वर्णीजी-प्रवचन:आत्मकीर्तन - छंद 2
From जैनकोष
‘‘मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान ।
किंतु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान ।।2।।’’
स्वरूप के अनुरूप उपयोग बनाने के प्रयत्न के साथ ज्ञानी का आत्मस्वरूपचिंतन―मेरा स्वरूप सिद्ध प्रभु के स्वरूप के समान है अर्थात् जैसे सिद्ध प्रभु अनंत ज्ञानदर्शन आनंदशक्ति के निधान हें उस ही प्रकार मैं अपने स्वरूप में अनंत ज्ञानदर्शन शक्ति आनंद का निधान हूँ, अर्थात् सहज अनंत चतुष्टयमय हूँ । प्रभु व्यक्त अनंत चतुष्टयमय हैं । जिस स्वरूप की बात कही जाती हो उस स्वरूप का उपयोग पहुंचने पर उसके तथ्य का ज्ञान होता है । हम अपने उपयोग को विषय कषायों की वासना से वासित बनाये रहें और सिद्ध प्रभु के स्वरूप की, अपने स्वभाव की चर्चा मात्र करके उसका परिचय पाये, उसका रसास्वाद करना चाहें तो ऐसा नहीं हो सकता । तैयारी के साथ प्रभुस्वरूप का कोई परिचय करे तो परिचय हो सकेगा । जैसे छोटे बच्चे को कुछ काम सिखाने के लिए मां स्वयं उस प्रकार से चेष्टा करती है तो बच्चा भी चेष्टा करता है । जैसे मंदिर में मां ने भगवान को नमस्कार किया तो बच्चे ने भी नमस्कार किया । कभी बच्चे को नमस्कार कराने के लिए दूसरी तीसरी बार भी नमस्कार करती है, हाथ जोड़ती हे । जो काम बच्चे से एक शांति से कराना हो तो उस रूप स्वयं वह मां तैयारी करती है तो वह बच्चा भी करता है । यहाँ सिद्ध के स्वरूप को जानना चाहें तो सिद्ध की निर्मलता का हम अनुकरण करें, उस रूप से अपना उपयोग बनायें तो हम सिद्ध के स्वरूप का परिचय पा लगे । हम उपयोग तो चलाते उल्टे और जानना चाहें प्रभु के स्वरूप का, स्वभाव का तथ्य, तो यह बात नहीं बन सकती । जगत के पदार्थों को असार भिन्न जानकर, अत्यंत भिन्न असार समझकर उन सब विषयों का उपयोग न रहे, केवल एक अपने उपयोग का यही लक्ष्य रहे कि मुझे तो जानना है अपने उस सार शरण प्रभु को । एकमात्र इस पवित्र उद्देश्य के साथ बाह्य पदार्थों का विकल्प तोड़कर अपने आप में निष्कषायभाव से, पक्षपात छोड़कर, किसी को इष्ट अनिष्ट न जानकर, सबके प्रति राग विरोध छोड्कर हम अपने आपके उस प्रभुस्वरूप से मिलना चाहें तो मिलन हो सकता है ।
प्रभुमिलन की सुगमता―भैया ! प्रभु का मिलन क्या है? स्वयं ही तो है यह प्रभु । मिलन यों कहलाता कि उपयोग ने कभी इस प्रभु को नहीं विराजमान किया । हम इससे अलग रहे उपयोग द्वारा । हम अलग कहां रह सकते हैं? हम ही तो वही द्रव्य हैं । आत्मद्रव्य जो द्रव्य असली रूप में रह जाय तो प्रभु कहलाता है व्यक्त रूप से । तो हम स्वयं सर्वस्व शरण सार प्रभु होकर भी अपने को न जान सके, उपयोग इससे अलग रहा तो कहां रहा फिर इसका प्रभु, इससे मिलन न रहा । जो बच्चा अपने पिता से विरुद्ध चलता है, विरुद्ध उपयोग रखता है तब फिर उस एक घर में रहते हुए भी पिता से पुत्र का मिलन तो न कहलायेगा । वह तो एकदम विरुद्ध चल गया । अब मिलन क्या रहा? और, जब मिलन नहीं है और एक ही घर में बस रहे हैं तो वहाँ आकुलता व्याकुलता होती ही है । माना तो जा रहा है अपना और विरोध होने के कारण उसे उसमें हो रहा है विरोध तो ऐसी स्थिति में आकुलता उत्पन्न होती है । किसी को अपना मत मानो । कोई आवश्यकता नहीं किसी को अपना मानने की, चाहे कितना ही विरोधी हो, कितना ही अलग रहता हो, जो पुरुष पहिले से विरोधी है उसके विरुद्ध कार्य को देखकर दुःख नहीं होता । और जब कोई अपने में से अपना ही मित्र अपने से कदाचित् विरोध कर जाय तो उसमें बड़ा दुःख महसूस करते हैं । तो यह उपयोग अपना ही तो है । और, यह स्वरूप स्वयं ही है । वह उपयोग इस स्वरूप से विरुद्ध हो गया है । अपना संबंध है उपयोग से और फिर अपने स्वरूप से हो रहा है विरोध, तब इसमें आकुलता होना प्राकृतिक बात है ।
उपयोग को स्वरूपानुरूप करने में लाभ―अब अपने इस उपयोग को हम अनुकूल करें पूरे निर्णय के साथ कि जगत में कहीं सार नहीं रखा, ऐसे निर्णय के साथ पर से उपेक्षित होकर ज्ञाता द्रष्टा रहें । क्या रखा है बाह्य में? मान लो बहुत-बहुत परिग्रह जोड़ लिया तो अंत में उससे तत्त्व मिलेगा क्या? आत्मा का सार और कल्याण क्या मिल सकता है? कुछ भी नहीं । और, वर्तमान मैं भी क्या सार रखा है? यदि यहाँ के कुछ मोही लोगों ने कुछ प्रशंसा कर दी, यह बहुत अच्छा है, अग्रिम स्थान दे दिया मोहियों ने तो इसका अर्थ हें कि आप मोहियों के सिरताज बन गए । मोही का पर्यायवाची शब्द मूढ़ भी है । तो उस प्रशंसा करने वालों ने मूढ़ों में अग्रिम स्थान आपको दे दिया तो क्या अर्थ हुआ―मूढ़ों के सिरताज बन गये । क्या रखा है यहाँ के व्यवहार और यहाँ के मौज मैं, यहाँ की इज्जत में । यह उपयोग अपने प्रभु की इज्जत समझे तो असली इज्जत वहां है और तृप्ति संतोष वहां है । और, जिनको संतोष का ऐसा मिलन आधार मिल गया है उसका स्वयं ही ऐसा विशिष्ट पुण्य रस बढ़ता है कि लोक की इज्जत, अग्रिम स्थान, लोक में अनेक सुविधाओं का साधन ये सब अनायास प्राप्त होते हैं ।
अभ्युदय एवं निःश्रेयस प्राप्ति का उपाय धर्मधारण―कोई बालक धनी के यहाँ उत्पन्न हुआ । उस बालक में इतना भी तो बल नहीं है कि अपने पैर यहाँ वहाँ सरका ले, बैठ जाय, बोल ले, और उत्पन्न होते ही बच्चा कहलाने लगा लखपति, करोड़पति, और उस-उस तरह के उसके साधन भी हो रहे हैं । तो कहां उस बालक ने कमाई की, पर वह समृद्ध माना जाता है । जब वह कुछ और बड़ा होता, 10-12 वर्ष का होता तब भी वह कुछ धनोपार्जन नहीं कर रहा, लेकिन उसकी समझ में आ गया कि मैं ऐसा धनिक हूँ । तो समझ के कारण भी उसमें एक धनिकता की विशेषता जगी । कौन कमाने आया? सब कुछ धर्म का फल है । धर्म में चित्त होने से स्वयं ही ऐसा पुण्य रस उमड़ता है कि अनायास ही साधन प्राप्त होते हैं । जिसको इस लोक में भी सुखी रहना हो, अपना जीवन भी सफल करना हो, भविष्य में संसार के संकटों से छुटकारा पाना हो, तो इन समस्त कल्याणों का इन समस्त अभीष्ट तत्त्वों का उपाय केवल एक ही है? धर्म धारण करो ।
गुप्त का गुप्त में गुप्त विधि से गुप्त कल्याणविधान―अब तक जो सिद्ध हुए हैं, जिनमें सर्वप्रकार से विशुद्धता जगी है वे भी कभी संसारी प्राणी थे और निगोद में थे । कैसे उनका उत्थान हुआ और मनुष्यभव पाकर किस प्रकार से उन्होंने विशेष उत्थान किया वह रीति समझ लीजिये । इस लोक में गुप्त रहकर अपना कल्याण करना हे । गुप्त रह करके मायने सुरक्षित रहकर है, अब वह सुरक्षा गुप्त ही रहने में होती है, इस कारण गुप्त का अर्थ लोग छुपा हुआ समझने लगे । गुप्त का अर्थ छुपा हुआ नहीं हे । गुपू रक्षणे धातु से गुप्त बना है उसका अर्थ है सुरक्षित । गुप्त रहकर धर्मपालन करो अर्थात् अपने उपयोग को अपने स्वभाव में रखकर सुरक्षित होकर जिसमें कि कोई विघ्न ही नहीं हो सकता, अपने आत्मदर्शन करो और आत्मानुभव करते हुए अपने कल्याण में बढ़ो । सुरक्षित बना हुआ है गुप्त होने से । जैसे किसी चीज को सुरक्षित करना है तो लोग तिजोरी में रखकर ताला लगा देते हैं और कहते हैं कि लो इसे छुपा दिया । अब उस चीज की सुरक्षा इसी हालत में हे कि वह छुपी हुई रहे, किसी की निगाह में न पड़े, क्योंकि उस वस्तु के चाहने वाले अनेक लोग हैं, उसे लोग चुरा लेंगे । तो वस्तु की सुरक्षा का साधन जैसे लोगों ने छुपा देना माना है, यों ही समझ लीजिये कि अपने आपकी सुरक्षा का साधन भी अपने आपको अपने में छुपा देना, विलीन कर देना, बस यही है । अपने आपके गुण अपने मुंह से प्रकट करने के मायने है कि अपने स्वरूप को, स्वभाव को, गुण को अपनी विशेषता को जाहिर कर दे, लोगों को बता दे, सो इसमें गौरव नष्ट होता है, प्रगति रुक जाती है । यद्यपि इस प्रसंग में लोग मेरे गुण छीन लेंगे ऐसी बात नहीं हे, लेकिन इस तरह की जाहिरता में अपने आप से ही अपनी बात जाहिर करने में चूँकि उसको पर्यायबुद्धि का दोष लगा है, उसके चित्त में यह राग कणिका उठी है कि लोग भी समझ जाये कि मैं कितना अच्छा चल रहा हूँ । चाहे वह कितना ही थोड़े अंश में बना हो, लेकिन इस राग विष के कारण गुणों की प्रगति रुक जाती है, गुणों की जो प्रगति चल रही थी वह समाप्त हो जाती है । तो कल्याण भी गुप्त है और उसकी विधि गुप्त है । और, यों समझिये कि यह भीतर ही भीतर अपने ही प्रदेशों में सरक कर अपने आप में एकरस होने की बात है । यह है आत्मा के कल्याण की विधि ।
आत्मानुभूति की स्थिरता के लिये साधुव्रत का पालन-―आत्मानुभूति में फिर स्थिरता नहीं रहती है सो उस स्थिरता को उत्पन्न करने के लिए, स्थिरता में जो-जो बाधायें हैं उनसे दूर रहने की बात होना इसी के मायने है साधुव्रत । घरगृहस्थी में रहना, परिजनों के बीच रहना आत्मानुभूति की स्थिरता में बाधक है यहाँ तक कि कुछ भी द्रव्य रखना, कोई भी वस्तु रखना ये भी किसी अंश में हमारी आत्मानुभूति में बाधक है । तो जिनको आत्महित की धुन लगी है वे पुरुष इन समस्त परिग्रहों का त्यागकर निर्ग्रंथ साधु हो जाते हैं मात्र गात का परिग्रह रह जाता हे । शरीर को कहां त्याग दें । उनकी श्रद्धा में तो यह बात है कि यह शरीर भी मेरे आत्महित में बाधक है । पर इसे कहां तक टाल दें, कहां अलग कर दे, यह तो लगा हुआ ही हैं जब तक भी है । कदाचित् भावुकता में आकर शरीर को हटा दें, मरण कर लें तो इससे इस आत्महिताभिलाषी को क्या सिद्धि है? अभी अपक्व दशा है, कल्याण में पूरा बढ़ सके नहीं, कल्याण की धुन जगी थी, और भावुकता में कर दिया शरीर का त्याग, तो अगला कोई जन्म तो लेना ही पड़ेगा । फिर संसार का चक्र लग जायगा । तो साधुजनों का विवेक अभी शरीर को रखे हुए है और उस ही विवेक के कारण साधुजनों को आहार भी लेना पड़ रहा है । आहार के लेने में उन्हें कोई खुशी नहीं होती, लेकिन आहार छोड़कर भी वही हालत समझिये, होगी जो शरीर का परिहार करके हालत हो सकती है अपक्व दशा में । अतएव विवेक ही उन्हें आहार के लिए उठाता है, आसक्ति नहीं उठाती । इतनी तेज धुन जिस पुरुष के आत्महित में लगी है वह पुरुष विशद अनुभव करता है कि मम स्वरूप है सिद्ध समान ।
ज्ञानी की केवल समाधेय एकमात्र समस्या―आत्महितार्थी पुरुषों के लिए अन्य कोई समस्या आगे नहीं है । किसी बात को वे समस्या ही नहीं समझते । किसी ने गाली दे दी तो वे इसे कुछ समस्या ही नहीं समझते हैं । क्या है, ये सब बाहरी बातें हैं, बाहरी परिणमन हैं । कोई शरीर पर उपद्रव भी करे तो उसे भी वे समस्या नहा समझते । कोई भी कठिन से कठिन शारीरिक रोग हो जाय तो उसे भी वे कोई समस्या नहीं समझते । वे तो जानते हैं कि किसी तरह से मेरा संसार का आवागमन छूटे, संसार का आवागमन ही एक हम पर विपदा है, अन्य कोई दूसरी बिपदा हम पर नहीं है । यह विपदा यदि न टली तो संसार में रुलना ही ती बना रहेगा । आज मनुष्य होकर कुछ शान बगरा रहे हैं । मरण के बाद यदि कीटपतिंगा, पेड़-पौधे आदि बन गए तो फिर कहां शान रही? तो इस जीवन में अन्य कुछ खास समस्या नहीं है । खास क्या, कुछ भी अन्य समस्या नहीं है । थोड़ासा गृहस्थ जीवन चलाने के लिए सहयोग में जो कुछ बात हो सकती है उतनी भर बात मान लिया लेकिन समस्या कुछ नहीं है ।
ज्ञानी के बंधनमुक्ति का तीव्र संकल्प―इस जीवन में कुछ भी स्थिति गुजरे, बड़ा दरिद्र होकर भी रहना पड़े तो कोई बड़ी समस्या नहीं है । किसी का दास बनकर रहना पड़े तो कोई समस्या नहीं है । इस शरीर के नाते से ये सब काम चल रहे हैं । यहाँ तक बताया कि हे प्रभो ! मैं आत्म धर्म से रहित होकर, आत्मदृष्टि से चूत होकर अथवा कहो―जैन धर्म से वंचित होकर चक्रवर्ती भी नहीं होना चाहता हूँ । जिन धर्म में वासित होकर अर्थात् रागद्वेषादिक शत्रुवों को जीतने का जो उपाय है उस उपाय में वासित होकर मैं किसी छोटे का भी दास बना रहूं, तो वह मंजूर है, पर आत्मदृष्टि से रहित होकर चक्रवर्ती भी होना हमें मंजूर नहीं है । इतना तीव्र संकल्प है आत्महित चाहने वाले पुरुष का । दरिद्र हो गया तो यह कौनसी बड़ी समस्या है? कुछ भी बात गुजर जाय तो कौनसी बड़ी समस्या है? समस्या सामने वह है कि शरीर, कर्म, विकार इनका बंधन कैसे छूटे? एतदर्थ जो इन बंधनों से रहित हैं उनके स्वरूप का स्मरण किया जा रहा है और स्वरूपस्मरण करते हुए अपने आप में भी चिंतन किया जा रहा हे―‘‘मम स्वरूप है सिद्ध समान ।’’
केवल स्वरूप के निरीक्षण से सिद्ध स्वरूप का परिचय―-सिद्ध भगवान का स्वरूप विचार करने का सीधा उपाय है उन्हें केवल देखना । केवल के रूप में उस निकल परमात्मा को निरखने पर जहाँ वह एक आत्मतत्त्व ही जब उपयोग में रहता है तो उस ही को निषेधरूप मे यों कहा करते हैं कि वहाँ द्रव्यकर्म नहीं, भावकर्म नहीं, नोकर्म नहीं । निषेध से वस्तु का स्वरूप नहीं आया करता । निषेध तो वस्तु के स्वरूप की विशेषता है । स्वरूप में तो स्वरूप है । तो यों जब हम केवल आत्मा को निरखते हैं, प्रतिभासमात्र पदार्थ जो अपने आपके सहजसत्त्व से अपने आपके सहजविलास में निरंतर रहता हो आत्मपदार्थ, इस ही का नाम है सिद्ध भगवान । तो जब हम केवल के रूप से सिद्ध प्रभु को निहार सकते हैं तो हम अपने आपको भी केवल के रूप में निहारें, क्योंकि जब मैं हूँ तो जो हूं सो ही तो हूँ । पदार्थ में जो अस्तित्व है बस वही अस्तित्व है उस पदार्थ में । मैं हूँ तो जिस स्वरूप से हूँ उस ही मात्र तो हूँ । उस ही केवल को देखें तो ऐसा केवल अंतस्तत्त्व को निहारने से यह विदित होता है कि―‘‘मम स्वरूप है सिद्ध समान ।’’
सिद्ध प्रभु की भांति अपने स्वभाव में केवल देखने का यत्न―जैसे यहाँ व्यवहार में बातचीत में कहा करते हैं किसी नग्न पुरुष को देखकर, जिस पर वस्त्र डोरा कुछ भी नहीं है, उस नग्न पुरुष की चर्चा करते, चाहे सामान्यजन नग्न हों अथवा साधुजन हों, जब यह चर्चा करते कि इसका रूप ऐसा नग्न है तो क्या यह नहीं कह सकते कि जितने कपड़े पहिनने वाले लोग हैं वे सब भी इस ही प्रकार नग्न हैं? जैसा कि नग्न कपड़ों का त्याग करने वाला है? कपड़े के भीतर सब लोग वैसे के ही वैसे नग्न हैं । क्या उसमें कुछ अंतर है? तो इसी तरह सिद्ध भगवान हैं पूरे नग्न । जिन पर शरीर का आवरण नहीं, कर्म का आवरण नहीं, विभावों का आवरण नहीं, ऐसे शुद्ध नग्न हैं सिद्ध भगवान । तो जैसे केवल परिपूर्ण नग्न सिद्ध प्रभु हैं क्या उस प्रकार से केवल परिपूर्ण नग्न हम आप सब नहीं ह? आवरण से पृथक् शरीर और नोकर्म से पृथक् अस्तित्व है यह तो प्रकट बात है, उनके भीतर तो हम सुगम नग्न हैं । मैं आत्मस्वरूप ऐसा केवल नग्न हूँ जैसा कि कपड़े के भीतर पुरुष साधु की तरह नग्न हैं । अब रही विभावों की बात कि रागादिक विकारों से भी परे, उन आवरणों से भी निराला नग्न यह मैं आत्मतत्त्व हूँ, सो यह परख परम पैनी विवेक छेनी से भिन्न करके की जा सकती है ।
स्वभाव और विभाव के भेदविज्ञान में भेदविज्ञान की पराकाष्ठा―भैया भेदविज्ञान की पराकाष्ठा स्वभाव विभाव के भेदन में ही है । शरीर से निराला मैं हूँ ऐसा कहकर भेदविज्ञानजनित अमृत रस का स्वाद नहीं लिया जा सकता ꠰ द्रव्यकर्म से निराला हूँ ऐसा कहकर भी भेदविज्ञान से आने वाले अमृत रस का स्वाद नहीं लिया जा सकता है । पर इस भेदविज्ञानामृत का पूर्ण स्वाद, यहाँ स्वरूप और विरूप में स्वभाव और विभाव में जब भेदविज्ञान किया जाता है और वहाँ धीरे-धीरे भीतर ही सरककर अपने आपके स्वभाव में उपयोग रमाकर जब बोध होता है, अनुभव होता है, प्रतिभासमात्र सत्, इस तरह से जब अनुभव होता है स्वभाव का, तो इस स्वभाव और विभाव के भेदानुभव के समय इस भेदविज्ञानानुभूति से ग्राह्य अंतस्तत्त्वामृतरस का स्वाद आया करता है । इस भेदविज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचने के लिए शरीर से निराला मैं हूँ यह भेदविज्ञान सहयोगी है, कर्म से निराला मैं हूँ यह भेदविज्ञान सहयोगी है, पर साक्षात् अमृतरस का स्वाद दिलाने वाला स्वभाव और विभाव का भेदविज्ञान है । इस भेदविज्ञान के जरिये मैं इन रागादिक विकारों के भीतर भी नग्न हूँ केवल हूँ । जैसे कि सिद्ध भगवान प्रकट नग्न है, केवल हैं, अपने मात्र स्वरूप में हैं । इस प्रकार की सुध हम अपने आप में स्वभाव विभाव के बीच भेदविज्ञान की दृष्टि से कर सकते हैं ।
सिद्ध समान प्रतिभासमात्र स्वरूप के अनुभव में पुनीत निर्भरता―यहां अपने आपका ही विचार चल रहा हे । मैं अर्थात् प्रतिभासमात्र पदार्थ सिद्ध के समान हूँ । ऐसा साम्य अनुभव करनेपर ओर यह विदित किया जाने पर कि मैं तो प्रतिभासमात्र पदार्थ हूँ । अहंकार ममकार के सारे बंधन टूट जाते हैं । इस प्रतिभासमात्र पदार्थ का घर होना, कुटुंब होना कितनी बेतुकी बात है । यह प्रतिभासमात्र पदार्थ मैं प्रतिभासस्वरूप ही हूँ । प्रतिभास में ही मेरा सारा सर्वस्व है । किसी भी अन्य पदार्थ का रंच भी संबंध नहीं है । कभी हो ही नहीं सकता । उपयोग को बार-बार भ्रमाने से, कल्पना में संबंध मानने से, इस जीव ने अपने आप पर भार बढ़ा लिया है । प्रतिभासमात्र पदार्थ जैसा कि सहज अस्तित्व में मैं हूँ, उस पर कुछ भी भार नहीं हे, वह निर्भार है । अमूर्त आकाश में कहीं भार आ सकता है क्या? इसी प्रकार अमूर्त प्रतिभासमात्र अंतस्तत्त्व में कोई भार भी बना हुआ है क्या? जैसे आकाश अनादिसिद्ध है वैसे ही यह प्रतिभासमात्र अंतस्तत्त्व मैं भी अनादिसिद्ध हूँ, किंतु एक उपयोग गुण की विशेषता होने के कारण अनादिबद्धता से यह जीव बाह्य में उपयोग भ्रमाता है, संबंध बनाता है, कल्पनायें करता है, यह मेरा है, बस इतनी कल्पनाभर से इस जीव की और विडंबना इतनी बड़ी बन गई कि जिसका कोई पार नहीं ।
केवल स्वरूप के भान बिना होने वाली विडंबना का दिग्दर्शन―नाना प्रकार के देहों में बंधकर यह जीव जन्म-मरण किया करे, अपनी सुध भूला रहे, नाना क्लेश पाता रहे, यह इस जीव की विडंबना नहीं तो और है क्या? आज थोड़ासा पुण्य पाया, मन पाया, साधन-सामग्री पाया, फूले नहीं समाते, अथवा चिंता कल्पना में ही निरंतर समय गवाते, यह स्थिति बना रखी है, पर वह स्थिति कितने दिनों की है? आखिर होगा क्या? कोई भी सत् पदार्थ समूलत: नष्ट नहीं होता । किसी भी वैज्ञानिक से पूछ लो, कहीं भी अनुसंधान कर लो, जो पदार्थ सत् है वह कभी नष्ट नहीं होता है । मैं सत् हूँ तो कभी नष्ट हो ही नहीं सकता । नष्ट नहीं हो सकता और इस शरीर को छोड़ दूंगा तो रहूंगा तो ना कुछ न कुछ । क्या रहूंगा ꠰ मैं? उसका उदाहरण है संसार के ये सारे जीव । जब हम ढंग से अपना जीवन नहीं चला रहे हें-ढंग के मायने यह है कि मैं प्रतिभासमात्र अंतस्तत्त्व को सही-सही जानूं और इसके निकट रहकर, इसकी शरण में आकर अपने आप में संतोष पाता रहूं, जब मैं इस उत्तम विधि से रहना नहीं जानता, न रहने का यत्न करता हूँ तो उसका निष्कर्ष, फल यह है सब, जैसे कि संसार में ये सारे जीव दिख रहे हैं ।
सहिष्णुता में प्रसन्न रहने की वृत्ति का सुपरिणाम―आज किसी के द्वारा जरासा भी अपमान होता है तो बरदास्त करने की प्रकृति नहीं है और जब कोई पशु बनकर घोड़ा, बैल, बकरा, बकरी आदि बनकर मालिक के आधीन रहूंगा, जहाँ बांध दिया वहीं बंधे हैं, कुछ कर नहीं सकते, जहाँ जोत दिया जुत गए, कहीं भाग नहीं सकते । कार्य करते रहने पर भी मालिक के मन में आया तो झट लात मार दिया, चाबुक मार दिया, अशक्त होने पर काम न कर सके तो लात, चाबुक, घूँसे आदि सहने पड़ते हैं । इतने बड़े अपमान तो सहने पड़ेंगे, पर आज की स्थिति में हम दूसरे की गाली निंदा या अन्य बातों को रंचमात्र भी सहन करने का भाव नहीं रख पाते । आज विषयसुख के थोड़े साधन जुटे हैं और उनसे अपने को बड़ा सौभाग्य समझते हैं, मेरा जैसा भाग्य किसका है, पर इस देह के छूटने के बाद जब दुःखदायी स्थितियों में भवों में जन्म होगा, निरंतर कष्ट ही कष्ट होने तो बे कष्ट तो सह लिए जायेंगे, पर यहाँ धर्म के नाम पर संयम के नाम पर थोड़ा भी कष्ट सहा नहीं जाता । जो एक जैन शासन के भक्तों के लिए साधारण आचार है―अनेक बार न खाना, बाजार में चलते-फिरते न खाना, जिस चाहे अनुचित जगह में न खाना, रात्रि में न खाना, अभक्ष्य पदार्थ न खाना, ऐसी नियम की बात आने पर बड़ी शं का और बड़े प्रश्न होते हैं कि कैसे गुजारा चलेगा? बाहर जायेंगे तो कैसे गुजारा चलेगा? काम करके रात को आ पाये तो कैसे न रात को खा लें? अरे जब मरण के बाद दुःखमयी ऐसी स्थितियां मिलेंगी तब वहाँ कैसे गुजारा कर लोगे?
व्यवहारधर्मों का प्रयोजन केवलस्वरूप निरखने की पात्रता कायम रखना―ये सब जितने भी व्यवहारधर्म हैं व्रत, तप, संयम, नियम प्रतिज्ञा, ये सब केवल एक कार्य के लिए हैं, अपने आपको केवल अनुभव करने के लिए । धर्म का दूसरा कोई प्रयोजन ही नहीं । सर्व कार्यों में केवल एक यही उद्देश्य है कि मैं अपने को केवल जिस सहज अस्तित्व से हूँ, प्रतिभासमात्र अनुभव कर लूं, इस अनुभूति में भार चिंता विकल्प क्लेश कुछ भी तो नहीं है । इस आनंदामृत को छोड्कर कल्पना किए गए परिजनों के लिए, बच्चों के लिए रात-दिन व्यय रहना, चिंता करना, सोचते रहम वैभव बढ़ाने की धुन रखना, यह सन अपने आपके प्रभु पर कितना बड़ा भारी अन्याय है, जिससे कि हम इस केवल की सुध नहीं ने सकते । हमारा कर्तव्य है कि हम वत तप नियम संयम से मन को वश करें और केवल प्रतिभासमात्र स्वरूप की दृष्टि के बल से अंतस्तत्त्वानुभव के आनंद में रहें ।
केवल स्वरूप के निरीक्षण से सिद्धसमान स्वरूप का परिचय―सिद्धसमान हूँ मैं यह कब जाना जाता? जब केवल के नाते से अपनी और सिद्ध की परख होती है । सिद्ध भगवान की परख भी इस ढंग से करे कोई कि सिद्ध प्रभु लोक के अग्र भाग में विराजे हैं । तनुवातवलय में भी सबसे ऊपर विराजे हैं । एक में अनंतसिद्ध विराजे हैं । एक में एक ही रह रहा है, वह सिद्धस्थान मनुष्यलोक प्रमाण है आदिक रूप से भी हम सिद्ध की महिमा जानें तो इससे उनकी निजी महिमा नहीं जान सकते । प्रभु की महिमा जानने का उपाय तो यही मात्र है कि उनके केवल स्वरूप को देखा जाय । ज्ञानगुण की 5 पर्यायें बतायीं हैं―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान और 5वीं पर्याय का नाम है सकलज्ञान । ज्ञानावरण कर्म का सर्व क्षय होने पर कैसी परिणति होती, वह पर्याय बताना, परिणमन बताना कि ज्ञान का वहां कैसा विलास है, यह है सकल ज्ञान, जिस ज्ञान में त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ ज्ञात हो रहे हैं, किंतु वह सकल ज्ञान हुआ कैसे और सकल ज्ञान की स्थिति में है किस प्रकार यह, इतनी बात शीघ्र समझ में आ जाय और उद्देश्य में पहुंच जाये इसके लिए उस सकल ज्ञान का नाम रखा है केवल ज्ञान । केवल सिर्फ ज्ञान ही ज्ञान है ।
अपने निरखने और निखरने की पद्धति―हम ज्ञाता द्रष्टा मात्र रहने का यत्न करें, झट अपने को संबोधते जायें, किन्हीं भी प्रसंगों में अपने आपको संबोधते रहें―तू तो केवल प्रतिभासमात्र सत् है, इससे अधिक तू कुछ नहीं है । निहार ले, इससे आगे तो कल्पनायें करके अपने को बहुरूपिया बना रहा है । तू तो एकरूप है, तो उस बहुरूपिया की कल्पना करके एकरूप प्रतिभासमात्र अपने आपकी प्रतीति करे तो इस नाते से यह परख सकता है कि मम स्वरूप है सिद्ध समान । अपने आपको तो माना किसी पर्यायरूप बहुरूपिया के ढंग से और उसमें फिर यह कहा कि मेरा स्वरूप सिद्ध के समान है तो इसका अर्थ है कि अपन तो खुद गये बीते रुलते रहे, गिर रहे हैं साथ ही भगवान को भी इसमें पटक दिया, वह भी मेरे ही समान है, पर इनकी इस मजाक से सिद्ध प्रभु में कोई आंच नहीं आयी, आंच इन्हीं मजाकियों पर आयी । मैं सिद्ध प्रभु के समान हूँ, यह बात तब ही विदित हो सकती, जब मैं अपने आपको कैवल्य के नाते केवल ही केवल अपने स्वरूप को निरखूँ, समझूं, उपयोग लगाऊं । तो जहाँ शरीर का भान न रहे और रोमांच होता हुआ शरीर बना रहे, जहाँ केवल प्रतिभासमात्र अपने को निरखें तो उस समय सत्य अद्भुत अनुपम आत्मीय आनंद जागता है, तब उस अनुभव के बाद फिर विदित होता है कि ओह ! सिद्ध भगवान इस तरह का आनंद निरंतर लिया करते हैं । इससे भी उत्कृष्ट आनंद अव्याबाध है उनका ।
सिद्ध प्रभु के कृतार्थता की अनुभूति का अनंत आनंद―कुछ लोग तो यह प्रश्न किया करते है कि सिद्ध भगवान को सुख किस तरह मिलता होगा? क्या सुख है? जिनकी कल्पना में यह बसा हुआ है कि सुख तो इंद्रियजंय हुआ करता है । यहाँ शरीर भी नहीं, कुटुंब भी नहीं, धर द्वार भी नहीं, तो वे क्या सुख पाते होंगे? अरे यहाँ भी जो कुछ आप सुख पा रहे हैं वह घर के कारण नहीं पा रहे, कुटुंब के कारण नही पा रहे, वहाँ भी आप कल्पनायें करके सुख पा रहे हैं । उन कल्पनाओं के बीच भी जिस-जिस क्षण कृतार्थता का परिणाम होता है उस-उस क्षण कुछ-कुछ सुख प्राप्त होता है । यहाँ भी सुख कल्पनायें करने से नहीं मिल रहा, किंतु कल्पनायें कर चुकने पर जो चित्त में एक यह दृष्टि बनती है कि अब मेरे करने को काम नहीं रहा, इस निर्भारता का कुछ सुख अनुभव में आता है । हर एक कल्पना के बीच बात तो यही होती रहती है कि अब मेरे को कार्य कुछ नहीं है । सिद्ध प्रभु के पूर्ण कृतकृत्यता प्रकट हुई है सो प्रभु के कृतार्थता की अनुभूति का अनंत है आनंद ।
सिद्ध प्रभु के विविक्तता की अनुभूति का अनंत आनंद―संबंध मानने के बीच-बीच भी स्वभावत: ऐसे क्षण आते हैं कि जहाँ संबंध मानने की बात शिथिलसी होती है । सुख तो मिलता है उस पद्धति के कारण, पर चूँकि इसका आकर्षण है परपदार्थों में, सो मानता है कि सुख मिला है संबंध के कारण । जिसको इष्टवियोग हुआ है वह बहुत वेग से और बहुत काल तक रोता रहता है, क्योंकि दृष्टि में यह बनाया है कि वह मेरा इष्ट था और गुजर गया । ऐसा सोचते-सोचते कुछ समय बीतने पर जब थक जाता है और उस सोचने की कमी आती है तो वहाँ कभी जो एक असंबंधप्रतीति का क्षण आता है सुख तो हुआ उसे के कारण, पर यह उसको पकड़ नहीं सकता कि यह सुख इस विवक्तता के आंशीक विलास के कारण से हुआ । जितने भी अब भी सुख होते हैं वे असंबंध और काम करने को नहीं पड़ा, इन दृष्टियों से हुआ करते हैं । किंतु लोग चूँकि परद्रव्यों के लोभी हैं और इस यथार्थता की प्रतीति नहीं है सो इस तथ्य का परिज्ञान न करके यह मान रहे हैं कि मुझ को सुख हुआ है, तो इस संबंध से और इस कार्य से हुआ है । इस तथ्य का जिन्हें परिचय है वे सिद्ध भगवान के स्वरूप में कोई संदेह ही नहीं करते । सिद्ध प्रभु का किसी भी बाह्य पदार्थ से रच संबंध नहीं हे, उपयोगकृत भी संबंध नहीं है और वे अपने स्वभाव से अपने में उत्पाद व्यय ध्रौव्य करते रहते हैं, इससे आगे वस्तु का काम ही नहीं है । इसी कारण वे परिपूर्णं ज्ञानी हुए हैं सौ वे निरंतर अपने आप में भरे हुए आनंद का अनुभव किया करते हैं । तो प्रभु में यों अनंत ज्ञान है, अनंत आनंद है और ज्ञान का सहभावी अनंत दर्शन है और इन सबको सम्हालते रहने की अनंत शक्ति है । ऐसे व्यक्त अनंत चतुष्टयमय सिद्ध प्रभु के समान सहजानंद चतुष्टय स्वभावमय मुझ आत्मा का अंत: स्वरूप है ।
आत्मा व परमात्मा में अनंतज्ञान स्वभाव की समानता―अष्ट कर्मों का ध्वंस करके अथवा अपने आपके शुद्धोपयोग को सम्हाल करके जिसके कारण अष्ट कर्मों का ध्वंस स्वयमेव हो जाता है, जिन संत आत्माओं ने शरीररहित होकर कर्मरहित होकर रागादिकविकाररहित होकर उर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अंत में अवस्थान पाया है, ऐसे समस्त अनंत सिद्धों में जो अनंत ज्ञान पाया जाता है वह कहीं अन्य चीज नहीं है, अन्य जगह से आया हुआ विकास नहीं है, अनंतज्ञानस्वभाव आत्मा में अनादि से है । वही अनंतज्ञान स्वभावबाधक आवरणों के अभाव से स्वयं प्रकट हुआ है । जिस अनंतज्ञान स्वभाव का आधार लेकर सिद्ध का अनंतज्ञान प्रकट हुआ है वह आधार, वह अनंतज्ञानस्वभाव हम में उस ही प्रकार है जैसा कि सिद्ध में है । सिद्ध भगवंत में प्रतिक्षण केवलज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं, वहाँ विसदृश परिणमन नहीं है यहाँ भी आधार तो वही है, शाश्वत है, किंतु छद्मस्थ अवस्था होने के कारण हमारी दृष्टि अपने आपके स्वभाव का आधार बनाने की नहीं बन रही है । इससे अंतर आया है सिद्ध प्रभु में और मुझ में ।
आत्मा व परमात्मा में अनंतदर्शन स्वभाव की समानता―प्रभु में जो अनंतदर्शन प्रकट है वह कहीं अन्य जगह से आया हुआ नहीं है, किंतु अनंतदर्शन स्वभाव आत्मा में है, उसका आधार लेकर, आलंबन करके अनंतदर्शन प्रकट हुआ है, ऐसा अनंतदर्शन स्वभाव ही बाधक आवरणों के अभाव से इस व्यक्त अनंत दर्शन की स्थिति में हुआ है । जिस अनंत दर्शन स्वभाव का आधार लेकर सिद्ध भगवंत अब भी प्रतिक्षण केवल दर्शन परिणमन से परिणमते रहते हैं वह आधार हम में भी है, किंतु हम उस आधार का आलंबन नहीं ले रहे हैं । कहीं बाह्य दृष्टि बन रही है, यहाँ नहीं समाया जा रहा है, यहीं अंतर है । पर मूलस्वभाव को देखा जाय तो जो अनंतदर्शन स्वभाव सिद्ध में है वही अनंतदर्शन स्वभाव हम आप सब जीवों में है ।
आत्मा व परमात्मा में अनंतानंदस्वभाव की समानता―ऐसे ही प्रभु में जो अनंत आनंद व्यक्त हुआ है वह अनंत आनंद किसी बाहरी जगह से नहीं आया । उसका कुछ भी लगार लेश आधार न हो और एकदम प्रभु में अनंत आनंद आया हो ऐसी बात नहीं है, किंतु अनंतानंदस्वभाव इस जीव में शाश्वत ही है । अनंतानंदस्वभावी इस चित्तत्त्व का उन संतों ने आलंबन लिया जिसके प्रसाद से अनंत आनंद व्यक्त हुआ है । जिस अनंत आनंद स्वभाव का आधार लेकर अब भी अनंतानंदस्वभाव हम आप सबमें है ।
आत्मा में परमात्मस्वभावसाम्य होने पर भी भिखारीपन और अज्ञान पर आश्चर्य―यों इस स्वभाव दृष्टि से हमारा और सिद्ध का स्वरूप समान है, परंतु आज हम आप पर क्या बीत रही है कि भिखारी बने हुए हैं, अज्ञानी बने हुए हैं । भिखारी कहते उसे हैं जो दूसरों से भीख मांगे । जैसे यहाँ भिखारी लोग नजर आ रहे है । भीख मांगने का मतलब क्या है, भीख मांगने का मूल आधार क्या है? आशा । आशा लगी है कि यहाँ दो रोटियां मिल जायेंगी । यहाँ से कुछ पैसे मिल जायेंगे । इस आशा से भिखारी लोग घर-घर भीख मांगते हैं । यहाँ सभी संसारी जीव और कर क्या रहे हैं ? इन्हें परपदार्थों से आशा लगी है सो प्रत्येक पदार्थ के निकट पहुंच-पहुंचकर उन पदार्थों से सुख-शांति की भीख मांगा करते हैं । यों संसार के प्राणी भिखारी हो रहे हैं और निपट अज्ञानी बन रहे हैं । जिनको अपने आपके ज्ञानस्वरूप की सुध नहीं है, जो इस आनंदमय निज ज्ञानतत्त्व में समाये जाने की बात सोचते नहीं हैं, जिनके ज्ञानप्रकाश में यह मार्ग आया भी नहीं है वे लोग चाहे कितने ही चतुर बन गए हों, पर उनकी चतुराई का उपयोग क्या? बाह्य पदार्थों में आकर्षित होना और उनमें सुधार बिगाड़ करने की कल्पनाओं के विकल्पों में अपने क्षण गवाना, यहाँ कुछ मिलना नहीं है, अपना कुछ विकास होना नहीं है । इन व्यर्थ के झंझटों में उधेड़बुन में लगना यह क्या कोई विवेक का काम है? यह तो प्रकट अज्ञान है । तो हम आपका स्वरूप इतना पावन सुगम स्वयं स्वाधीन आनंदमय होकर भी आज जो स्थिति बीत रही है कि हम परपदार्थों के भिखारी बन रहे हैं और यही अज्ञान में सदा लगे रहते हैं यह सब है इस आशा पिशाची का परिणाम ।
इस असार संसार में शान दिखाने की व्यर्थता―यह दिखती हुई दुनिया जिसके लिए शान बगराई जा रही है यह दुनिया क्या है? प्रकट मायास्वरूप, कर्म के प्रेरे नाना देहों में बंधने वाले जीवलोकों का समूह, जो स्वयं अशरण हैं, स्वयं दुखी हैं । यह है मायामयी दुनिया, और फिर इस दुनिया का क्षेत्र कितना है? अनगिनते योजनों का, जिसकी कोई संख्या ही नहीं है । 343 घनराजू प्रमाण इतनी बड़ी दुनिया जिसके समक्ष परिचय वाली दुनिया कितनी है? जैसे बहुत बड़े स्वयंभूमरण समुद्र के आगे जल की एक बूंद, इतनी बड़ी दुनिया में यह परिचय की दुनिया है, और फिर यहाँ कितने समय रहना है? सारा समय कितना होता है? अनंत । क्या कोई ऐसा सोच सकता है कि कोई ऐसा समय था कि जिसके पहिले कुछ समय ही न था, क्या कोई ऐसा सोच सकेगा कि कोई ऐसा समय आयगा कि जिसके बाद फिर समय ही न रहेगा? इतना अनंतकाल, जिसके सामने हम आपका यह 10-20-50 वर्ष का समय कुछ गिनती भी रखता है क्या? उसके लिए तो यह दृष्टांत भी काफी नहीं बन पाता कि स्वयंभूरमण समुद्र के आगे जल की एक बूंद । अनंतकाल के सामने वर्षों की क्या बात? एक दो कल्पकाल भी कुछ गिनती नहीं रखते । तब समझ लीजिए कि कितनी देर के लिए कितने से क्षेत्र में, किन लोगों में हम अपना कुछ बताना चाहते हैं? अरे बताने की चक्कर छोड़ो । लोक में शान इज्जत बनाने का विकल्प तोड़ो । अपने आपके इस चैतन्य महाप्रभु की रक्षा करो जो तुम्हारे आनंद का धाम है, जिसके प्रसाद से तुम्हारा भला हो सकता है उस कारण परमात्मतत्त्व की सुध लो ।
ज्ञान खोये जाने की महती विपत्ति―यह आत्मा स्वरूपदृष्टि से सिद्ध के समान है किंतु आशवश खोया ज्ञान । ज्ञान खोने के बराबर कोई दुःख नहीं है, जिसे लोग दुःख कहा करते हैं यह तो उनके पुण्य का ऊधम है । जरा साधन अच्छा मिला, ठाठ से रहने को मिला तो जरा-जरासी बात में कल्पना करके दुःख बना लेते हैं । जैसे चलते जा रहे हैं, किसी ने रामराम न किया तो यह पुण्य वाला पुरुष, अज्ञानी पुरुष व्यर्थ कल्पनायें करता है कि अब लोग इतना उद्दंड हो गए, ये देहाती भी राम-राम करना भूल गए―अरे भाई पहिले तुम्हीं राम-राम कर लो, जीव तो सब समान हैं, लेकिन पुण्य के ये सब ऊधम हैं । जितने भी दिखावट, बनावट, सजावट आदि के ऊधम आज किये जा रह हैं करलो, पर ये ऊधम सदा न निभेंगे । ज्ञान खोने के बराबर और कोई विपत्ति नहीं है, जिनका ज्ञान सावधान है, जो अपने ज्ञानस्वरूप की सम्हाल रखते है उनका वह ज्ञान है । जो ज्ञान अपने आपका भी स्वरूप नहीं समझ सकता, अपने आपका भी अनुभव नहीं कर सकता वह ज्ञान, ज्ञान नहीं है बल्कि अज्ञान है ।
प्रतिभासमात्र व अमूर्त आत्मस्वभाव की अनुभूति का विधान-―देखिये अपना स्वरूप सम्हालने के वास्ते आत्मा का अनुभव करने के अर्थ आप यदि लगन से केवल दो पद्धतियों में ही आत्मा का चिंतन करेंगे तो आत्मानुभव में सफलता पायेंगे । अपने आपका चिंतन करने से आप उस अंत: आनंद धाम में पहुंच सकते हैं, जिसके कारण ऐसी उत्कृष्ट प्रसन्नता होगी कि आप अपने आपको कृतार्थ करेंगे । इस कृतार्थता के अनुभव से बढ़कर अन्य कोई साम्राज्य नहीं । अपने को अमूर्त चिंतन करने से इस मूर्त देह का भी भान नहीं रहता । वहाँ निरखें अपने को केवल जाननमात्र, प्रतिभासमात्र । तो अमूर्त और प्रतिभासमात्र इन दो पद्धतियों से अपने आपके अंत: उपयोग को ले तो जाइये, वह आनंद प्रकट होगा, वह प्रसाद होगा कि जिसके प्रताप से आप तुरंत यह निर्णय कर लगे कि मेरे करने को तो बस यही एक काम है, दूसरा कोई काम ही नहीं है ।
आत्मा की कामवशता पर खेद―इस ज्ञानस्वरूप की सुध न रखने से ये जीव निपट अजान बन रहे हैं । इन सबका कारण है आशा । आशा होती है पंच इंद्रिय और मन के विषयों संबंधी । जले मरे मुर्दा समान देह को लगाये हुए यह जीव स्पर्शन इंद्रिय के वश होकर अपने आपके सारे लाभ को भूलकर एक जैसी कल्पना उठी उसके आधीन बनकर अपने क्षण गंवा देते हैं । परजीवों से स्नेहभाव बढ़ाते हैं और हिम्मतभर ऐसे वचन कहते हैं कि कसर न रह जाय, पूरा स्नेह इसको विदित हो जाय और यह मान जाय कि हम पर इनका पूर्ण स्नेह है । अरे ! स्नेह की बात करने वाले पुरुषों ! क्या यह विदित नहीं हे कि तिल में तेल है तो उस तेल के कारण तिल की क्या दुर्दशा होती? पानी में भिगोया जाता, ऊपर का छिलका छील दिया जाता, कनी में पेलकर कचूमर निकाल दिया जाता है । तो ऐसे ही स्नेह में आदर रखने वाले लोग अपने आपका कचूमर नहीं निकाल रहे हैं क्या? कायर बने, अविवेकी बने, अपने आपका कुछ गौरव विदित ही नहीं रहता ।
ज्ञान और वैराग्य के लिये ही जीने का ज्ञानी के संकल्प―यह सुविधा क्या परजीवों से स्नेह बढ़ाने के लिए है? हमारा यह नर जीवन क्या दूसरे जीवों से स्नेह बढ़ाने के लिए है? अरे स्नेह बढ़ाया, स्नेह लगाया तो क्या पा लोगे? वियोग तो होगा ही । रहने का तो कुछ है नहीं । न परिजन, न मित्रजन, न धनवैभव, साथ तो कुछ रहने का है नहीं । फल यह होगा कि जो पाप कमाया, जो पाप बंध किया, उनके कारण जन्म जंमांतरों में क्लेश सहने पड़ेंगे, जन्म संतति खलेगी । ज्ञान और वैराग्य के विकास के लिए अपना जीवन है । बस यही एक अपना निर्णय रखिये, दूसरे काम के लिए मेरा जीवन नहीं है । लोग सोचते है कि जिस किसी प्रकार से धन वैभव का खूब संचय कर लें और इस ही धुन के कारण न धर्म के लिए समय है, न रुचि है और न अंत: कोई प्रेरणा जागृत होती है । भरे दुनिया के लोगों को देख लो―धन संचय कर करके आखिर उनको लाभ क्या मिलता है? हानि तुरंत यह है कि ऐसे परम पावन उत्कृष्ट निज परमात्मतत्त्व के दर्शन नहीं हो पाते जिससे कि यह नर जीवन सफल हुआ करता है । यह भव ज्ञान और वैराग्य के विकास के लिए है, अन्य कार्य के लिए नहीं है ।
रसना और जाण इंद्रिय के वश होने का खेद―आशा के वश होकर लोग सरस भोजन करने की भी धुन में बने रहते हैं । कितना व्यर्थ का विकट ख्याल । क्या होता है इससे? जो शरीर जला दिया जायगा, जिससे कोई प्रीति करने वाला नहीं, स्वय के लिए जो अनेक क्लेशों का कारण है, उसकी तृप्ति करने के लिए सरस भोजन की धून बनाना यह एक ऐसी व्यर्थ की कल्पना है कि जिसकी ओट में सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन नहीं हो पाते । कितनी ही आशायें ऐसी व्यर्थ की हुआ करती हैं कि जिनसे न इस जीवन की उन्नति का संबंध है और न परलोक की उन्नति का संबंध है । कितने ही लोग घ्राणेंद्रिय के विषय की आशा में समय गंवाते हैं । इतनी तरह के इत्र, ऐसे-ऐसे फूल, ऐसी सुगंध होने चाहिए, उसमें रत रहते हैं । सुगंधित तैल इत्र शिर में लगायें, माथे में लगायें, कानों में लगायें, कोट कमीज आदि में लगायें, यों अनेक तरह से सुगंध लेते हैं । अरे इन आशावों में, इन व्यर्थ की कल्पनाओं में रहकर अपने आपकी सुध नहीं ली जा सकती । विरक्ति से ही ज्ञान का अनुभव पाया जा सकेगा । राग से, आसक्ति से अपना कुछ नहीं पाया जा सकता ।
चक्षु और कर्ण इंद्रिय के वश होने का खेद―रूप के अवलोकन की बात देखो-दूर से ही रूप का बिना होता है, लाभ कुछ नहीं मिलता, हाथ कुछ नहीं लगता, वह तो एक अलग पर्याय है, पर कैसी कल्पनायें बना लेता है यह जीव । सनीमा हालों में बड़ी भीड़ रहा करती है, और-और भी समय, न जाने कहां-कहां इसकी दृष्टि, इसकी धुन रहा करती हैं । व्यर्थ की वे बातें हैं जिनसे न इस ही जीवन की उन्नति का कुछ संबंध है और न परलोक की उन्नति का कुछ संबंध है । ऐसे ही राग-रागनीभरे शब्द सुन लिया, उसमें हो गए विभोर । अरे तो उससे लाभ क्या पाया? अपने आप में विराजमान सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन से तो वंचित हो रहे ꠰
मन के अनुसार स्वच्छंदप्रवर्तन का खेद―मन के विषय की तो कहानी ही क्या कहें―इस मन ने तो सभी संज्ञी जीवों को हैरान किया । क्या-क्या चाहते है दुनिया में रहकर लोग? इसका यदि विश्लेषण हो तो ? उसमें सार रंचमात्र भी नहीं निकलता । जैसे एक कथानक है कि कोई संन्यासी लड्डू लिए हुए चला जा रहा था । रास्ते में उसके हाथ से छूटकर लड्डू नीचे जमीन में गिर गया । वह शौच की हुई जगह थी । पर लड्डू में आशक्ति होने के कारण सन्यासी ने वह लड्डू उठा लिया, पर उसे कुछ भान हो गया कि हम को इस जगह से लड्डू उठाते हुए कुछ लोगों ने देख लिया है, सो उस बात को ढांकने के लिए संन्यासी ने उस शौच वाली जगह पर कुछ फूल डाल दिये । लोगों ने देखा कि महाराज ने इस जगह फूल चढ़ाये हैं, इस जगह कोई देवता होगा । यह सोचकर उन लोगों ने भी उसी जगह फूल चढ़ा दिया । यों ही अन्य बहुत से लोगों ने भी उस जगह देवता समझकर फूल चढ़ाया । यों उस जगह फूलों का एक बहुत बड़ा ढेर लग गया । अब वहाँ देखो अगर कोई तथ्य उस जगह समझना चाहे तो फूलों को उस जगह से निकाल-निकालकर फेंक दे । सार वहाँ क्या मिलेगा कुछ भी नहीं, और प्रवृत्तियां कितनी अधिक हो गयीं । इसी तरह मन की जो इच्छायें चलती हैं, जिनके कारण हम अनेक प्रवृतियां किया करते हैं, अगर वहाँ विश्लेषण करके देखा जाय तो क्या मिलेगा? वहाँ रंचमात्र भी सार नजर न आयगा । लेकिन जीव आशा के वश होकर, ज्ञान खोकर भिखारी बने हैं, निपट अजान बने हैं । एक उस अमूर्त प्रतिभासमात्र अंतस्तत्त्व के दर्शन से ये सारे संकट दूर हो सकते हैं ।
आशा की तरंग के क्षोभ का क्लेश―जीव को क्लेश है तो मात्र आशा की तरंग के उत्पन्न होने का है । जिस जीव को ऐसी तरंग उत्पन्न नहीं होती, चेतन अचेतन किसी भी पदार्थ के संबंध में आशा भाव नहीं जागता, किसी प्रकार का राग या उनसे अपने लिए कुछ चाहने की बात नहीं होती है, वह पुरुष स्वयं ही आनंदमय है । आनंद में बाधा डालने वाली यह आशा है । जैसे समुद्र बहुत शांत अवस्थित है, उसमें क्षोभ मचाने वाला कोई पत्थर को पटक देता है, पत्थर पट का गया तो लो, तभी उसमें भंवर, लहर हुई । यों ही यह आत्मा ज्ञानी है, ज्ञानज्योति से लबालब भरा हुआ है ꠰ इसके अंदर में प्रदेशमात्र का भी ज्ञानघनता में अंतर नहीं ꠰ ऐसे ज्ञानघन शांत गंभीर इस आत्मा में जैसे ही आशा का पत्थर गिरा कि झट तरंग उठी, और यह आत्मा अपने आपको खलबला कर बरबाद होता है, अशांत होता है । जरूरत क्या पड़ी है कि किसी पदार्थ की आशा का भाव चित्त में लाये? बहुत विवेक से अपने अंत: स्वरूप के निकट ठहर-ठहरकर निर्णय तो करिये । क्या यह आत्मा कुछ आनंद से खाली है? आनंद नहीं है इसके पास सो दूसरे से आनंद मिल जायगा एतदर्थ ही किसी की आशा की जायगी, सो इस संबंध में प्रथम तो यह बात हे कि आत्मा में यदि आनंदस्वभाव न होता तो कितने भी निमित्त जुटाये जायें, तो भी इसमें आनंद का विकृत अंश भी उत्पन्न नहीं हो सकता था । बालू में यदि तैल नहीं है तो कितना ही उसे घानियों में पेला जाय, पर क्या उससे तैल निकल आयगा? नहीं निकल सकता । फिर दूसरी बात यह है कि आत्मा के विशुद्ध आनंद का अभ्युदय इस ही स्थिति में है कि यह किसी पर की ओर अपनी दृष्टि न करे, अपना आकर्षण न बनाये । किसी भी पर के संबंध में स्नेह की बात न लाये । आशा से तो आनंद में मदद नहीं मिलती । यों आशा करना बेकार है ꠰
विषयाशा में कालनिर्यापन और उससे क्लेशवर्द्धन―भव-भव में जो-जो समागम मिले उन-उन समागमों में इस जीव ने आशा रखी, न वे समागम रहे न ये आशा की वृत्तियां रहीं और यह जीव संसार में रुलता चला आ रहा है, यह उसका फल मिला । जो चीजें 10-5 वर्ष बाद संग में रहेंगी, कुछ दिन बाद में न रहेगी, उनके लिए अभी से हिम्मत बनाकर मान ले कि ये कुछ भी चीजें मेरी नहीं हैं, उनसे मेरे में कुछ भी अभ्युदय नहीं होता है, बाधा ही होती है । छूटना तो सब कुछ है ही, पहिले से अपने को छूटा हुआ विविक्त ज्ञानस्वभावमात्र निरखते रहें तो तत्काल ही आनंद पा लिया जायगा और कर्मबंध भी इसके कट जायेंगे, अपना सार शरण सर्वस्व अपने आपके अंत: मौजूद हैं । अपनी समृद्धि किसी अन्य पदार्थ से प्राप्त होती नहीं है । ऐसे अपने इस ज्ञानस्वभाव की सम्हाल न करके ये अज्ञानी जीव पंचेंद्रिय के विषयों की और मन के विषयों की आशा कर रहे हैं, इसी कारण ये भिखारी और अज्ञानी बने हुए हैं । देखो―मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों पर दृष्टि डालकर जैसे कि अनेक जीव ऐसे हैं कि जिनको अपना कोई प्रमुख एक ही विषय सता रहा है, अन्य विषय नहीं सता रहे । और, वे एक ही विषय के सताये हुए होकर अपने प्राण गंवा देते हैं । फिर तो ये मनुष्य 5 इंद्रिय और छठा मन: इन छ: विषयों से सताये हुए हैं, इनकी क्या गति होगी?
स्पर्शनेंद्रिय के वश होकर आत्महिंसन का प्रयत्न―हाथी को पकड़ने वाले शिकारी लोग जंगल में 40-50 हाथ का लंबा, चौड़ा कुछ गहरा गड्ढा खोदते हैं, उस पर बांस की पतली पंचे बिछाते हैं और उस पर कागजों से सजाकर एक हथिनी बनाते हैं जो सच्ची हथिनी की तरह जंचती हो । साथ ही 40-50 हाथ दूर एक झूठा हाथी भी बनाते हैं, किसलिए बनाते हैं शिकारी लोग, यों कि जंगल मे रहने वाला कोई हाथी इस हथिनी को सच्ची हथिनी जानकर स्पर्शनइंद्रिय के वशीभूत होकर इस हथिनी के पास आये तो हैं क्या वहां? बांस की पंचें बिछी हैं वहाँ आते ही वह हाथी गिर जायगा और उस हाथी को कुछ सोच विचार करने का भी मौका के दिया जाय, जरा नजदीक आकर कुछ ऐसा न सोच बैठे कि जरा फूंक-फूंककर पैर धरें, कहीं यह धोखा तो नहीं है, इसके लिए बनाया है 40-50 हाथ दूर पर ऐसा हाथी कि इस सच्चे हाथी को कुट्टिनी के पास पहुंचने की जल्दी मच जाय । यह दूसरा हाथी आ जाय, इससे पहिले मैं वहाँ पहुंच जाऊं, ऐसा उस हाथी की मोह भी हुआ, राग भी हुआ, द्वेष भी हुआ । मोह तो अज्ञान है । मोह तो यों हुआ कि उस हाथी को स्पर्शनइंद्रिय की तीव्र आसक्ति के कारण ज्ञान न रहा कि है क्या यहां ? राग तो उत्पन्न हुआ ही था कुट्टिनी को देखकर, और द्वेष हुआ उस कल्पित हाथी से । तो यों मोह रागद्वेश के वश होकर हाथी गड्ढे में गिर पड़ता है । बस शिकारी का काम बन गया ꠰ दो-चार दिन भूखा रहने दिया तो वह हाथी निर्बल हो गया । अब उस गड्ढे में वह रास्ता बनाता है और अंकुश के बल पर उस हाथी को अपने आधीन करके बाहर निकाल लेता है । अथवा वह कैसी भी अवस्था पाये । तो देखो―स्पर्शनइंद्रिय के वश होकर हाथी ने अपने को विकट बंधन में डाल दिया । प्राण भी मानो गंवा दिये । तो यह किसका परिणाम है? एक स्पर्शनइंद्रिय के विषय की आशा की, उसका परिणाम है ।
आशा का विकट बंधन―कोई चिड़ीमार जंगल में जाल बिछाये था । नीचे चावल के दाने पड़े थे । चिड़िया आकर उसमें फंस गई । तो देखने वाले लोग कहते हैं कि देखो यह शिकारी बड़ा निर्दयी है, इसने चिड़िया को फांस लिया हे । दूसरा बोला―शिकारी निर्दय नहीं है यह जाल निर्दय है, इस जाल ने चिड़िया को फंसाया । तीसरा बोला―जाल ने चिड़िया को नहीं फंसाया, चावल के दानों ने चिड़िया को फंसाया । चौथा बोला―इन चावल के दानों ने चिड़िया को नहीं फंसाया, इस चिड़िया ने । जो अपने मन में आशा उत्पन्न की, इच्छा की, उसने चिड़िया को फंसाया सारा बंधन आशा का ही तो है । घर में कोई लड़ाई होती, भाई-भाई, पति-पत्नी, देवरानी-जेठानी की । लड़ने के मूड में तो वे ऐसा प्रदर्शन करते हैं ये लोग कि मानों अब वे इस घर में ही न रहेंगे । मगर होता क्या? शाम को सुलह हो जाती है । घर में रहते हैं, जायें कहां? बंधन तो लगा है आशा का । कोई पुरुष किसी काम से परदेश चला गया । तो देखो बहुत कुछ झगड़ा तो टूट गया ना, बहुत दूर चला गया । अब लोग भी सामने नहीं हैं, लेकिन चला कहां गया? आशा का बंधन तो लगा है, वह तो आयगा यहाँ ही । आशा का बंधन इतना बड़ा बंधन है । जैसे गाय का बछड़ा तीन दिन का है, एक गांव से दूसरे गांव में गाय को ले जाने वाले लोग करते क्या हैं? गाय को रस्सी से बांधकर नहीं ले जाते, किंतु बछड़े को बांधकर आगे-आगे ले जाते हैं या कमजोर हुआ बछड़ा तो उसे गोद में उठाकर ने जाते हैं । आशा का इतना तेज बंधन गाय में है कि बिना बंधी वह गाय उस पुरुष के पीछे-पीछे चलती जाती है । अरे जिससे काम पड़ता है ऐसे अपने स्वरूप को तो देखो । जिससे अपने आत्माराम का गुजारा चलता है जरा उस आत्माराम के दर्शन तो करो । वह तो अमूर्त प्रतिभासमात्र हे, उसका जगत में क्या? किसी अन्य से संबंध क्या? इसका गुजारा तो अपने आपके इस अमूर्त प्रतिभासमात्र स्वरूप के निकट रहने में ही है । बाकी तो सब विडंबनायें हैं ।
रसना इंद्रिय के वश होकर आत्महिंसन का प्रयत्न―मछलियों को पकड़ने वाले शिकारी लोग डोरी में कुछ थोड़ा कोई जीव जंतु मारकर उसका मांस लगा देते हैं जिससे मछली मांस के लोभ से बहुत शीघ्र ही आती है और मुंह फैलाकर उस मांस को ग्रहण करती है । वही था लोहे का टेढ़ा-मेढ़ा फंदा, उससे कंठ फंदे में फंस जाता है । हुआ क्या कि एक रसना इंद्रिय के विषय की आशा से, विषय के लोभ से उस मछली ने अपना प्राण गंवा दिया । यहाँ हम आप लोग रोज-रोज अपने घर खाते हैं तो खूब मनमाना जो ध्यान में आया वैसा ही मजेदार सरस भोजन बनवाते हैं । सोचते होंगे कि यहाँ तो हमारे प्राणों पर कोई फंदा नहीं डलता । रसना इंद्रिय को भी तृप्त कर लेते हैं, मौज भी मान लेते हैं पर हमारे प्राणों पर तो कोई फंदा नहीं आता । अरे तुम्हें पता भी है, तुम्हारा प्राण असली है भी क्या? आत्मा का वास्तविक प्राण है चेतना, प्रतिभासमात्र । वह प्राण तो दबुच गया है, उस चैतन्यप्राण का तो घात ही हो रहा है । कर्मबंध हो रहा है और दुर्लभ मनुष्यजन्म का समय व्यर्थ व्यतीत हो रहा है । और, जिसको रसना इंद्रिय का इतना तीव्र लोभ है वह यह न समझे कि मुझ को एक इंद्रिय के विषय का ही लोभ है । रसना इंद्रिय के विषय की आशक्ति तो एक समस्त विषयों की आशक्ति जानने का यंत्र हे । वह इन विषयों की आशा से अपने चैतन्यप्राण का घात कर रहा है । उन मछलियों को कीर्ति, नेतागिरी, यश आदिक के कोई विषय तो नहीं सता रहे । हां, वे मछलियां एक दूसरे से लड़ती भी हैं, एक दूसरे को ढकेलती भी हैं, मन उनके भी हैं, बात आती होगी चित्त में, अरे इसने मुझे तुच्छ समझ रखा, किंतु कोई बड़ी बात उन मछलियों के मन में नहीं आती जितनी कि मनुष्यों के मन में आती है । देखो ऐसी समझदार मछलियां भी रसना इंद्रिय के वश होकर प्राण गंवा देती है ।
घ्राण इंद्रिय के वश होकर आत्महिंसन का प्रयत्न―कमल का फूल, उसकी पंखुड़ी कितनी कोमल और कमजोर होती है, लेकिन उस कमल के फूल में कोई भंवरा शाम को बैठ जाय और उसकी सुगंध में इतना मस्त हो जाय कि वहाँ से हटने का ख्याल न रखे, शाम को हो जाता है फूल बंद । उस बंद कमल में वह संवरा जो कि बड़ी काठ की कड़ियों को भी छेद करके पार निकल सकता है वह आशक्तिवश कमल के अत्यंत कोमल पत्तों को भी छेदकर नहीं निकलना चाहता और उस कमल में ही छिपा हुआ अपने प्राण खो देता है । घ्राणेंद्रिय के विषय की इतनी तीव्र आशक्ति होती है । वहाँ किया क्या? आशवश खोया ज्ञान । फल क्या पाया? मरण । कोई-कोई मनुष्य सुगंध के इतने लोभी होते हैं कि उनके रहने के कमरे को, उनके पहिनने के वस्त्रों को, उनकी उन सजावटों को देखकर कोई मनुष्य ऐसा शीघ्र कह भी देते है कि ये सब इनके नखरे हैं । नखरे का अर्थ क्या? न खरे, जो खरा नहीं है, जहाँ तंत की बात नहीं है, जहाँ कोई तत्त्व की बात नहीं है उसको कहते हैं नखरे ।
चक्षुरिंद्रिय के वश होकर आत्महिंसन का प्रयत्न―रूप के अवलोकन की आशा इतनी भद्दी आशा है कि जहाँ कुछ मतलब नहीं, प्राप्ति नही, कुछ लाभ नहीं, कोई संबंध नही, लेकिन जो इष्टरूप जंचा उसके अवलोकन की आशा और प्रवृत्ति बना लेते हैं । होता क्या है? आशवश खोया ज्ञान । मैं कौन हूँ, मेरा क्या नाम है, इसका ऊपरी विवेक भी नहीं रहता, आत्मतत्त्व के विवेक की तो कथा ही क्या है? देखो दीपक के पतिंगों को कैसा रूप का लोभ है कि उनसे रहा नहीं जाता और जलते हुए दीप पर एकदम गिरते हैं । क्या पाने के लिए गिरते हैं? कितना तीव्र लोभ है, फल क्या होता है कि मर जाते हैं? क्या उनको यह बोध नहीं है कि यहाँ 10-20 पतिंगे मरे पड़े हैं क्या उन्हें दिखता नहीं हे? क्या उन्हें इतना भी बोध नहीं है कि ये मेरी बिरादरी के सारे मरे पड़े हैं? नहीं हैं उनके मन, पर मन का काम तो हित अहित का विवेक करा सकना है । मन में हित अहित का विवेक करने का सामर्थ्य है सो प्रबल ठहरा ना । सो जब उल्टा चलें तो यह मन विषयों की आशा को बढ़ा देता है । पर, मन न हो तो विषयों की आशा न हुआ करती हो यह बात नहीं है । चार संज्ञाओं से पीड़ित यह प्राणी विषयभोग विषयक तो ज्ञान कुछ ऐसा ही रखता है जैसा कि संज्ञी लोग । वे पतिंगे कुछ भी विवेक न रखकर एकदम, रूप के लोभ में दीपक पर आ गिरकर प्राण गंवा देते है । यह है क्या? आशवश खोया ज्ञान । उन मनुष्यों की भी ऐसी ही दुर्दशा होती है जो रूप के आशक्त होते है ।
कर्ण इंद्रिय के वश होकर आत्महिंसन का प्रयत्न―कर्ण इंद्रिय के वश होकर सर्प बीन की आवाज में, राग में मस्त होकर निकट आ जाते हैं । अपनी सुध भूल जाते हैं, सपेरा पूंछ की ओर से पकड़कर तुरंत ही बड़ा झटका देता है । ज्यों ही पीछे पकड़कर झटका दिया कि उसके सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं । देखो सर्प के संहनन का उदाहरण असंप्राप्तस्सर्पाटिका संहनन को दिया जाता है । तेज झटका देने से सर्प की नसें पंजर को छोड़कर शिथिल हो जाती हैं । हिरण भी इसी तरह वश में किए जाते हैं । तो एक-एक इंद्रिय के विषय के वश होकर इस प्राणी ने अपने प्राण गंवाये । और, यहाँ संसार में लोकोत्तम दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर फिर विषयों की आशा का आशय बनाये रहें तो इस मनुष्यभव से कितनी दुर्गति हो सकती है । कहीं भी किसी भी गति में चला जाय, इस मनुष्य को कोई रुकावट नहीं है । निगोद बन जाय, पेड़-पौधे बन जायें, पशु-पक्षी बन जाय, नारकी बने, कहीं भी उत्पन्न हो सकता है । किया क्या इस जीव ने? आशावश खोया ज्ञान । परिणाम क्या हुआ? बना भिखारी निपट अजान ।
स्नेह परिचयन का लोभ―परिजन को किसी को स्नेह मेरा समझ में आ जाय यह मुझ से बड़ा स्नेह रखता है, इस ही समझ का बड़ा लोभ लगा हुआ है । मिला क्या? एक अपनी यह कल्पना बना लेने से कि यह भाई मुझ को बहुत अधिक चाहते हैं । यहाँ पा क्या लिया? यों अटपट बेतुकी आशा को यह जीव करता है । यह ध्यान में नहीं लाता कि मैं क्या हूँ और क्या कर रहा हूं? इन दोनों का उत्तर अपने अंत: देखो―मैं क्या हूं? मैं वह हूँ जो हैं भगवान । मेरा स्वभाव स्वरूप क्या है? मेरा स्वरूप सिद्ध समान है । अरे हम वह हैं जिसमें किसी का लेप ही नहीं चढ़ सकता । प्रतिभासमात्र, जिसके कारण ऐसा उत्कृष्ट मेरा चैतन्यस्वरूप है जो सतत, सहज परम अनंत आनंद स्वभाव से भरा हुआ है । पर, अपने आपका विश्वास खो दिया जिसका फल यह है कि दुर्गतियों में जन्म-मरण करके आशा में ही सारा जीवन क्लेश में व्यतीत करना पड़ता है ।
संकटनिवृत्ति लिये सहज अंतस्तत्त्व की आराधना का अनुरोध―भैया ! एक हिम्मत करने की बात है, और एक बार भी सर्व परपदार्थों की उपेक्षा करके सहज स्वभाव में अपने उपयोग को लगाने की बात है । आत्मा ज्ञानी है, समझदार है । उस स्वभाव का अनुभव होने पर, आनंद का अनुभव होने पर फिर इस आत्मा में यह बल व्यक्त हो जाता है कि वह संसार के सारे संकटों से अवश्य छूट जाता है । जो उपाय सर्व संकटों से छुटाने वाला है, उस उपाय के लिए 5 मिनट भो समय नहीं देना चाहते । उस उपाय के लिए साहस बनाकर समस्त विश्व को भुलाना नहीं चाहते । देखो, चलो अपने स्वरूप की ओर, इस स्वरूप की सुध में यह सारा भिखारीपन नष्ट हो जायगा । सो इस स्वभाव की, इस स्वरूप की सुध लीजिए और अपने को कृतार्थ करिये । वह स्वरूप क्या है मेरा जिसका आलंबन लेने से सारे संकट टलते हैं? मैं स्वतंत्र हूँ, स्वभावत: निश्चल हूँ, समस्त विकारों से परे हूँ । ज्ञाता द्रष्टा ऐसा यह मैं सतत जाननहार आत्माराम हूँ ।