यह एक मानव-जीवन भी है । ऐसा स्वतंत्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा मैं आत्माराम हूँ ।
आतमराम―इस मुझको आत्माराम शब्द से कहने की प्रसिद्धि क्यों हो गयी है । यह आत्मा भी हे व राम भी है आत्मा कहते उसे हैं-अतीत सततं गच्छति जानाति इति आत्मा, जो निरन्तर जानता रहे उसे आत्मा कहते हैं । क्रोध करे तब भी जानता है, मान करे तब भी जानता है, माया, लोभ आदि करे तब भी जानता है । यों निरन्तर जानते रहने वाला मैं आत्मा हूँ । और, राम हूँ । रमन्ते योगिन: आत्मन् इति राम: । जहाँ योगीजन रमण करते हैं उसे राम कहते हैं । योगीजन, साधुजन कहां विश्राम पाते हैं? एकान्त निर्जन स्थान में । किस कारण वे सन्तुष्ट रहा करते हैं? एकान्त निर्जन स्थान में । किस कारण वे सन्तुष्ट रहा करते हैं? उन्हें अपने आत्मा के उस शुद्ध स्वभाव से भेंट हुई है जिसके निकट रहने में कभी ऊब नहीं आती, और निरन्तर प्रसन्नता से रहा करते हैं । ऐसा यह मैं आत्माराम हूँ । अपने आपके अन्तस्तत्त्व का प्रशंसन करना कीर्तन कहलाता है । मैने सब कुछ कीर्त डाले, पर आत्मा के अन्तस्तत्त्व के स्वरूप को कभी नहीं कीर्ता । अब अपने हित के लिए भावना जगी है तो यही एक मेरा काम है कि मैं आत्मा के उस सहज स्वरूप को दृष्टि से ओझल न होने दूं, सदैव प्रतीति में रखूं ।
मैं वह हूँ जो हैं भगवान । जो मैं हूँ वह हैं भगवान ।
अंतर यही ऊपरी जान । वे विराग यह रागवितान ।।1।।
उपास्य और उपासक की निरंतरता का कीर्तन―आत्मा के कीर्तन में, अंतस्तत्त्व की रुचि में यह ज्ञानी विचार कर रहा हैं कि मैं वह हूँ जो भगवान हैं । इस तथ्य को द्रव्य दृष्टि से निहारना है, जैसा कि स्वतंत्र निश्चल निष्काम शुद्ध ज्ञायक भावस्वरूप आत्मा की बात कही गई थी उस ही स्वरूप से देखना है । मैं वह हूँ जो भगवान हैं । भगवान का नाम परमात्मा है और हम आप सबका नाम आत्मा है । जो आत्मा परम हो जाते हैं उन्हें परमात्मा कहते हैं । इससे सिद्ध है कि आत्मतत्त्व के नाते से हमारी और भगवान की जाति एक है, और इसी कारण हमारे स्वरूप में और प्रभु के स्वरूप में कोई अंतर नहीं है ।
सांसारिक सुखों की विडंबना―संसार के सुख सब इस जीव के लिए विडंबना है । किन्हीं भी विषयों की प्रीति में आत्मा को किसी भी प्रकार का लाभ नहीं है और उन विषयों की प्रीति से आत्मा कभी तृप्त नहीं हो सकता । अब से अनंतकाल पहिले से चला आ रहा है जन्म मरण और प्रत्येक भवों में उस भव के अनुकूल विषय भोग भोगे हैं । यहाँ तक कि देवभव भी प्राप्त किया और वहाँ अनेक दिव्य भोग भी भोगे किंतु तृप्त न हुआ । अन्य भवों की बात छोड़ो अपने इस मनुष्यभव की ही बात देख लो कि जन्म से लेकर अब तक कितने विषय भोगे पंचेंद्रिय के, लेकिन किसी भी विषय से तृप्ति न हुई । एक भोजन का तो ऐसा विषय है कि वह करना ही पड़ेगा । भोजन खाना ही पड़ेगा लेकिन उसके साथ जो रसना का स्वाद लेकर भोजन करने की भावना बनाई गई, रोज भोजन करने पर भी रसना की तृष्णा न मिटी और भोजन के अतिरिक्त अन्य इंद्रियों के विषय तो विषय हैं ही जिनका कि जीवन से कोई संबंध नहीं कि उन विषयों को न भोगें तो हमारा जीवन न रहेगा, बल्कि उन विषयों की प्रीति से जीवन में क्षति ही होती है । तो किसी भी विषय से आज तक तृप्ति न हो सकी, तब विषय का राग व्यर्थ है ।
सांसारिक सुखों से विरक्त होने पर भगवत̖तत्त्व में रुचि की वर्तना―इन विषय सुखों से प्रीति करना व्यर्थ है, यह जिनका निर्णय हो वे विषयों से मुख मोड़ सकेंगे, और विषयों से मुख मोड़ सकने पर ही भगवत् तत्त्व में रुचि बन सकेगी । मैं वह हूँ जो प्रभु हैं । मैं साधारण गुणोंमय हूँ, चैतन्य असाधारण गुणमय हूँ । स्वरूप में कोई अंतर नहीं है । मैं उस हार में पिरोये गए सूत के माफिक सब पर्यायों में व्यापी हूँ । जैसे कि हार में या जाप में जो सूत पिरोये गए हैं वह सब, सब दानों के बीच है इसी प्रकार मेरा भी स्वसर्वभावव्यापक जो स्वरूप है वह अनादि अनंत जितनी भी पर्यायें हुई हैं उन सब पर्यायों में व्यापी है । यद्यपि वे पर्यायें अब नहीं हैं जो भूत में हो चुकी, जो पर्याय भविष्य में होंगी वे अब नहीं हैं लेकिन मैं द्रव्य यदि केवल वर्तमान पर्यायमात्र ही समझूं तो यहाँ अत्यंत क्षणिकपन आ जाता है । मैं सर्वथा क्षणिक नहीं हूँ, शाश्वत हूँ । यदि मैं क्षणिक होऊं तब फिर कल्याण की आवश्यकता क्या हैं? मैं हूँ, मिट गया, आगे रहूंगा नहीं । तपश्चरण करके अपने आपको विकल्पित करूं, दुःखी करूं और उसका फल भोगेगा कोई दूसरा आत्मा तो ऐसा करने को कौन चाहेगा? मैं शाश्वत हूँ, मेरे में प्रत्यभिज्ञान होता है । मैं वह हूँ जो कल था, मैं अनेक वर्षों से हूँ । मैं वहीं हूँ और जब अनेक वर्षों से हूँ, हूँ तो सदा से हूँ सदा काल तक रहूंगा । अपने आपके हित की अभिलाषा रखना यह अपने सुभवितव्य की बात है ।
अंत: सयंमपूर्वक भगवत्स्वरूप की आराधना से लाभ―अब भगवान को द्रव्य गुण पर्याय रूप से निरखिये । कैसे हम भगवान को जानें कि प्रभु क्या हे? प्रभु पर्यायत: अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति के स्वामी हैं और ऐसी बात हम आप में भी शक्तिरूप से पायी जाती हे । जैसा मैं हूं तैसा ही अपने को अपनी निगाह में रखूँ । अपने स्वरूप से जरा भी हिलूँ-डुलूँ नहीं । तो निराकुलता तो आप अभी स्वाद सकेंगे । निराकुलता हमारी कहीं गई नहीं है, पर हम ही जब अपने आपके संयम में नहीं रहते, अपने आपके स्वरूप में नहीं रहना चाहते तो अपने ही ऊधम से, अपनी ही उद्दंडता से दुःखी होते फिरते हैं । पर वस्तुओं से मोह किया तो उससे लाम क्या? क्या वियोग न होगा? न वियोग हो तो जब तक संयोग है तब तक भी वह मेरा कुछ नहीं है । जब तक समागम हे तब तक भी मेरे क्षोभ के ही तो कारण हैं, पर शांति के कारण नहीं हैं । क्षोभ राग और द्वेष को कहते हैं । केवल द्वेष का नाम क्षोभ नहीं है ꠰ जिस राग में मौज में हम मस्त रहते हैं, हो क्या रहा है? अपना प्रभु अपनी निगाह में नहीं है, सो आकुलित होते जा रहे हैं । और वह क्षोभ तो ऐसा कठिन है कि आकुलित भी होते और यह अनुभव नहीं करते कि हम में दुःख है, आकुलता है राग और मोह से । ऐसा दुःख है कि दुःखी भी होते जाते और हटना भी नहीं चाहते । द्वेष का, विरोध का, अनिष्ट समागम का तो क्लेश ऐसा है कि उसमें कुछ सावधान तो रहते हैं, जानते तो हैं कि इनसे हटना चाहिए, मगर राग का मोह का ऐसा कठिन क्लेश है कि दुःखी भी होते जाते हैं और उससे हटने की बात चित्त में नहीं आती । तो संसार का ऐसा स्वरूप जानकर जिन पुरुषों ने भोगों से, विषयों से, समागमों से, वैभवों से उपेक्षा करके अपने आपके अंत: स्वरूप में अपने स्वभाव को निरखा है ऐसे पुरुषों ने निर्ग्रंथ साधु बनकर अपने आत्मा में आत्मा को लगाने की तपस्या बराबर रखकर शुद्धि प्राप्त की और वे वीतराग अरहंत हुए । उन्हीं का नाम भगवान है ।
अंतर्भाव से प्रभुता के दर्शन का अवसर―भैया ! अनेकों को अपने आपके हित की बात रुचनी कितनी कठिन लग रही है, यह सब व्यामोह का प्रताप है । हमारा सत्संग उतना अधिक नहीं है । हम आत्मचर्चा आत्मध्यान के लिए उतना नहीं लगा करते हैं, इसका फल यह है कि कुछ थोड़े समय का धर्मध्यान वह भी ऊपरी तोर से रह जाता है, चित्त में ठेस नहीं पहूंच पाती कि मेरे को करने का काम केवल इस जीवन में स्वरूपरमण का है, अन्य कोई काम मेरे करने को नहीं है । इस प्रकार की तीव्र रुचि नहीं जग पाती । फल क्या होता है । जिन लोगों के लिए हमें अपने आपको धनी बनाना है, जिन लोगों की दृष्टि में अपने आपको भला जंचाने के लिए विद्या पढ़ाना चाहते, अन्य-अन्य उपयोग के काम करना चाहते वे मायारूप हैं । न वे रहेंगे और न इस तरह का श्रम करने वाला रहेगा । फल क्या? फल क्या है? इस दुःखमय संसार में इन सब चेष्टाओं का फल जन्म-मरण है । यह सब जिनकी चिंतना थी और इसी कारण समस्त बाह्य समागम वैभवों से विरक्त हुए उन्होंने अपने आपकी प्रभुता का दर्शन पाया ।
अंतरूपयोग में आनंद की उपलब्धि―जो आनंद अपने आपके उस विशुद्ध चैतन्यस्वभाव के उपयोग में है वह आनंद जगत में और कहां रखा है? सब विपदा है, क्लेश है । मनुष्यभव में कितनी सहूलियतें हैं कि चूँकि यहाँ इष्ट वियोग होता है तो उनको चेतने का अवसर मिलता है ꠰ किसी भी चीज को आप बहुत
दिल से चाहें कि कभी भी वियोग न हो, धन वैभव कभी मिटे नहीं, परिजन इष्टजन कभी अलग न हों, और वे हो जाते हैं अलग । आपका वश चलता नहीं । बहुत-बहुत प्रयत्न करने पर भी, कई बार हैरान होने पर भी ये दु:ख अनेक बार आते रहते हैं, तो आप यह समझ कर सकते हैं कि अब इनका हमें कुछ विचार ही नहीं रखना है, छोड़े इस झंझट को, एक बार उनसे पूरा-पूरा मुख मोड़ लिया । परंतु ये देवताजन कैसे अपना मुख मोड़ें? इनको किसी का वियोग ही नहीं है । वियोग हुआ तो थोड़े समय बाद उसकी पूर्ति हो जाती है, जहाँ भोग सदा तैयार रहते हैं, उन देवतावों को वियोग के प्रसंग नहीं है इसीलिए उनमें संयम का होना असंभव है । उनको मौका ही नहीं है कि अलौकिक आनंद का बे लाभ कर सकें । तो ऐसा दुर्लभ जन्म पाया हम आपने जो देवताओं को भी दुर्लभ है, जिसे देवताजन भी तरसते हैं, ऐसे दुर्लभ जन्म को पाकर हम यह ध्यान में रखें कि हमारा एक-एक क्षण कीमती है । मेरा कोई भी क्षण व्यर्थ में न व्यतीत हो । ऐसा अगर संकल्प बनाओगे तो अपने आप में अपना लाभ मिलेगा । अपना किसी दूसरे से फायदा नहीं पहुंचता । निज आत्मविषयक जो चिंतन है उससे यह स्वयं लाभ ले लेगा । दूसरों को समझाने के लिए बड़ा भाषण करना भी दूसरों के लिए चाहे लाभदायक हो जाय, पर स्वयं के लिए क्या लाभ पाया? यदि स्वयं एक इस सभा के रूप में अथवा जब कभी भी कुछ बोला-जा रहा हो उस बोल को स्वयं भी सुनकर स्वयं अपने आप में अपने हित की बात को निरखता जाय और अपने लिए उस कर्तव्य को करता जाय तो वह भी लाभ पायगा । जो करेगा सो लाभ पायगा । और जो इससे विमुख रहेगा वह संसार में रुलेगा ।
प्रभुवत् अंतर्धर्म के अनुसरण का कर्तव्य―जो प्रभु ने किया वही मुझे करना चाहिए, अन्यथा प्रभु की भक्ति क्या? प्रभु से द्वेष करते जायें और चित्त में यह बात न लायें कि प्रभु ! कर्तव्य तो मेरा भी यही है जो आपने किया । क्या किया आपने? विषयभोगों को असार भिन्न समझकर उनसे उपेक्षा करके इंद्रियों पर विजय पाकर मन को भी काबू में रखकर जो आत्मा का निरंतर उपयोग बनाया है उससे आपने अपने आत्मा में प्रतिष्ठा पायी है । यह ज्ञानस्वभाव अमूर्त है । इस में रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं, केवल ज्ञानमात्र चित्स्वभावमात्र, जिस की अगर दृष्टि मिल जाय तो उस दृष्टि में फिर अन्य कल्पनायें नहीं रहतीं । ज्ञानमात्रोपयोगी के अन्य कल्पनाओं का क्या काम? उस दृष्टि में तो निर्भार एक चित्प्रकाश ही रहा करता है । ऐसे अमूर्त चित्प्रतिभासमात्र इस अमूर्त का दुनिया में कुछ है भी क्या? कैसे कोई हो सकता है? मूर्त का भी मूर्त कुछ नहीं हो सकता, फिर अमूर्त का कोई क्या होगा? कैसे होगा? कैसे लगेगा? तो इस ज्ञानमात्र अमूर्त मुझ आत्मपदार्थ का दुनिया में कहीं कोई न रक्षक है न हेतु है न कोई सुधार कर सकने वाला है । यह ही मात्र मैं अपने आपके अमूर्त चित्स्वरूप को समझ लूं तो मेरा कल्याण है । इसके अतिरिक्त और धर्म में प्रारंभ में कार्य ही क्या है? जो बात केवल विचार द्वारा साध्य है, केवल ज्ञान द्वारा साध्य है और जिसका फल इतना अलौकिक है कि जगत की जितनी बड़ी विभूतियां हें वे सब इस धर्म के प्रसाद से मिलती हैं अर्थात् मुक्तिमार्ग की साधना करते हुए जो राग शेष रहता है उसका फल यह है कि चक्रवर्ती जैसी बड़ी-बड़ी विभूतियां प्राप्त होती है, तो भला जो मात्र ज्ञान द्वारा ही साध्य है, जिसमें कोई कठिनाई नहीं है, किसी प्रकार की पराधीनता नहीं है स्व है, स्व के लिए विचारना, स्व में चिंतना चलाना, जो किसी के आधीन नहीं हे, ऐसा स्वाधीन सुगम ज्ञानमात्र भी काम न किया जाय और अतुल अलौकिक लाभ से वंचित रह जायें तो इस गल्ती का फल भोगने कौन आयगा? सर्वसमृद्धियां केवल ज्ञान द्वारा साध्य है । जानकारी बनाने में कठिनाई क्या आता हे? जो बात सामने है उसको हम वैसी सही जान लें तो इसमें कौनसी कठिनाई आती है? जरा बाह्य पदार्थों से अपने दिल को हटाकर थोड़ा ही समझना है कि यह मैं क्या हूं? तो इसकी जानकारी क्या कठिन हो जायगी? सुगम है जानकारी, पर चित्त में ऐसी दृढ़ता आये कि मुझे तो अपने आपके स्वरूप को ही जानते रहना है, तब यह संपन्नता मिलेगी ।
निःशक्तिवृत्ति से आत्मस्वरूपज्ञान में लगने की आवश्यकता―स्वरूप को जानेंगे तो फिर बाहरी काम कैसे बनेंगे? यह दुकान, ये धर के लोग, इनका पालन-पोषण इन सबको कौन करेगा? ऐसी शंकित वृत्ति मत बनाओ । अरे जो पुरुष ऐसी भावना बनाये हुए हैं कि मेरे करने से ही ये घर के लोग पलते-पुसते हैं, मेरे करने से ही ये कारोबार, यह दुकान, ये सब चल रहे हैं उनमें इतनी पात्रता नहीं है कि वे अपने आपके स्वरूप का दर्शन कर सकें और अपने जीवन को सफल कर सकें । जो इस आत्मीय आनंद पाने के लिए प्रयत्न करता हे उसे ये सारी प्रतीतियां हैं । घर के जितने लोग हैं वे सब अपना-अपना भाग्य लिए हुए हैं, बल्कि मुझ से अधिक पुण्य का संबंध उनके साथ है तभी तो देखो ना―वे कुछ नहीं करते, मौज से रहते और आप पिल-पिलकर परिश्रम करके कमाई करके उनको साधन दे रहे हैं । तो उनका भाग्य उनके साथ है । सबके कर्म उनके साथ हैं । उनके पालन-पोषण में कमी न आयगी, सब अपने आप चलेगी । कदाचित मेरे आत्मा में सदा के लिए स्थिरता हो जाय तो दुनिया में कोई किसी का परिणमन करने वाला तो नहीं हे, मैं ही यदि अपना ऐसा विशुद्ध परिणमन कर जाऊं तो सदा के लिए शांत हो जाऊं । यहाँ के लोगों की जिम्मेदारी मेरी नहीं है, मेरी जिम्मेदारी मुझ पर है । घर की जिम्मेदारी मुझ पर नहीं है कौन ले सकता है घर की जिम्मेदारी? आज जीवित हैं, पर कल के जीवित रहने की जिम्मेदारी आप ले सकते हैं क्या? आपका उदय अनुकूल न रहा तो क्या आप जिम्मेदारी ले सकते हैं । शाम तक की भी तो कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकता, पर सभी लोग अपने आपकी बात देखो अपने भीतर में जिम्मेदारी लिए बैठे हैं? हम अपने आपके काम में लगें, अपने स्वरूपदर्शन में, अपने स्वरूपज्ञान में तो नियमत: हम सफल होंगे, इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं । पर के संबंध में, पर की बातों में परिश्रम करनेपर भी हमें सफलता मिले या न मिले, उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं, लेकिन मैं अपना काम करता चलूं, अपने ज्ञान से अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप को निहारने चलूं, उद्यम करूं तो निहार लूंगा, उस काम में हमें अवश्य सफलता मिलेगी और सदा के लिए हमारे संकट टल सकेंगे । तो जो बात केवल ज्ञान द्वारा साध्य है, जिसमें सर्वत्र आनंद ही आनंद भरा हुआ है, जिससे हमारी पवित्रता बढ़ेगी, लौकिक जो ऊंची-ऊंची समृद्धियां हैं, ऊंचे-ऊंचे पद हैं वे स्वत: ही प्राप्त होंगे । और, काम कितना करना हे? केवल अपने आपके स्वरूप में अपने ज्ञान को ले जाना है । और जितना यत्न बन सके उस पर अपनी दृढ़ता रखना है । यदि यह काम न हो तो आप समझ लीजिये कि हम कितना उल्टा रास्ते पर चल रहे हैं ।
भगवत्स्वरूप स्मरण का प्रयोजन―भगवान के स्वरूप की याद किसलिए की जा रही है? इसीलिए की जा रही है कि मुझे अपने स्वरूप की याद आ जाय और मेरा भी उच्च विकास हो सकता है, सदा के लिए संकटों से छुटकारा हो सकता है, ऐसा उत्साह बने, ऐसा हमारा प्रयत्न बने, इसके लिए भगवान की भक्ति है, भगवान का स्मरण है, मैं वह हूँ जो भगवान है । ऐसा भीतर ही भीतर शाश्वत चैतन्यस्वरूप पर दृष्टि जायगी यहाँ और प्रभुस्वरूप के भीतर भी, तब विदित होगा कि इस शाश्वत चैतन्यस्वभाव की समानता लेकर यह कहा जा रहा है कि मैं वह हूँ जो हैं भगवान । मजाक में यह कह सकते हैं लोग कि हम भी भगवान हो गए । अरे भगवान के स्वरूप में जो पाया जा रहा है उस स्वरूप तक निगाह रखोगे तो पता पड़ेगा कि मुझ में भगवत्स्वरूप बसा हुआ है, किंतु जैसे कोई यह बात सुन ले कि दूध में दही है और वह यह मजाक करने लगे कि यह दूध भी घी बन गया । अरे समझने वाले लोग जानते हैं कि दूध में घी है और परख लेते है कि इस दूध में छटाक प्रतिसेर घी है और इस दूध में डेढ़ छटाक प्रतिसेर घी है, ऐसा लोग परख लेते हैं और उपाय करते हैं । और, उपाय द्वारा वे प्राप्त कर लेते हैं । दूध में घी हम आप आंख खोलकर देखें तो दिख जायगा क्या? दूध से दही बनाकर उसे बिलोकर उसमें घी पा लिया जायगा । है घी दूध में मगर विधि होती है घी निकालने की, घी प्रकट करने की, घी प्रकट हो जायगा । इसी प्रकार मेरे आत्मा में है परमात्मस्वरूप, किंतु उस वर्तमान परिणति को ही देखकर ऐसे देह वाला मैं हूँ, ऐसी ही अपनी निगाह रखकर जो दुनिया को दिख रहा है वैसा ही मैं को समझकर कोई वहाँ यह मजाक करने लगे कि यह मैं भगवान हो गया, तो वे अपना ही मजाक कर रहे हैं, अपने को ही भ्रम में और मायाजाल में जन्म-मरण के गर्त में पटक रहे हैं । अरे भगवान निरखने की विधि होती है ।
अंत: संयमन विधि―मैं किस पद्धति से अपने को ले जाऊं कि मैं अपने आपके भगवानस्वरूप का अनुभव करूं । मेरे में स्वानुभव है जहाँ भगवत्स्वरूप का अनुभव किया जा रहा है । तो द्रव्यदृष्टि से पर्यायों की अपेक्षा न रखकर समस्त भेदज्ञानों से भी हटकर अपने आपके स्वरूप में जब विशुद्ध चित̖सामान्य का उपयोग किया जाता है, उस उपयोग को हम समझ लेते हैं अनुभव कर लेते हैं कि यह है परमात्मतत्त्व स्वरूप । अब व्यर्थ के जालों से हटना है और अपने आपके युक्तिमार्ग में लगना है, इसी से ही मेरा भला हो सकेगा, अन्य बातों से भला नहीं हो सकता । मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान । पहिले तो भगवान के अंत: स्वरूप को निरखकर अपने आपका परिचय किया और अब अपने आपके अंत: स्वरूप को निरखकर भगवान के अंत: स्वरूप का परिचय किया । बात यद्यपि एकसी है इस दृष्टि में, लेकिन जिसको जिसमें सुगमता बैठे वैसा करे । अपने स्वरूप का परिचय पाकर भगवान के स्वरूप का परिचय पायें यह भी ठीक है । भगवान के स्वरूप का परिचय पाकर अपने आपके स्वरूप का परिचय पायें यह भी ठीक है । लेकिन ये दो रास्ते बिल्कुल पृथक्-पृथक् नहीं हैं । दोनों ही बातें प्रत्येक बात में पायी जाती हैं । केवल एक मुख्यता और गौणता की बात है । जो पुरुष अपने स्वरूप का परिचय पाकर भगवान के स्वरूप का परिचय पा रहा है, उसे भी भगवान का परिचय उपाय में प्रयोगात्मक लेने से पहिले भी था । जो पुरुष भगवान के स्वरूप का परिचय पाकर अपने स्वरूप का परिचय पा रहा है उस पुरुष को भी भगवत̖स्वरूप परिचय से पहिले भी अपने आत्मा के स्वरूप का परिचय था । केवल एक मुख्य गौण की बात है । इन दो पद्धतियों में से किसी भी पद्धति को अपनायें, अपने अंत: स्वरूप और प्रभु के अंत: स्वरूप में कोई भेद नहीं है । अतएव ज्ञानी का यह निर्णय है कि मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूं वह हैं भगवान ।
अंतस्तत्त्वतर्पण से प्रभुसाम्यभावना की सफलता―मैं वह हूँ जो हैं भगवान, और जो मैं हूँ वह भगवान हैं, ऐसा निर्णय करने का परिणाम यदि यह न निकले कि मैं अपने सहज शुद्ध ज्ञानस्वभाव को निरखकर मैं उस ही में तृप्त रहा करूं, यदि ऐसी वृत्ति की प्रेरणा नहीं मिलती और न ऐसा होने का भाव बनता है तो मैं भगवान हूँ । भगवान हूँ यह कहना केवल मजाक जैसा है, अथवा लोगों में अपना बड़प्पन बताना है । भगवत्स्वरूप को जानकर भगवान का परिणमन स्वभाव के अनुरूप हैं, उस परिणमन के द्वार से भी भगवान के उस चैतन्यस्वभाव तक पहुंचकर चूँकि चैतन्यस्वभाव तक उपयोग पहुंचने में व्यक्ति छूट जाता है और वह उपयोग साधारण रह जाता है तो स्वयं के स्वरूप का वह उपयोग करने लगता है और उस समय जो इसे सहज ज्ञानस्वभाव के दर्शन हुए उसको निरख-निरखकर उसमें लीन होने का जो इसने उत्साह बनाया उसका आनंद पाता हुआ यह ज्ञानी अपना दृढ़ निर्णय बना लेता है कि इस जीवन में जीकर करने का काम बस एक यही है, दूसरा कोई काम ही नहीं है जिससे कि हमारा जीवन सही जीवन कहलाये । अन्य बाह्य पदार्थ विषयक जितने कार्य हे वे सब कार्य अत्यंत असार हैं, जिन में सार का नाम भी नहीं है । क्या है? सिवाय 6 कामों के और क्या काम हो सकता है? 5 इंद्रिय के 5 विषय और एक मन का विषय । सिवाय 6 के और दुनिया में कार्य ही क्या हो सकता है? ये सब असार हैं । सार मात्र सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन, प्रत्यय व अनुभवन है ।
सर्व आत्माओं में कारणपरमात्मतत्त्व की समानता―जब स्वभावदृष्टि से अपने आपको निरखते हैं तो आत्मा व परमात्मा में कोई भेद नजर नहीं आता । और, समस्त जीवों को भी देखते हैं तो सब जीवों में और अपने में भी भेद नजर नहीं आता । देह के भेद से जीव में भेद हुआ ऐसा उस ज्ञानी की दृष्टि में नहीं है । सर्व जीवों में वह सहज कारणपरमात्मतत्त्व शाश्वत प्रकाशमान है । इसको कारणपरमात्मा शब्द से यों कहते हैं कि परमात्मतत्त्व की व्यक्ति इस ही स्वभाव से होती है । जैसे घड़ा मिट्टी से बनता है । कोई यह कहे कि घड़े का कारण मिट्टी है और कोई यह कहे कि घड़े का कारण मिट्टी नहीं है, किंतु वह पिंड है जो चक्र पर रखा गया तैयार है, तो इन दोनों के कहने में अंतर आया? एक ने कही समुचित उपादान वाली बात और दूसरे ने कही ओघ उपादान वाली बात । मेरूपर्वत की जड़ के नीचे जो मिट्टी है उसमें घड़ा बनने की शक्ति है या नहीं? है, पर उससे घड़ा बन सकेगा क्या? उसकी कुछ संभावना नहीं है, लेकिन घड़ा बनने की शक्ति उसमें भी कही जायगी क्यों कि वह उस जाति का द्रव्य है । जिस जाति की मिट्टी यहाँ है, और, उसके प्रयोग से घड़ा बनते देखा गया है । तो जब उस ही जाति की मिट्टी मेरूपर्वत के जड़ के नीचे हे, तो क्यों नहीं घड़ा बनने की शक्ति है? और, यहाँ की जो खान में या कहीं मिट्टी है उसमें भी घड़े का कारणपना है, तो इसी प्रकार जो वीतराग अवस्था है, 12वें गुणस्थान वाली अवस्था है वह तो है समुचित उपादानभूत कारण परमात्मा और सभी जीवों में जो बसा हुआ अनादि अनंत अंत: प्रकाशमान चैतन्यस्वभाव है वह है ओघ उपादानरूप कारण परमात्मा ।
आत्मोपादान की विशिष्टता―भैया ! अन्य पदार्थों से उपादान वाली तुलना होने पर भी एक विशेषता खास और है यहां, जो उन पुद्गलों में नहीं पायी जाती । पुद्गल में तो कार्य अवस्थायें बाहरी कारणकलाप अनेक मिल करके होती हैं । मिट्टी में स्वयं में अपने आप ऐसी बात नहीं है कि वह निमित्तकारणकलाप के सन्निधान बिना अपने में घड़ा पर्याय बना ले, अर्थात् निमित कारण संयोग बिना बन सके सो बात नहीं हैं । लेकिन, इस आत्मा में ऐसी सामर्थ्य है कि अपने आप में अनादि अनंत बसे हुए कारणपरमात्मा का आलंबन करें, दृष्टि करें तो यह कार्यपरमात्मा प्रकट हो जाता है । पुद्गल के कार्य में और आत्मा के इस कार्यपरमात्मा के होने में अंतर भी बहुत है । पुदगल की दशायें एक बार कोई शुद्ध होकर भी अशुद्ध हो जाता है पर आत्मा की अवस्था एक बार शुद्ध होने पर अशुद्ध नहीं होती । पुद्गल की दशायें कुछ भी हों, अचेतन होने के कारण उसमें उत्कृष्टता नहीं है और इस चेतन आत्मा में चेतने के कारण उत्कृष्टता है । यह सर्वज्ञ बनता है ।
उद्दंडता से उत्कृष्ट और सुगम कार्य में बाधा―समझ लो भैया ! इतना बढ़ा उत्कृष्ट कार्य है भगवान बनना, कार्यपरमात्मा होना, ऐश्वर्यवान होना, और, उसकी कुंजी इतनी सुगम है कि बस विकल्पों को छोड़कर अपने आप में नित्य अंत: प्रकाशमान सहज कारण परमात्मतत्त्व की दृष्टि तो करें और वहीं रहा करें । ज्ञान को ही तो वहाँ रखना है । कोई कठिनाई तो नहीं । तो इतना स्वाधीन सुगम काम और जिसका फल इतना उच्च कि तीन लोक में उससे अन्य कुछ उच्च नहीं, और वह नहीं किया जा सक रहा है तो इसको अंधेर की ही बात कही जायगी, उद्दंडता की ही बात कही जायगी । हम सब लोग स्वयं अपने आप ऐसा उद्दंड बन रहे हैं कि अपने आप में विराजमान कारण परमात्मतत्त्व की सुध नहीं लेते, और जिसका कि फल भी बड़ा उत्कृष्ट है, और लग रहे हैं कुटुंब में, वैभव में, लोगों के बीच इज्जत के बनाने में । कंचन, कामिनी और कीर्ति इन तीन में सबकी बात आ जाती है । कंचन में सारे वैभव लगा लो, कामिनी में सभी काम लगाओ, स्पर्शन इंद्रियां और सभी इंद्रियों के विषय और कीर्ति में मन की बात लगाओ । इन्हीं में उल्झे हैं, और स्वयं जो कुछ है सहज, उसका अवलोकन नहीं करना चाहते, तो यह इस जीव के लिए कितनी विषाद वाली बात है । तो वह कारण परमात्मस्वरूप, वह सहज चैतन्यस्वरूप सर्वत्र एक है, एक समान है, एकरस है, पर्यायकृत अंतर हो गया हे, पर स्वरूप में भेद नहीं है ।
सर्वजीवों से समानता होने पर भी प्रभुसमानता की दृष्टि किये जाने का रहस्य―ज्ञानी जीव जहाँ यह निरख रहा है कि मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान, वहाँ यह भी देख सकते हैं कि जगत के जितने जीव हैं जैसे वे सब जीव हैं तैसा मैं हूँ, जैसा मैं हूँ तै से सब हैं, पर इस तरह के उपदेशों की मुख्यता क्यों नहीं है? जैसे प्रभु में अपनी बात लगाते हैं अधिकतर कि जो आत्मा सो परमात्मा । ऐसी बात संसार के इन सब जीवों के साथ क्यों नहीं लगाते कि जो मैं सो ये हैं, जो ये सब सो मैं । इसका कारण यह है कि परमात्मा का परिणमन और स्वभाव एक हो गया है । और, संसारी जीवों का परिणमन और स्वभाव अभी एक नहीं है । सब जीवों का स्वभाव है ज्ञान और आनंद, किंतु सहज ज्ञानानंद पर बीत क्या रही है । विपरिणमन क्यों हो रहा है? कितनी आकुलता, कितना खेद । तो ऐसे विपरीत परिणमन वाले जीवों में जीव के स्वभाव की निरख सुगमतया न हो पायगी, किंतु जहाँ परिणमन भी शुद्ध है ऐसे परमात्मा स्वरूप को निरखकर स्वभाव की निरख सुगमतया हो जाती है, एक कारण तो यह है । दूसरा कारण यह है कि परमात्मा की उपासना में यह भी ध्यान रहता है कि आखिर शुद्ध होकर यह दशा मिला करती है, यह अवस्था हुआ करती है । जिसे कहते हैं―निरुपाधि स्थिति । उपाधिरहित स्थिति और उपाधिरहित स्थिति ही हितरूप है, और अंतिम विकास है, यही ग्रहण करने योग्य है ꠰ यह भी दृष्टि रहती है इसलिए समस्त प्रयोजन प्रभु के स्वरूप और अपने स्वभाव की तुलना में आ जाते हैं ।
सर्वजीवों में सहज परमात्मतत्त्व की प्रतीति से तात्कालिक लाभ―यदि कोई ज्ञानी पुरुष जगत के जीवों को भी निरखकर पर्याय में दृष्टि न अटकाकर स्वभाव को देखे और उस स्वभावदृष्टि से उन सबका ज्ञान करे, उपयोग करे, अपना अंतर्व्यवहार बनाये तो लाभ यहाँ भी हो सकता है । किसी के भी अपराध का झट क्षमा कर सकना, किसी के द्वारा किए गए उपद्रव में दृष्टि न होना, इन सब बातों के लिए यह भी कारण पड़ जायगा कि हम सब जीवों को स्वभावदृष्टि से यों निरखें कि हैं तो वे सब ऐसे सहज कारण परमात्मस्वरूप । यदि इसने गाली दी है, उपद्रव किया है, उपसर्ग किया है तो मूल में इस पदार्थ का अपराध नहीं है । उपाधि ऐसी है, करतूत ऐसी है, परिणति ऐसी बनी है कि जो यह कषायभाव का परिणमन बन रहा है । मूल में शुद्ध चैतन्यस्वभाव को निरखने से उसके प्रति क्षमाभाव आता है । इसी आधार को कहते हैं एक अद्वैतस्वरूप । जहाँ देखो वहाँ यह ही चैतन्यभाव दृष्टि में रह जाय तो फिर उस ज्ञानी का संसार से छुटकारा पाना अत्यंत निकट है । शीघ्र ही संकटों से यह तत्त्वज्ञानी छूटेगा ।
आत्महित की प्रेरणा पाने का लक्ष्य बनाने का अनुरोध―भैया ! हम दूसरे का गुणगान भी बहुत करें, किंतु उससे अपने आप में कोई प्रेरणा न लें तो अपने लिए कुछ नहीं रहा । जैसे भोजन का गुणगान खूब करें, अच्छा बना है, पाचक है, स्वादिष्ट है और उसका प्रयोग कुछ न करें, खाय पीये कुछ नहीं तो ऐसा मनुष्य तो यहाँ कोई न दिखेगा । तो यो ही हम प्रभुभक्ति करें, गुणगान करें, धर्म के नाम पर बड़ी उपासनायें करें । समय लगायें, पर अपने बारे में कुछ भी विचार न जगायें तब समझिये कि उस मनुष्य की तरह ही मूर्खता है कि भोजन तैयार भी करे और गुणगान भी करे, पर भूखा ही भूखा । हमारी अंत: यह भावना बनना चाहिए कि यह मनुष्यजन्म बड़ी कठिनाई से मिला है । मानो पशु-पक्षी होते, कीड़ा-मकोड़ा वनस्पति होते तो यहाँ मुझे कौन जानता? जिस रूप में भी मुझे लोग जान रहे हैं वह मैं हूँ ही नहीं । अब भी अगर न चेते और ऐसी ही दशायें मिलीं, तब इस मनुष्य जीवन के पाने का लाभ क्या उठा पाया? रहे तो आखिर वैसे के ही वैसे । बाहर में कुछ भी काम बिगड़े सुधरे, थोड़ा बहुत तो वहाँ गृहस्थावस्था में चित्त जायगा ही लेकिन उसको इतना महत्त्व न देना कि जिसमें अपने आपके कर्तव्य की बात भी भूल जायें । अब मुख्य काम यह है कि विषयों से विरक्त रहना और अपने सहजस्वभाव की प्रतीति और दृष्टि रखना । सबसे अधिक मुख्य एक यही काम है, दूसरा हे ही नहीं । ऐसी बात श्रावक अवस्था में मी, गृहस्थी के फंसे हुए बंधन वाली अवस्था में भी कोई मनुष्य रखे तो उसमें कौन बाधा देता है? स्वयं ही कायर बनकर बाधक बन रहा है ।
अंतस्तत्त्व के ध्यान से सर्वसमग्रता―परम विशुद्ध कार्य परमात्मत्व की प्राप्ति में मुख्य कारण अंतर्दृष्टि है । यद्यपि श्रेष्ठ मनुष्य होना चाहिए, उत्कृष्ट संहनन होना चाहिए, ये सब बातें भी आवश्यक हैं, बज्रवृषभनाराचसंहनन मिले बिना किसी का मोक्ष नहीं हुआ, फिर भी बज्रवृषभनाराचसंहनन वाले सभी मोक्ष गए सो तो नहीं । जिसका संहनन मजबूत है, हड्डियां बज्र की तरह है, ऐसा पुरुष मोक्ष जा सकता है, ऐसा ही पुरुष सातवें नरक में जा सकता है । जिसका शरीर मजबूत नहीं संहनन मजबूत नहीं वह पुरुष 7वें नरक नहीं जा सकता है । तब फिर बात तो अंतर्धान की रही । जिसका अंतर्ध्यान उज्ज्वल बना, ज्ञानस्वरूप में जिसका उपयोग बैठता गया उसको मुक्ति हुई, पर इस अंतर्ध्यान के बनने में मन की प्रबलता चाहिए और मन प्रबलता से एक ओर लगा रहे इसके लिए साधना भी चाहिए । यो परंपरया सहयोगी कारण है, परंतु इतने कारण होने के नाते इस पर दृष्टि लगाई जाय तो कारण भी नहीं रहा, फिर तो परदृष्टि हो गई । फिर तो आत्मध्यान की पात्रता खतम हो गई । तो किस ओर ध्यान बनाये रहना चाहिए कि परंपरया सहयोगी साधन भी जो मिलने होंगे सो मिलते ही जायेंगे, उन सहयोगी अत्यंताभाव वाले पदार्थों पर दृष्टि नहीं रखना है । ऐसा तत्त्व क्या है? वह है यही कारण परमात्मतत्त्व आत्मा का शुद्ध चैतन्यस्वभाव ।
सर्वविधानों का परिचय होने पर भी ज्ञानी का आलंब्य शरण तत्त्व―शुद्ध स्वरूप के प्रकट होने में कर्मों का क्षय भी निमित्त है । और, इस अंतर्ध्यान के समयों में कर्मों में भी संक्रमण, निर्जरण, स्थितियों का घटना, अनुभागघात आदि अनेक काम होते हैं जिनका करूणानुयोग में वर्णन हैं । जिनका प्रमेय बहुत अधिक है । होता है सब, लेकिन स्वरूपदृष्टि से देखो कि कर्मों में जो कुछ यह अवस्था बन रही है वह कर्मों में कर्मों के ही उपादान से बन रही है । और, उस स्थिति में यहाँ आत्मा में जो निर्मलता प्रकट होती है वह आत्मा में आत्मा के उपादान से प्रकट हो रही है । परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध होने पर भी स्वरूप-चतुष्टय जुदा-जुदा है । तो शिक्षा की बात तो यहाँ यह है कि जान तो लें सब विधियां, निमित्त आश्रय, स्थितियां, परंतु लक्ष्य, दृष्टि, आलंबन, शरण, एकमात्र आश्रय होना चाहिए आत्मा के उस उत्कष्ट चैतन्यस्वरूप का । और इस विधि से फिर यह जीव राग से दूर होगा और इसके ज्ञान का परिपूर्ण विकास होगा ।
परमार्थ आत्मतत्त्व के कीर्तन से आत्मोद्धार की प्रेरणा―जब यह सोचा जा रहा है कि मैं वह हूँ जो हैं भगवान, तो यहाँ एक द्रव्य दृष्टि से स्वरूप की तुलना की जा रही है । जाति अपेक्षा पदार्थ में अंतर नहीं है और जब जगत के जीवों को निरखकर भी देखा जाय कि जो मैं हूँ सौ सारा विश्व है, जो सारा विश्व है सो मैं हूँ तो यहाँ कोई संग्रहनय की बात नहीं कही जा रही है, किंतु उस ही स्वभावदृष्टि के बल से इस सहज परमात्मतत्त्व की ही बात की जा रही है । हम आत्मा को तो जानते हैं और इसका कीर्तन भी करते गुणानुवाद भी करते, कीर्तन किए बिना कोई मनुष्य रह नहीं पाता । कोई स्त्री के आगे शेखी मारता है, अपनी बड़ाई करता है तो वह अपना कीर्तन ही तो कर रहा है । कोई समाज में बैठकर अपनी शेखी मारता हे, अपनी बड़ाई करता है तो वह अपना कीर्तन ही, तो कर रहा है । चोर-चोर अपने गुट में रहते हुए अपनी विशेषता की बात कह रहे हैं तो वे अपना कीर्तन ही तो कर रहे हैं । तो कीर्तन किए बिना कोई रह तो नहीं पा रहा है, किंतु यह कीर्तन मिथ्या है, व्यर्थ है, अनर्थ है । लाभ की तो बात ही नहीं, हानि ही हानि होती है । मनुष्यभव के ये दुर्लभ जीवन के क्षण एकदम गुजरते चले जा रहे हैं और यहाँ लग रहे हैं पर्याय के कीर्तन में तो यह कितना भूल में, कितना गर्त में यह जीव जा रहा है । यह कीर्तन मिथ्या है । कीर्तन करिये अपनी दृष्टि में अपने लिए, अपने आपके ही आनंद के लिए, अपनी ही तृप्ति के लिए । अपने आपके स्वरूप को निरखकर गुप्तरूप से कीर्तन करते रहिये । लोग कहते हैं ।
आत्मगुण के अधिकीर्तन से लाभ उठाने का ध्यान―शास्त्रों में लिखा है कि अपने गुण अपने मुंह से नहीं कहने, चाहिए । इसमें मर्म क्या है? सीधी बात है ꠰ अपने गुण अपने आप बखान देने से गुणों की प्रगति में कमी आ जायगी । आप अनुभव करके देखो, उस गुण में उस विशुद्धि में वह प्रगति न रहेगी, वह शक्ति न रहेगी । लेकिन आत्मा का जो यह शुद्ध गुण कहा जा रहा हु, चित्स्वरूप की बात कही जा रही हे इसका वर्णन करने से बखान करने से गुण में प्रगति होती है और साथ ही यह भी जानो कि कोई बाधा भी आ जाती, आत्मा के सहज स्वाभाविक इन शुद्ध गुणों का भी वर्णन करने से, हानि तो यह है तुरंत कि हमारा अभी व्यवहार बन रहा है, हम अपने आप में डूब नहीं पा रहे हैं, लेकिन यहाँ भविष्य में मेरे विरुद्ध अंतर डाल लें, इतना अंतर नहीं डाल सकता आत्मगुणकीर्तन, पर जहाँ पर्याय का लगाव रखकर आत्मगुणकीर्तन हो तो उससे गुणों में बाधा आती है, फिर भविष्य में भी विकास नहीं होता । इससे कर्तव्य तो यह कि गुप्त ही गुप्त अपने आप में अपने ही रस का घूंट पीते हुए तृप्त रहें । किसी से प्रयोजन क्या? कोई मेरा रक्षक है क्या? कोई मेरा उत्तरदायी है क्या? मेरा तो लोक में कहीं कुछ नहीं है । केवल मैं ही हूँ । अपने भाव सम्हालूं, अपना ज्ञान सम्हालूँ, अपने ज्ञान का, अपने स्वभाव का प्रयोग बनाये रहूं तो मेरा उद्धार है । और परविषयों में रति करूं, आसक्ति करूं, लिप्त होऊं, तो प्रकट मेरी दुर्दशा है, जो जीव लोक में हो रहा है, जो संसार में दिख रहा है, फिर तो वही भर रहेगा । इससे यह बहुत बड़ा उपार्जन होगा, आपकी बहुत बड़ी कमाई होगी कि हम अपने सहजस्वरूप की दृष्टि कर लें ।
जीव स्वभाव के अनुशीलन का यत्न―भैया ! दूसरों के प्रति विरोधभाव को छोड्कर अपने परिजन में, अपने स्वार्थ में, अपनी आसक्ति न रखकर मोहकल्पित परिजनों के अतिरिक्त अन्य जीवों पर भी कुछ आत्मीयता की बात जगायें, उन्हें भी कुछ समान समझने लगें, थोड़े ऐसे कर्त्तव्य करते रहना चाहिए, इसमें चाहे थोड़ा द्रव्य भी खर्च हो दूसरों के उपकार में तो यहाँ शिक्षा तो मिलेगी कि परिजन ही मेरे सब कुछ नहीं है । जैसे ये जीव हैं वैसे ही जगत के अन्य सब जीव हैं । और फिर धन की तो वान यह है कि कोई कमा कमाकर जोड़ ले यह किसी के हाथ की बात नहीं हैं । वह तो उदयानुसार आता है । तो कुछ ऐसी वृत्ति बनायें कि जहाँ अपने कुटुंब पर मान लो 500 रूपये खर्च हो रहा है तहां अपने पड़ोसी गरीब भाइयों के पीछे या अन्य-अन्य दुःखीजनों के पीछे कुछ खर्च लगा दे, तो उनकी मदद करने के इस भाव से भी ऐसी बात मिलेगी कि जैसे ये हमारे घर के थोड़े से लोग हैं वैसे ही तो ये सब जीव हैं । ये ही मेरे सब कुछ नहीं हैं । होते संते की बात कही जा रही है । कहीं यह नहीं कहा जा रहा कि धन नहीं है और ऐसा न कर सके तो धर्म नहीं किया । अरे धर्म तो आत्मदृष्टि का नाम है, स्वभावदृष्टि का नाम है, और वह स्वभावदृष्टि हमारी तब ही बन सकेगी जब परिजनों में घनिष्टता न रहे ।
विषयविरक्ति और आत्मानुभूति से प्राप्त दुर्लभ क्षणों की सफलता―विषयों से विरक्ति हो और आत्मस्वभाव की दृष्टि हो तब तो उद्धार है, अन्यथा मनुष्यभव पाया न पाया, एक ही बात है, कोई अंतर नहीं । क्योंकि अब तक अनंते ही भव पा लिये और उनमें मनुष्यभव भी पाया होगा, पर लाभ कुछ न पाया । इससे अपना एक मुख्य लक्ष्य बनायें, विषयों से विरक्ति और आत्मस्वभाव में दृष्टि । इस प्रगति से हमारा जीवन चले तब तो जीवन सफल है और इसके विरुद्ध, आत्मस्वभाव से उपेक्षा और विषयों में अनुरक्ति हो तो यह बात तो पशुपक्षी आदि-आदि सभी में पायी जाती है । उससे मनुष्यभव पाने का लाभ कुछ न पाया । लो हम आप यह सोचें कि मैं वह हूँ जो हैं भगवान । इससे प्रेरणा यही तो मिलती है―विषयविरक्ति और आत्मानुभूति । इनके बल से ही यह चैतन्यपदार्थ निर्दोष होकर, विकसित होकर वीतराग सर्वज्ञ हुआ है, वही मैं हूँ । यह प्रेरणा मिलती है और उसके कारण समय आयगा कि जो आज प्रभु में और मुझ में अंतर हे वह अंतर भी न रहेगा ।
प्रभु में और स्वयं में ऊपरी अंतर―स्वरूपदृष्टि के मार्ग से गमन करके यह उपयोग जब प्रभु के स्वरूप और अपने स्वरूप में तुलना का, समानता का अनुभव करके कुछ तृप्त होता है उस तृप्ति के बाद जब कुछ अस्थिरता के कारण वहाँ से हटता है तो हटने पर निरखता है―ओह ! यहाँ तो अंतर पाया जा रहा है । हम अभी कैसा स्वरूपामृत का पान कर रहे थे । कुछ भेद ही नहीं सोचा जा रहा था कि मैं अन्य हूँ, प्रभु यह है, केवल एक स्वरूपदर्शन हो रहा था । इससे यह निर्णय किया गया था कि ‘‘मैं वह हूँ जो हैं भगवान’’, किंतु पर्याय के निरखने पर तो यह समझ में आ रहा है―‘‘अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यह रागवितान ।’’ यहाँ तो अंतर है, लेकिन यह अंतर अंत: स्वरूप में नहीं है, स्वरूपकृत नहीं है, किंतु ऊपरी है । यहाँ ऊपरी शब्द का अर्थ है कि स्वभाव के साथ तादात्म्य रखने वाला अंतर नहीं है । वस्तु के स्वरूप में स्वभाव में अंतर नहीं, किंतु यहाँ राग होने का अंतर पाया जाता है । यह अंतर कि प्रभु तो विराग है और यहाँ राग का फैलाव हे । ‘‘वे विराग यह रागवितान’’ इस अंस में यह शब्द न बोलना चाहिये―जैसे ‘‘वे विराग यह रागवितान,’’ किंतु यहाँ एक राग का आधारमात्र सूचित किया गया है कि यहाँ राग का फैलाव है, रागवितान यहाँ है । यह मैं रागरूप नहीं हूँ । यह रागवितानरूप नहीं है आत्मा, किंतु यहाँ आत्मा पर राग का फैलाव बन रहा है । यह राग मैं नहीं हूँ, मेरा स्वरूप नहीं है, क्योंकि राग सहेतुक कादाचित्क है । जो कादाचित्क होता, कभी होता कभी नहीं होता, वह सहेतुक होता है, और जो सहेतुक होता है वह अपना स्वरूप नहीं कहा जा सकता ।
राग की नैमित्तकता और अस्वरूपता―इस रागभाव में बड़े-बड़े अंतर और विषमता के साथ होने वाले राग कादाचित्क नजर आते हैं । कभी क्रोध है, कभी मान है, कभी माया है, कभी लोभ है, कभी किसी प्रकार का राग है, कभी कम राग है, कभी ज्यादह राग है, ऐसा होने का कारण क्या है? इसका कारण है कि राग सहज नहीं है । मेरे आत्मा में आत्मा के स्वभाव से, स्वरूप से राग चल रहा हो ऐसी बात नहीं है । इसका कारण है, और वह निमित्त कारण है । कई लोग राग का उपादान कारण कर्म को मानते हैं । यदि राग का उपादानकारण कर्म हो तब तो बहुत बड़ी सुविधा हमें मिल गई । जब भी दुःखी हों तो कर्म हो, रागी हों तो कर्म हों, फिर हम पर क्या आपत्ति? फिर मोक्षमार्ग किसलिए हम अपना बनायें? राग का उपादान है आत्मा है―‘‘यह रागवितान’’, किंतु इसका निमित्त कारण कर्म है । निमित्त कारण हमेशा अत्यंताभाव वाला होता है, लेकिन उसके उपादान में उत्पन्न हुए कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेक का संबंध पाया जाता है । जैसे क्रोधकषाय हुई तो क्रोधप्रकृति नामक कर्म के उदय होने पर ही हो सकती है । और क्रोधप्रकृति कर्म के न होने पर नहीं हो सकती है, ऐसा अन्वय व्यतिरेक संबंध जीव के कषाय का कर्म के साथ है । लेकिन कर्म में अत्यंताभाव है जीव के परिणाम का, जीव के स्वभाव का, जीव के सद्भाव का । कर्म जुदे हैं और आत्मा जुदा है, पर कर्म का निमित्त पाकर आत्मा में कषायभाव जगा है । यह कषाय मेरा स्वरूप नहीं है ꠰
कल्पनाओं के त्याग में ही कल्याण―भैया ! यह जगत केवल कषायों से परेशान हो रहा है । बाह्य वस्तुवों से परेशानी नहीं है । बाह्य पदार्थ तो वे सारे जैसे आपके लिए बाह्य हैं तै से ही हमारे लिए बाह्य हैं । आपका मकान जैसे और प्राणियों के लिये गैर है, बाह्य है, निराला है, इसी प्रकार आप से भी निराला है । तो निराली चीज से औरों को तो दुःख नहीं होता, सुख नहीं होता । तो ऐसे ही निराले मकान से आपको भी सुख-दुःख नहीं है, किंतु उसमें जो कल्पना लगा रखीं उससे सुख-दुख होता है । बड़े-बड़े महंत पुरुषों ने इस रहस्य को जाना था कि कल्पना बेकार की चीज है, कल्पना में कोई सार नहीं है और असार कल्पनाओं से ही यह संचार चक्र चल रहा है, अतएव कल्पना के त्याग में और कल्पना के विषयभूत छह-खंड के वैभव के भी त्यागने में उनको रंचमात्र कष्ट नहीं होता । यहाँ तो थोड़ा बहुत त्याग करने में बड़ा कष्ट होता है । अरे, इतने रूपये तो मुझ से चले गए, अब हमारा कैसे जीवन चलेगा? जिन महापुरुषों ने कल्पनाओं को असार जाना, और कल्पनाओं से जीव की परेशानी है, ऐसा रहस्य समझा, वे कल्पनाओं का त्याग करते हैं । वे नहीं चाहते कल्पना में, क्योंकि कल्पनाओं के ही आधार पर बाह्य पदार्थों का लगाव बना हुआ है । कल्पनायें छूट जायें तो बाह्य पदार्थों से कौन लगाव लगायेगा ? तो ये सब कल्पनायें सारहीन हें, ऐसो जानकर कल्पनाओं का त्याग किया कि बेड़ा पार हुआ ।
कल्पनाओं को त्यागकर सत्य विश्राम लेने का अनुरोध―यहाँ तो लोग कल्पनायें करके दुःखी हो रहे हैं । न चीज अपनी बनती है और न कल्पनायें छोड़ी जाती हैं । दोनों बातें एक साथ मिली हुई हैं । चीज अपनी बन जाय तो कुछ चलो कल्पना का मौज तो लिया जाय । तो कोई चीज अपनी बनती नहीं और न कल्पनायें छोड़ी जाती हैं, जिसके कारण लोग बहुत परेशान हो रहे हैं । यह स्थिति है मोही जीवों की । और, उन बाह्य पदार्थों की धुन में इतनी आसक्ति बना रखी है कि दिन-रात में किसी भी मिनट तो विश्राम नहीं ले पाते । जैसे लोग थक जाते हैं तो वे कुछ न कुछ विश्राम करते हैं । कोई बड़ा आवश्यक काम पड़ा हो, कह देते कि अरे यह काम तो अब पीछे होगा, पहिले विश्राम कर लें । तो थक जाने पर लोग दो-चार घंटे विश्राम तो लेते हैं लेकिन उस विश्राम में भी विश्राम नहीं है । क्योंकि दिल की दौड़, ख्याल की घुड़दौड़ इतनी तेज लग रही है कि दिल में चैन नहीं है । जब दिल थक जाता हैं कषाय करते-करते, इच्छा करते-करते, पर को मनाते-मनाते, तो इस दिल को विश्राम देना चाहिये । दिल का विश्राम यही है कि यह सोच ले कि अब मुझे कुछ नहीं सोचना है । सोचने से दिल थक गया । दिल का थकान मेटने का उपाय सोचने का काम मिटाना है । जैसे किसी काम के करते-करते शरीर थक गया तो शरीर की थकान मिटाने का उपाय प्रथम तो यह है कि उस काम का करना बंद कर दें । जब सोच-सोच करके हमने अपने दिल को थ का डाला, परेशान कर डाला, तो सोचने में सार तो कुछ है नहीं । जगत के किस पदार्थ का सोच किया जाय कि वह पदार्थ मेरे आत्मा का सच्चा साथी बन जाय? कुछ भी नहीं है ऐसा, तब फिर सबका सोचना एकसाथ बंद किया जाय तो वह होगा दिल का विश्राम ।
कषायोद्भूत परेशानी का मौलिक विवरण―जगत कषायों से परेशान है । इसमें प्रथम बात तो यह है कि ये कषायें मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वरूप नहीं है । मैं हूँ विशुद्ध ज्ञानानंदमय । अपने आपका जो सहज ज्ञानानंदस्वरूप है वह स्वरूप जिस किसी भी प्रकार प्रयत्न करके अपने उपयोग में आये, अपना सहज परमात्मतत्त्व स्वरूप ज्ञान में आ जाय, यह बात यदि आपके, हमारे किसी भी प्रकार बन जाय तो समझिये कि इसमें बढ़कर फिर अन्य कुछ भी उत्कृष्ट कार्य नहीं है । यह चेतन अचेतन का समागम तो अध्रुव है । कभी कुछ हो, कभी कुछ बिगड़े, कभी कुछ नष्ट हो, और फिर ये सब अपने आधीन हैं नहीं कि हम जैसा सोचें तैसा ये बनकर रहें । तब फिर इतनी श्रद्धा नो अवश्य बनाये ही रहें कि जो कुछ भी चीजें मिली हैं उनमें सार कुछ नहीं है, और उनसे मेरा पूरा न पड़ेगा, मेरा भला न होगा । जन्म के बाद मरण, मरण के बाद जन्म, ये सब चक्कर चलते ही रहते हैं । हम इस जन्म में बड़ा राग बनायें, ठाठ जमा जायें, अच्छा रहने का मकान, अच्छे ढंग के व्यवसाय, आय भी होती रहे, इज्जत भी रहे, जिसे लोग मौज कहते हैं, मौज के कितने ही साधन बना लिए जायें, पर उनसे उठता क्या है? प्रथम तो इस ही भव का विश्वास नहीं कि जीवन के अंत तक ऐसी ही मौज बनी रहे, और फिर मरण के बाद तो एकदम फैसला हो ही जाता हे । चाहे यहाँ कितना ही बड़प्पन लूटा हो, यदि किसी कीड़े की पर्याय में जन्म लेने का बंध किया है तो मरण के बाद तुरंत ही कीड़ा बन जायगा । वहाँ कहीं ऐसा नहीं है कि धीरे-धीरे बिगड़ते-बिगड़ते कीड़े की पर्याय में पहुँचे तो फिर इन मौज वाले साधनों का करें क्या? यह शरीर भी देखो कितना अशुचि है । इसे कितना ही धोया जाय, कितना ही तेज साबुन आदि से इसकी सफाई की जाय, पर यह शरीर साफ नहीं होता । मल, सूत्र, पसेव, नाक आदि अपवित्र चीजों से भरा हुआ है यह शरीर । फिर इस शरीर की सफाई से क्या पूरा पड़ेगा? इसी तरह इस दुःखमयी संसार में एक भव का, थोड़े समय का कल्पित मौज का साधन बनाने से पूरा क्या पड़ेगा? तुरंत ही अब फैसला होने को है ।
अंतर की मुख्यता न करके स्वभावदृष्टि की मुख्यता में भलाई―यद्यपि ऐसे रागवितान में यह जीव पड़ा हुआ है । पर, प्रभु को देखते हैं तो वहाँ राग का काम भी नहीं है, मूल भी नहीं है, अनंतकाल तक याने कभी हो भी नहीं सकता बिगाड़ । जो शुद्ध है सो शुद्ध ही रहेगा । प्रभु में हम में यह अंतर तो है, लेकिन इस अंतर की मुख्यता न देकर जिस दृष्टि में अंतर नहीं है उस दृष्टि की मुख्यता करता है ज्ञानी, क्योंकि पर्यायदृष्टि की मुख्यता करने पर जीव को ऐसी पर्यायों के ताते में ही लगा रहना पड़ेगा, क्योंकि परदृष्टि का फल यही है । और, स्वभावदृष्टि में जान-जानकर जुड़ते रहने पर कभी यह स्थिति आयगी कि हम स्वभाव के अनुरूप परिणमन प्राप्त कर लेंगे । आखिर यह आत्मा प्रभु की तरह ही तो प्रभु हे, समर्थ है । प्रभु कहते उसे हैं जो प्रकर्षरूप से होवे । तो यह आत्मा जब बिगड़ता है तो बिगड़ने में भी अपनी प्रभुता बनाता है । भला कोई है क्या ऐसा वैज्ञानिक कि जो इस जीव की रचना कर दे, इस जीव का जैसा परिणाम, इस जीव का जैसा जन्म-मरण बना दे? है तो नहीं कोई ऐसा, लेकिन यह प्रभु अपनी उल्टी लीला में अपना ऐसा उल्टा विकास कर रहा है कि आश्चर्य करने लायक है । यह आत्मदेव आज मनुष्यशरीर में बंधा हुआ है और अपनी करनी के अनुसार इस भव को छोड़कर अगर पेड़-पृथ्वी भी बन जाये, किसी भव में चला जाय, किसी देह में फंस जाय, ऐसी सृष्टि हो जाना, ऐसा आत्मा का फैल जाना, इच्छा का, संज्ञाओं का बदलता जाना, ये सारी बातें अद्भुत हैं कि नहीं । तो यह प्रभु जब उल्टी लीला में चलता है तब भी वहाँ अपना चमत्कार दिखाता है और जब यह अपनी सीधी लीला में आ जायगा तब भी यह अपना अद̖भुत चमत्कार दिखायेगा । फिर तो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद, अगस्तकृतार्थता पूर्ण पवित्रता प्राप्त होगी । तो यह जो अंतर पड़ा हुआ है, इस अंतर को यह ज्ञानी जीव ऊपरी देखता है अर्थात् पर्याय में देखता है, स्वरूप में नहीं देखता । यदि स्वरूप में अंतर हो जाय तो फिर भगवद्भक्ति करने से भी कुछ फायदा नहीं । जब मैं स्वरूपत: अंत: रागी हो गया तो किसी जीव का स्वरूप ज्ञान है, तो यहाँ राग मेरा स्वरूप है तो फिर राग छूटेगा कैसे? राग न टूटेगा, मुक्ति न होगी तो फिर किसलिए भगवान की भक्ति करना? तो सत्य यही है कि राग आत्मा का स्वरूप नहीं है, ऐसा राग का जो फैलाव है वह कादाचित्क है और सहेतुक है, कर्म का निमित पाकर यह उत्पन्न हुआ है ।
निमित्तनैमित्तिकभाव के प्रसंग में भी आत्मस्वातंत्र्य का दर्शन―इस प्रसंग में कुछ मनुष्य इस रुचि के कारण कि कहीं आत्मा की स्वतंत्रता में धक्का न लगे सो रागभाव नैमित्तिक है, ऐसा प्रकट कहने में संकोच करते हैं । यदि राग को नैमित्तिक कह दिया तो, है तो राग आत्मा का परिणाम और उसे बता दिया नैमित्तिक तो इसमें आधीनता आ गई, स्वतंत्रता न रही, इस भय से राग को नैमित्तिक स्पष्ट कहने में संकोच करते हैं । लेकिन, एक दृष्टि से देखो कि राग को नैमित्तिक कहने में आत्मा में स्वच्छता, स्वतंत्रता विशेष जाहिर हो सकती है । और इसी कारण कहीं-कहीं तो राग को पौद̖गलिक कह दिया है शुद्धनय से अर्थात् शुद्धनय का बल लेकर जब आत्मा को विशुद्ध सबब चैतन्यसत्त्वमात्र देखने की धुन बनी है ऐसी धुन के समय कोई पूछ बैठे कि यह रागभाव किसका है तो चूँकि आत्मा को शुद्धता के दर्शन की तीव्र रुचि हुई है तो वहाँ उत्तर मिलेगा कि ये रागभाव पौद्गलिक है । इनका कर्म के साथ अन्वय व्यतिरेक है । कर्म के होने पर रागादिक होते हैं, कर्म के न होने पर रागादिक नहीं होते । तो यह विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय से उत्तर है कि रागादिक आत्मा के नहीं हैं किंतु पुद्गल के हैं । कोई पुरुष आत्मपदार्थ के स्वरूप को न जानकर कह देते हैं कि विकार का कर्ता कर्मद्रव्य है । इस मान्यता में स्वतंत्रता खोई जाने से आत्मा स्वरूपच्युत बना रहता है वह । अरे निमित्तनैमित्तिक संबंध के प्रसंग में भी आत्मा में जो परिणमन है वह निमित्त के परिणमन को स्वीकारे बिना, अपने आपके परिणमन से परिणमता है । भले ही दूसरा निमित्त है । निमित्तभूत पदार्थ में उपादान का अत्यंताभाव होता है । खुद ही खुद की विभाव परिणति का निमित्त नहीं हुआ करता । यदि यह आत्मा-आत्मा के रागद्वेष की परिणति का निमित्त बन जाय तो लो यही है उपादान और यही है निमित्त, और आत्मा का सद्भाव शाश्वत है, तब फिर राग सदा रहना चाहिए, उससे कभी मुक्त ही नहीं हो सकते ।
विकारों की अहितकारिता के विश्वास की अपरिहार्यता-―भैया ! यह विश्वास लायें कि ये जो रागादिकभाव उत्पन्न होते हैं वे मुझे मूर्ख बनाने के लिए हो रहे हैं । मैं तो भगवान समान विशुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव का धारी हूँ । इन रागों में, इन कषायों में हम हित का विश्वास न करें । इतनी बात तो करने में कोई कठिनाई नहीं है । हम यह जानते रहें कि हम में जो राग हो रहे, कल्पनायें हो रहीं, मोह जग रहा, इच्छा हो रही, ये सब मेरी बरबादी के लिए ही है, मेरी उन्नति के लिए नहीं हैं । लौकिक उन्नति से आत्मा की उन्नति नहीं कहलाती । कोई करोड़पति हो गया, अथवा कहीं का बड़ा मिनिस्टर बन गया, हजारों लाखों लोगों ने कहीं कुछ स्वागत कर दिया तो इस बड़प्पन से इस आत्मा को मिलेगा क्या? जो अपने ज्ञानानंदस्वभाव पर दृष्टि नहीं दे रहा है वह खोखला ही तो बन रहा है । उसके भीतर में तो कुछ बल नहीं रहा । केवल कल्पनायें कर करके अपना मन भर रहा है, जो कि क्षणिक थोड़े समय बाद उससे कठिन दुःख भी आयेंगे । थोड़ा हजार लाख पुरुषों द्वारा अपना स्वागत देख लिया और उससे मौज मान लिया, पर उस क्षणिक मौज के एवज में उसको कितना दुःख उठाना पड़ेगा, इसको तो वही समझेगा । बाह्य पदार्थों से हम अपने आपका कुछ बड़प्पन बना लें यह तो कल्पना की चीज है कोई आराम की बात नहीं है ।
सहज, परमात्मतत्त्व के उपयोग से ही उद्धार―मेरा कोई बड़प्पन मत रहो, कोई मुझे जानने समझने वाला मत रहो, यदि मैं स्वयं अपने आपके स्वरूप का, परमात्मतत्त्व का जानने-बूझने बाला रहूंगा तो मैं तृप्त हूँ, संतुष्ट हूँ, सन्मार्ग पर हूँ और एक अपने इस सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि से अलग रहूंगा तो चाहे बाहर में कुछ भी मायामयी स्थिति रहे, उससे इस आत्मा को लाभ कुछ नहीं है । तो ज्ञानी संत विचार कर रहा है कि प्रभु में मुझ में यद्यपि पर्यायकृत अंतर हे, प्रभु विराग है और यहाँ राग का फैलाव हो रहा है, इतने पर भी यह अंतर स्वभाव में नहीं है । स्वरूप एक समान है, ऐसा जानकर अपने आत्मगुणों के कीर्तन में रत ये संत पर्याय दृष्टि को गौण करके द्रव्यदृष्टि से, स्वभावदृष्टि को मुख्य करके अधिकाधिक अनुभव करने का यत्न कर रहे हैं कि जो प्रभु का स्वरूप है सो मेरा स्वरूप है । मुझ में किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं है । क्लेश हो रहा हो तो रागद्वेषमोह की कल्पनायें छोड़ दें, क्लेश अवश्य मिटेगा और उस कल्पना के छोड़ने में कोई संकोच और हैरानी भी न मानना चाहिये, क्योंकि यह तो सब छूटेगा ही । वैभव भी छूटेगा और वैभवविषयक कल्पना भी छूटेगी । तब ज्ञानबल से हम स्वरूपदर्शन कर करके क्यों न उन कल्पनाओं को छोड़ दें, जिससे हमारा उद्धार हो ।
निरंतर तथा अविकार अंतस्तत्त्व का समुत्कीर्तन―जितने भी पदार्थ होते हैं वे मूल में अपने निज सहज सत्त्व से सिद्ध होते हैं । अर्थात् जो भी है वह अपने कारण अपने स्वरूप से अपने स्वभावमात्र है । फिर बाह्य पदार्थों का संबंध बने और उस संबंध के कारण विभावपना आया तो उससे रागमल उत्पन्न हो जाता है । वह मल ऊपरी है, स्वभाव में नहीं है । इस शरीर को आत्मा का बिल्कुल ऊपरी आवरण कह सकते हैं, याने आत्मा के प्रदेश में शरीर का कुछ भी नहीं गया । शरीर अत्यंत भिन्न पदार्थ है, आत्मा अध्ययनों भिन्न है । आत्मा में शरीर का आवरण बिल्कुल ऊपरी है, इस तरह का ऊपरी आत्मा में राग नहीं है । जब राग होता है तो आत्मा के सर्वप्रदेश रागमय हो जाते हैं उस काल में । जिस काल में जो परिणमन है, पदार्थ उस परिणमनमय हुआ करता है । इतना अंत: भीतरी परिणमन होने पर भी चूंकि वह स्वभाव में नहीं है, सहज सत्त्व में नहीं है इस कारण रागवितान ऊपरी अंतर कहा गया है । जहाँ पर्यायकृत ही अंतर है, स्वभाव में अंतर नहीं है ऐसे स्वरूप दृष्टि से अपना और प्रभु का स्वरूप निहारकर अपने आपको तृप्त पवित्र करना चाहिये । लोक में अन्य कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिसका ध्यान रखने से, जिसका विचार करने से, जिसकी उपासना करने से आत्मा पवित्र हो सके । केवल एक यह प्रभुस्वरूप ही है जिसका ध्यान करने से आत्मा पवित्र बनता है । पवित्रता क्या? ज्ञान शुद्ध रहे, रागद्वेष इष्ट अनिष्ट ये वासनायें न जगें ऐसे उपयोग के निर्मल रहने का ही नाम पवित्रता है । तो जैसे स्वरूप की दृष्टि रखने पर मुझ में और भगवान में समानता ज्ञात होती है ऐसा स्वतंत्र, निश्चल, अविकार, जानन देखनमात्र यह मैं आत्माराम हूं ।