वर्णीजी-प्रवचन:आत्मकीर्तन - छंद 5
From जैनकोष
होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम ।
दूर हटो परकृत परिणाम, सहजानंद रहूं अभिराम ।।5।।
राग की निवृत्ति होने पर ही शांति की उपलब्धि―शांति का आधार वैराग्य है, वैराग्य का आधार ज्ञान है । क्लेश का आधार राग है । जिन्हें क्लेश न चाहिये, उन्हें यह बात नहीं भूलना है कि क्लेश मिटेंगे तो राग के छोड़ने से ही मिट सकेंगे । राग रहते हुए किसी को सुख-शांति नहीं मिली । राजुलदेवी जब तक चित्त में राग रखे रही, जंगल में गई, नेमिकुंवर से भी प्रार्थना की । यद्यपि था उसका विशुद्ध राग, पर राग था । राग के रहते संते प्रमाद न था, आवेश था, कभी राग का, कभी वैराग्य का, पर जब एकदम निर्णय हो गया कि राग छोड़कर आत्मस्वरूप में ही रत रहने से गुजारा चल सकेगा अन्यथा गुजारा नहीं । जब यह ज्ञान जगा, वैराग्य की भावना वास्तविक पूरित हुई उस समय उसका विशुद्ध प्रसाद था । सीता को भी जब तक राग था तब तक अनेक समस्याओं के बीच भी प्रसाद न मिला, प्रसन्नता न मिली । अग्नि परीक्षा के बाद एक निर्णय के साथ चल पड़ी । राग छोड़ा, विरक्त हुई, शांति प्राप्त की । सीता को भी जब तक शांति न मिली जब तक उनमें राग था ।
वैराग्य होने पर ही महापुरुष श्रीराम को शांतिलाभ―श्री राम की भी कहानी सुनो―जब तक राग था, लक्ष्मण के गुजरने के बाद भी 6 महीने तक श्रीराम ने कितनी विडंबनायें सहीं । जब किसीने समझाया―अरे तुम लक्ष्मण के इस मुर्दा शरीर को क्यों लिए फिरते हो? तो लौटकर जवाब देते―अरे हटो, तुम हमारे भाई को मुर्दा कह रहे हो । देवों ने कुछ उपाय भी किया कि लक्ष्मण के प्रति राम का अब राग तो मिटे । पहिले देवों ने पत्थर पर कमल उगाने का दृश्य रचा । राम ने उसे देखकर कहा―यह क्या कर रहे हो? अजी पत्थर पर कमल उगा रहा हूं ꠰ अरे कहीं पत्थर पर कमल भी उगा करते हैं क्या? वाह-वाह क्यों नहीं उगा करते? जब तुम मुर्दा शरीर को भोजन खिलावोगे, और वह मुर्दा शरीर भी तुम से बोल लेगा तो क्या हम पत्थर पर कमल न उगा सकेंगे? इतने पर भी श्रीराम की समझ में कुछ न आया । जब तक राग की व्याप्ति है तब तक कैसे समझ में आये? फिर दूसरी बात क्या हुई कि देवों ने कोल्हू में रेत पेलने का दृश्य दिखाया । श्रीराम बोले―भाई यह क्या कर रहे हो?....रेत को पेलकर तेल निकाल रहे है । अरे कहीं रेत से तेल भी निकला करता है क्या? हां-हां, क्यों नहीं, रेत से तेल निकलेगा? जब तुम्हारा भाई का मुर्दा शरीर भी बोल लेगा तो हम रेत से तेल क्यों न निकाल लेंगे? इतने पर भी श्रीराम की समझ में न आया । तीसरा दृश्य देवों ने क्या दिखाया कि एक गाड़ी में मरे हुए बैल जोते जा रहे थे । श्रीराम ने पूछा―भाई यह क्या कर रहे हो? अरे इन मरे हुए बैलों को गाड़ी में जोत रहा हूँ । अरे कहीं मुर्दा बैल भी गाड़ी में जुता करते हैं क्या? तो तुम्हारे भाई का यह मृतक शरीर अब बोल भी उठेगा क्या? लो श्रीराम की समझ में आ गया । अब उस यथार्थ समझ के साथ श्रीराम को जो प्रसन्नता हुई वैसी प्रसन्नता उन्होंने जीवन में कभी भी न पायी थी । और यह भी देखिये इस प्रसंग में वे देव जो समझाने आये थे कौन थे? कृतांतवक्र का जीव व जटायु पक्षी का जीव, जो राम से उपकृत भी हुए थे और राम के भक्त भी थे ।
ज्ञानधारी वैराग्य की प्रबलता―ज्ञान और वैराग्य की सिद्धि होने पर जो आत्मा में प्रसाद उत्पन्न होता हे उसकी तुलना किसी भी अन्य सुख से नहीं की जा सकती । क्लेश दूर करना है तो उसका उपाय है कि राग को दूर किया जाय । राग दूर करना है तो उसका उपाय है सम्यग्ज्ञान उत्पन्न किया जाय । भावावेश में पाया हुआ वैराग्य एक आधारवान नहीं होता और ज्ञान के आधार पर आया हुआ वैराग्य प्रबल और पुष्ट होता है । तो कुछ जरा वैराग्य के आधारभूत ज्ञान की ओर चलो-सम्यग्ज्ञान उसे कहते हैं कि जो पदार्थ जिस प्रकार से अवस्थित है उसको उस प्रकार से जानना । तो पदार्थ किस तरह से अवस्थित है? पहिले तो यह जानो कि जो भी है वह अपने आपके पिंड से है, अपने आपके क्षेत्र से है, अपने आपके परिणमन से है और अपने आपके स्वभाव से है । इसे कहते हैं अंतर्व्याप्यव्यापकता । अपनी ही बात अपने में अपने को समायी हुई हो ऐसा संबंध है पदार्थ का अपने आपके स्वरूप के साथ । यदि ऐसा न होता तो जगत में आज कुछ भी न रहता । एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थरूप बन जाय तो फिर वह पदार्थ ही न रहेगा । ये सभी पदार्थ अवस्थित हैं यही प्रबल प्रमाण है कि प्रत्येक पदार्थ कभी अपने स्वरूप से चिगता नहीं है । सुधरने, बिगड़ने आदिक की जो भी क्रियायें होंगी वे सब उस ही पदार्थ में होंगी जिसका सुधार बिगाड़ हो रहा हो ।
स्वयं का स्वयं में परिणमन मानने के तत्त्वज्ञान का प्रभाव―कम से कम इतना तो स्पष्ट जान लेना चाहिये कि जगत के पदार्थों का परिणमन उनका अपने आप में होता है । निमित्त नैमित्तिकभाव है, पदार्थ जब विकृत होता है तब दूसरे पदार्थ के कारण विकृत होता है, लेकिन कोई भी दूसरा पदार्थ उस दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं कर पाता एक दृष्टांत लीजिए―किसी बालक ने अंगुली मटकायी तो दूसरा बालक जो 20 हाथ दूर खड़ा हुआ था वह चिढ़ जाता है और दुःखी होता है । तो क्या उस बालक ने दूसरे बालक को दुःखी कर दिया? अरे वह बालक तो अपने में अपनी क्रियायें कर रहा था, पर वह दूसरा बालक अपने में अपनी कल्पनायें बना बनाकर स्वयं दुःखी हो गया । तो जैसे एक बालक ने उस दूसरे बालक में कुछ नहीं किया, इसी तरह एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं करता, कर ही नहीं सकता, फिर भी यह जीव दूसरे पदार्थ के प्रति कल्पनायें बनाकर स्वयं हैरान हो जाता है ।
पर से जीवन कीर्ति आदि की आशा करने की गंदी भीख―हम आप लोग जिन लोगों के बीच में बस रहे हैं उन्हीं में ऐसी आशा लगाये हुए हैं कि इन्हीं के द्वारा ही हमारा जीवन चल रहा है । इनसे ही हम को सुख मिल रहा है । न जाने कितनी-कितनी बातें अपने मन में लगाये हुए हैं । अरे यहाँ के ये कोई भी समागम काम न देंगे, ये सब छूट जायेंगे । यहाँ से मरण करके जिस अगले भव में जावोगे, वहाँ जो कुछ मिलेगा वहाँ की विकार की बात तो उससे चलेगी । यदि यहाँ अपने स्वरूप को, अपने आचार―विचार को, अपने ज्ञान को सम्हाल लिया जाय तो आत्मा में वह बल होगा कि यहाँ से मरण कर जाने के बाद अगले भव में भी वे सब धार्मिक प्रसंग मिलेंगे और ज्ञानबल बराबर रहेगा जिससे वहाँ भी शांत रह सकेंगे । यहाँ लोग कीर्ति की चाह करते हैं । अरे इस कीर्ति की चाह के समान गंदी भीख किसे कहा जाय? जब यहाँ कुछ रहेगा नहीं तो उस कीर्ति की चाह से लाभ क्या? न कीर्ति चाहने वाला यहाँ सदा रहेगा और न जिन में कीर्ति की चाह की जा रही हैं वे सदा रहेंगे तो फिर कीर्ति की चाह करने से लाभ क्या? तब किसी भी बात की कीर्ति की आशा रखना, यह भी हमारी प्रगति में बहुत बाधक है । यदि हम अपना सत्यज्ञान पाये हैं और एकदम कल्याण करने के लिए दृढ़ संकल्प किए है तो बड़े साहस के साथ किसी भी क्षण सबको भूलकर एक केवल बड़ी धीरता से अपने आपके अंदर ज्ञानज्योति से ज्ञानज्योति में समाये हुए थोड़ा एक निर्विकल्प पद्धति से कुछ विश्राम करें तो जो सारभूत तत्त्व है, आनंद का धाम है अथवा कहो―प्रभु है उसके दर्शन होंगे । यह काम यदि न कर सके तो जीवन में सब कुछ करने के बाद भी कहा जायगा कि कुछ नहीं किया । इसका संबंध है अपने साथ, अपने भविष्य के साथ, संसार और मुक्ति जैसे अंतर वाले निर्णय के साथ । ये मिले हुए समागम कुछ भी काम न आवेंगे, काम तो आयगा केवल अपने आपका ज्ञान और वैराग्य ।
पर से पर के संपन्न होने की भ्रांति―अब वस्तुत्व दृष्टि से देखिये कि जगत का परिणमन स्वयमेव हो रहा है अर्थात् उसका उसके उपा-दान से हो रहा है । लोगों को यह भ्रम है कि हम ही परिजनों को पालने पोषने वाले हैं । हमारे ही प्रयत्न से, हमारी चतुराई से परिजनों का पालन-पोषण हो रहा है । ऐसा सोचना तो उनका मिथ्या है । और, यह बात संभव है कि ऐसा सोचने वाला व्यक्ति जब तक घर में है तब तक तो कहो बड़ी गरीबी से गुजारा चले, और जब वह घर से बाहर हो जाय तो कहो ऐसे-ऐसे योग जुड़ जायें कि विशेष आय होने लगे और बे परिजन पहिले से बहुत अधिक संपन्न हो जायें । अरे सबका भाग्य सबके साथ हैं । बल्कि कमाने वाले और बहुत-बहुत फिकर रखने वाले व्यक्ति से भाग्य तो उन घर वालों का बड़ा है जिनके पीछे रात-दिन इतनी चिंतायें की जा रही हैं ꠰
पर का पर से पालन न होने का एक दृष्टांत―एक ज्योतिषी था, जो प्रतिदिन ज्योतिष की साधारणसी कुछ बातें बताकर आटा मांगकर लाता था और उससे उसके परिजनों का गुजारा चलता था । एक दिन वह ज्योतिषी किसी नगर में आटा मांगते हुए किसी संन्यासी को मिला । संन्यासी ने पूछा भाई क्या कर रहे हो? तो ज्योतिषी बोला महाराज ! हम आटा मांग रहे हैं । आटा मांगकर जब घर ले जायेंगे तो हमारे परिजन खाने को पायेंगे । हमी तो परिजनों का पालन-पोषण करते हैं । तो संन्यासी ने कहा―ज्योतिषी जी तुम झूठ कहते हो, तुम नहीं अपने परिजनों को पालते-पोषते । तुम तो उनकी चिंता छोड़कर हमारे साथ चलो, वहाँ आनंद से रहोगे । वह ज्योतिषी भक्त था, सो संन्यासी के साथ चल पड़ा । जब ज्योतिषी प्रतिदिन के समय तक घर न पहुंचा तो घर वालो ने उसकी पूछताछ की । किसी मसखरे ने कह दिया कि अरे उसे तो आज एक शेर उठा ले गया । घरवाले रोने लगे, बड़े दुःखी हुए । पड़ोसियों में भी यह खबर फैल गई । सभी लोगों ने सोचा कि वही तो एक परिवार का चलाने वाला था, अब इन घर के बेचारे लोगों का गुजारा कैसे चलेगा । सभी ने विचार किया कि अपन लोग मिल-जुलकर इन्हें कुछ चीजें दे दें ताकि अपने पड़ोस में रहकर ये बेचारे दुःखी तो न रहें । सो अनाज की दूकान वालों ने एक-एक दो-दो बोरे अनाज दे दिया, कपड़े वालों ने कुछ थान कपड़े दे दिये, घी वालों ने एक-एक टीन घी दे दिया, इसी प्रकार से अन्य भी चीजें लोगों ने दे दीं ꠰ वे घर के लोग तो अब इस तरह के दिन देखने लगे जैसे कि जीवन में कभी भी न देखा था । उधर ज्योतिषी को संन्यासी के साथ रहते हुए जब करीब 15 दिन व्यतीत हो गए तो ज्योतिषी बोला-―महाराज ! हमें आप घर जाने की आज्ञा दीजिए । जाकर देखें तो सही कि कौन मरा और कौन जिया । संन्यासी ने कहा―हां जावो तो सही, पर यों ही सीधा घर में न घुस जाना । छिपकर घर वालों को देख आना । सो ज्योतिषी वहाँ जाकर घर के पीछे से किसी तरह चढ़कर ऊपर की छत पर पहुंच गया । वहाँ से जाकर वह क्या देखता है कि घर के सभी लोग नये-नये वस्त्र पहिने हुए हैं ꠰ पूड़ियां कचौड़ियां घर में पक रही हैं । सभी खा पी रहे हैं, हंस खेल रहे हैं । ज्योतिषी को वह दृश्य देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और खुशी के मारे एकदम से वह अपने बच्चों से मिलने के लिए घर में कूद पड़ा । घर वालों ने तो यह समझ रखा था कि बह तो मर गया सो उसे देखकर सोचा कि अरे यह तो भूत आ गया । सो सभी ने ढेला, पत्थर, लूगर आदि से मार-मारकर उसे भगा दिया । वह किसी तरह प्राण बचाकर संन्यासी के पास पहुंचा ꠰ बोला―महाराज वहाँ तो सभी बड़े खुश हैं, पर घर के सभी लोगों ने हमें कंकड़, पत्थर, लूगर आदि से मार-मारकर भगाया ꠰ तो संन्यासी ने कहा―अरे जब वे स्वयं मजे में है तो तुम्हारी कौन पूछ करे । तुम तो व्यर्थ का अहंकार करते थे कि हमी इन परिजनों का पालन-पोषण करते हैं ꠰ तो इस कथानक से यह शिक्षा लेना हे कि ऐसा अहंकार करना ठीक नहीं कि मैं ही इन लोगों का पालन-पोषण करता हूँ, मैं ही इनको सुखी करता हूँ । अरे सबके साथ सबका अपना-अपना भाग्य जुड़ा हुआ है और वे सभी अपने-अपने भाग्य के बल पर अपना-अपना काम कर रहे हैं ।
पदार्थों का अपना स्वरूप―यहां सभी पदार्थों के संबंध में स्वरूप देखो―प्रत्येक पदार्थ अपने आप में ही अदल-बदल कर रहे हैं क्योंकि पदार्थ का स्वरूप ही यह है―उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है । कोई अगर जानना चाहे कि जिनेंद्रदेव के उपदेश का सार क्या है तो वह सब सार आपको दो सूत्रों में मिल जायगा । तत्त्वार्थसूत्र का प्रथम सूत्र है―सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: और पंचम अध्याय में बीच का सूत्र है―उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् । प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है । उत्पाद मायने बनना, व्यय मायने बिगड़ना और ध्रौव्य मायने बना रहना । प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव है कि बने, बिगड़े और बना रहे । वस्तु का स्वरूप है बनना, बिगड़ना और बना रहना । जो भी पदार्थ है उसकी प्रतिक्षण कुछ न कुछ अवस्थायें होनी हैं । पूर्व अवस्थायें विलीन होती रहती हैं और नवीन अवस्थायें बदलती रहती हैं और पदार्थ वही का वही पूरा बना रहता है । जैसे एक मनुष्य है तो पहिले उसका बचपन था, फिर वह जवान हुआ, फिर बूढ़ा हुआ, य अवस्थायें बदलती रहती हैं, पर मनुष्यपना तो सब अवस्थाओं में वही का वही रहा । ऐसी ही बात सभी पदार्थों की है । इससे शिक्षा यही मिलती है कि जब सब पदार्थों का यही स्वरूप है कि वे अपने में उत्पन्न होते, विलीन होते हैं और बने रहते हैं ꠰ तब कहां गुंजाइश है कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ में कोई परिणति बना दे । इस दृष्टि से सारे विश्व को निरखिये कि प्रत्येक पदार्थ का परिणमन स्वयं में होता है, मैं किसी भी पदार्थ में कुछ नहीं करता । मैं अपने भाव बनाता रहता हूँ, अच्छा, बुरा, सुख का, दुःख का, ज्ञान का, आनंद का, आदिक भाव भर बनाता रहता हूँ, इसके अतिरिक्त हम कर क्या रहे हैं? बड़ी गंभीरता से, बड़ी जिम्मेदारी के साथ अपने आपका इस अशरण संसार में अपने आप ही स्वामी है, ऐसा मानकर सोचते हैं तो जगत में किसी भी पदार्थ का हम क्या परिणाम कर रहे हैं? वह सुविदित हो जाता है । जब यह ज्ञान जगता है तो वहाँ वैराग्य प्रबल होता है । प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप उसका अपने आप में है ।
राष्ट्रीय ध्वज में पदार्थ के उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्व स्वरूप का संकेत―आज का सरकारी तिरंगा झंडा भी आपके उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् की महिमा बना रहा है । समझने वाले समझ जायेंगे । उसमें रंग हैं तीन―हरा, सफेद और लाल । साहित्यकार लोग यह बताते हैं उत्पाद के वर्णन में कि उत्पाद का प्रतीक रंग हरा है । लोग जब पूछते हैं कि अजी क्या हाल है? तो उत्तर में दूसरा व्यक्ति कहने लगता है कि भाई हम खूब हरे-भरे हैं । हमारे बाल बच्चे, नाती-पोते सब अच्छी तरह हैं । तो उत्पाद का वर्णन हरे से होता है । व्यय का वर्णन लाल से होता है । विनाश का वर्णन रुधिर रंग से चलता है, ओर ध्रौव्य का वर्णन शुक्ल से चलता है । और, रंगों का क्रम भी झंडे में कितना सुंदर है कि सफेद रंग बीच में हे जो उत्पाद और व्यय दोनों का आधारभूत है जो अवस्थित है उस ही में तो उत्पाद और व्यय चलेगा । इससे हम को यह प्रेरणा मिलती है कि हम जगत में दूसरे पदार्थ का कुछ काम नहीं करते और हम अपने आप में ही अपने अज्ञान और दुःखमयी अवस्था को विलीन करके ज्ञानमय वैराग्यमय अवस्था को रच सकते हैं । हम वही के वही हैं जो अनादि से थे निगोद से अब तक, हम कोई दूसरे नहीं हैं । पर्याय बदले, भव बदले, ढंग बदले, पर मैं वही का वही हूँ । ज्ञान की ऐसी अभ्यस्त दशा हो जाय । आंखें खोलकर देखें तो तुरंत चित्रण हो जाय कि यह पदार्थ इतना ही है और यह अपने में ही अपनी क्रियायें करता जा रहा हे, दूसरे का कुछ नहीं करता । इस तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना है ।
तत्त्वज्ञान के बल से कषायमालिन्य हटाकर पवित्रता का अभ्युदय―तत्त्वज्ञान के प्रसाद से क्रोध, मान, माया लोभ आदिक कषायें शिथिल होती हैं । किसी पर क्या क्रोध करना, कोई मेरा बैरी नहीं है । जिस किसी भी जीवने मेरे प्रति कोई भी विरुद्ध बर्ताव किया हो उसने मेरे विरोध में कुछ नहीं किया, किंतु अपने आपकी कषायों को शांत करने के लिए ही अपने आप में परिणमन किया । वह जीव मेरा विरोधी नहीं । स्वरूपदृष्टि से देखने वाले पुरुष की कला निहारो, किस कला के बल पर वह सुखी है । उसका मान कषाय शिथिल हो जाता है । यहाँ किन में मान चाहना । यहाँ किसी ने अपमान किया तो उसने मेरे में क्या किया? उसने तो अपने में अपना ही परिणमन किया । ज्ञानी पुरुष में मायाचार भी नहीं जगता । वह तो जानता है कि जगत का कोई भी पदार्थ मेरा रक्षक नहीं है तो फिर मैं क्यों व्यर्थ में किसी पदार्थ के अर्थ छल, कपट आदि करूं । लोभ कषाय का भी वह ज्ञानी पुरुष त्याग कर देता है, लोभ के नष्ट होने से आत्मा में वास्तविक पवित्रता जगती है । इसीलिए लोभत्याग को शौचधर्म कहा है । शौच मायने पवित्रता । ज्ञान जगे, वैराग्य जगे, कषायें शिथिल हों, विकल्प हटे, अपने आपके स्वरूप की दृष्टि बने, ऐसी अपने आपकी दुनिया बने तो उस वैभव का मुकाबला जगत में कहीं अन्य पदार्थ से नहीं किया जा सकता है । सहाय होगा तो, यही तो सहाय होगा, ऐसा जानकर इस ज्ञान और वैराग्य के लिए अपने जीवन को लगायें तो इसमें अपना भला है ।
अपने स्वरूप के यथार्थ निर्णय में आत्मकल्याण की निहितता―मैं क्या हूँ, कब से हूँ, कब तक रहूंगा, क्या करता रहता हूं? इन चार प्रश्नों का उत्तर हो जाय सही तो उसका कल्याण है । भीतर की लगन सहित उत्तर हो जाय कि मैं क्या हूं? मैं एक चैतन्य पदार्थ हूँ, अमूर्त प्रतिभासमात्र हूँ, रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित केवल ज्ञाता द्रष्टा एक पदार्थ हूँ । मेरा यहाँ अन्य कुछ हो ही नहीं सकता । इस अमूर्त मुझ का दूसरा कौन क्या होगा? कब से हूं? अनादि से हूँ । रुलता चला आया हूँ । रुलते-रुलते आज जो उत्कृष्ट मनुष्यभव पाया उसकी महिमा बतायी भी नहीं जा सकती । किसी चीज का व्यय तब विदित होता है जब उसके सामने नकली खराब चीजें और पड़ी हों । इस मनुष्यभव का मूल्य तब समझा जा सकता हे जबकि संसार की अनेक दुर्गतियों का भी विचार करे । निगोद जैसी दशा मिली, जिसमें एक सेकेंड में 23 बार जन्म-मरण किया । पेड़, फल, फूल आदि हुए तो तोड़ा गिराया, छेदा, पीसा, सुखाया, नाना क्लेश पाये । कीड़ा-मकोड़ा, पशु-पक्षी आदि की पर्यायें प्राप्त हुईं तो उनकी दुर्गतियों को कौन नहीं जानता । कभी ऐसे भी किसी पशु को गाड़ी में जुता हुआ देखा होगा जिसका कंधा सूजा हुआ है, वहाँ से खून टपक रहा है, फिर भी बग्गी में जुता है, उस पर बहुत बड़ा बोझा लोगों ने लादा हुआ है । उस जुते हुए को पीटते जा रहे हैं । यदि अधिक बोझ की वजह से वह पशु बैठ जाय, उठ न पाये तो लोग उसे डंडों से पीटते हैं । बाद में जब काम लायक न रहा तो उसे लोग कसाई को दे देते हैं । इस तरह के दुःख भी हम आपने पशुवों की पर्याय में प्राप्त किए । आज हम आप मनुष्य की पर्याय में आये । आज का एक-एक क्षण मूल्यवान है । इस मनुष्यभव को पाकर अपनी ज्ञानदृष्टि शुद्ध करें । लक्ष्य, ज्ञान हमारा पवित्र रहे तो जीवन सफल है ।
अमूर्त ज्ञानस्वभावमात्र आत्मा का भावमात्र कर्तृत्व―मैं अमूर्त प्रतिभासमात्र हूँ जो सबसे निराला है, जिसका अन्य कुछ भी नहीं है ऐसा यह मैं आत्मा क्या करता हूँ, क्या कर सकता हूं? आत्मस्वरूप का यथार्थ परिचय मिल जाने पर सब स्वयं समाधान मिल जायगा । जब मैं अमूर्त हूँ, प्रतिभासमात्र हूँ, भावस्वरूप हूँ तो इसकी परिणति क्या बन सकेगी? भावों की परिणति बनेगी । सुख भी भाव है, दुःख भी भाव है, जो जानना है वह भी भाव है, जो विकल्प विचार होते हैं वे भी भाव हैं । मैं भावों के सिवाय और कुछ क्या कर सकता हूं? जैसे बच्चे लोग पतंग का खेल किया करते हैं, वे भाव ही तो करते हैं । कंकड़, पत्थर परोस दिया और कह दिया, लो ये बूंदी हैं, ये लड्डू हैं, कुछ पतले पत्ते परोस दिये और कह दिया, लो ये पतली पूड़ी कचौड़ियां हैं । ये बच्चे लोग जैसे भाव ही करते हैं, इसी प्रकार इस अमूर्त प्रतिभासमात्र आत्मा के स्वरूप को निरखकर आप उत्तर दीजिए । आप क्या करते हैं? क्या आप व्यापार, दूकान, रोजिगार आदि करते हैं? अरे वहाँ भी आप भाव ही करते हैं, पूजा, पाठ, तपश्चरण, दान आदिक जो भी आप करते हैं उनमें भी आप भाव ही करते हैं । तब समझ लीजिए कि मैं जगत में अन्य क्या काम करता हूं? मैं जग का करता क्या काम?
पर में अकर्तृत्व का एक दृष्टांत―एक सेठजी के चार पुत्र थे । उनका सबसे बड़ा लड़का व्यापारी था, उससे छोटा लड़का जुवारी था, उससे छोटा अंधा था और सबसे छोटा लड़का पुजारी था । तो बड़े लड़के की स्त्री रोज-रोज अपने पति से कहे कि आप तो इतना कमाते हैं, खाने वाले ये सब हैं । आप तो इन सबसे अलग होकर रहिये । यों झक-झक कुछ दिनों तक घर में चलती रही । कुछ दिन बाद वह बड़ा लड़का कह उठा कि पिताजी अब तो हम अलग होकर रहेंगे । तो पिता ने समझाया और कुछ देर बाद कहा कि अच्छा बेटा न्यारे हो जाना, पर पहिले अपन लोग एक काम कर लें । सब लोग मिल-जुलकर तीर्थयात्रा कर लें क्योंकि न्यारे-न्यारे हो जाने पर न जाने किसका कैसा भाग्य है, फिर तीर्थयात्रा हो सके या न हो सके । आखिर सब सलाह करके तीर्थयात्रा करने चल पड़े । मार्ग में किसी नगर के निकट जब वे ठहरे तो पिता ने 10) बड़े लड़के को दिया और कहा―जावो बेटा―बाजार से भोजन सामग्री खरीद लावो । तो उसने क्या किया कि 10) का एक जगह कुछ सामान खरीदा और दूसरे मुहल्ले में जाकर उसे बेच दिया । 1) लाभ में मिला । अब वह 11) की भोजन सामग्री लेकर पहुंचा । सबको भोजन कराया । दूसरे दिन उससे छोटे जुवारी लड़के को 10) देकर कहा―जावो बेटा भोजन सामग्री खरीद लावो । सो उसने क्या किया कि रास्ते में कहीं जुवा हो रहा था तो दसों रुपये दाव में लगा दिये । भाग्य की बात कि 10) उसे लाभ में मिले । अब वह 20) की भोजन सामग्री ले गया और सबको खूब खिलाया । तीसरे दिन अपने तीसरे लड़के को 10) देकर पिता ने कहा―जावो बेटा आज तुम भोजन सामग्री लावो । तो उसके साथ उसकी पत्नी भी चली । मार्ग में किसी जगह एक पत्थर की ठोकर उस अंधे के लग गयी । सो अपनी पत्नी से कहा कि इस पत्थर को उखाड़ दो, नहीं तो और किसी के लग जायगा । स्त्री ने ज्यों ही उस पत्थर को उखाड़ा कि उसके नीचे उसे अशर्फियों का हंडा मिला । अब क्या था? उसने जाकर खूब भोजन सामग्री खरीदी, सबको खूब खिलाया और बहुतसी अशर्फियां भी पिता के सामने उड़ेल दीं । चौथे दिन अपने चौथे पुजारी लड़के को 10) दिया और कहा―आज बेटा तुम भोजन सामग्री लावो । उसे रास्ते में एक मंदिर मिला तो उसने क्या किया कि 10) में कटोरा, घी, बत्ती आदि खरीदा और मंदिर में जाकर पूजन आरती ध्यान करने लगा । भक्ति करते-करते बहुत समय हो गया तो वहाँ के अधिष्ठाता देव ने सोचा कि यह तो पूजन में लीन हैं, इसके घर के सभी लोग भूखे बैठे हैं, सो यह सोचकर उस पुजारी लड़के जैसा ही उस देव ने अपना रूप बनाया और कई गाड़ियों में बहुतसा सामान लादकर उसके पिता के पास पहुंचा दिया । सभी ने खूब भोजन किया और नगर के बहुत से लोगों को भी भोजन कराया । बाद में वह पुजारी लड़का पूजन करके निपटा और बहुत पछताने लगा कि हम तो आज पूजन करने में लीन हो गए, हमारे घर वाले सभी लोग आज भूखे रह गए । सो जल्दी ही अपने परिजनों के पास जाकर पिता से कहा―पिताजी आज हम से बहुत गल्ती हुई, हम तो पूजा-पाठ करने में लग गए । समय का कुछ ध्यान भी न रहा और आप सभी लोग आज भूखे रह गए होंगे । उसकी बात को सुनकर पिता को आश्चर्य हुआ । लड़के लोग भी आश्चर्य में पड़ गए कि देखा इसी ने तो बहुत गाड़ी सामान यहाँ लाकर डाला और यही इस तरह कहना है । सबने समझ लिया कि वह देव ही कोई आया था । बाद में पिता अपने बड़े लड़के से कहता है―कहो बेटा तुम्हारा भाग्य कितना है? बोला 1) का । और, जुवारी लड़के का?....हमसे 10 गुना । और, अंधे लड़के का? हमसे हजारों गुना । और, पुजारी लड़के का? अरे उसके भागा का तो कुछ कहना ही क्या? जिसकी देव सेवा करें । अब उस बड़े लड़के को अपने अहंकार पर पछतावा हुआ । तो भाई यहाँ कोई कमाने वाला नहीं है । सब साथ उनका अपना-अपना भाग्य लगा है ।
स्व में श्रद्धान ज्ञान की लगन होने से स्वरमणक की भविष्य में निश्चिंतता―मैं जग का करता क्या काम? मैं अमूर्त प्रतिभासमात्र यह चेतन केवल भाव ही तो करता हूँ । भावों से ही तृप्ति है, भावों से ही आनंद है, भावों से ही दुःख हे, भावों से ही मोक्ष है, भावों से ही संसार में रूलना है । तब आप समझिये कि हम आपको करने के लिए क्या काम मुख्य पड़ा हुआ है? एक अपने भावों की ही सम्हाल करना है, अपने ही स्वरूप को निरखने और उसमें ही रत होने का ध्यान रखना है । यहाँ अन्य कोई सारभूत बात नहीं, सार इसी स्थिति में है कि मैं अपने स्वरूप को जानूं और उसमें ही रमता रहूं । ऐसा करने के लिए अंतरंग में एक श्रद्धा होनी चाहिए । भीतर में यदि श्रद्धा बसी हो तो यह बात कर ली जाती है । बाह्य वस्तुओं के संबंध में यदि हमारी लगन हो, धुन हो तो भी उस पर हमारा कोई वश नहीं ꠰ तो परवस्तुवों की उपेक्षा करके एक अपने आत्मस्वरूप के अनुभवन, उसमें ही रमण करने की धुन बन जाय तो बस इसी सारभूत कार्य से सर्व बाधायें टलेगी, शांति का मार्ग प्राप्त होगा । सम्यक्त्व होने का ऐसा अतुल प्रभाव है । एक सही दिशा तो हम बना लें, यही एक बहुत बड़ा काम है, किंतु इसके लिए धुन चाहिए, लगन चाहिए । एक ऐसा नियम कर लीजिए कि मुझे तो इस कार्य के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं करना हे । ऐसी धुन हो, ऐसा यत्न हो तो इसमें सफलता अवश्य मिलेगी । बाह्य पदार्थों में कुछ भी करने की धुन बनायें, क्योंकि यह नियम नहीं कि मेरे मन के अनुकूल बाह्य में परिणमन हो ही जाय, पर अपने आपके स्वरूप की धुन बने तो यह कार्य जरूर बनेगा । इस कार्य में सफलता अवश्य मिलेगी ꠰ बाह्य पदार्थों की हठ एक तो निभ नहीं सकती ꠰ थोड़ी बहुत कभी निभ जाय तो उसमें सार का काम नहीं ꠰ निभना तो यों कठिन है कि हम इन अनंत जीवों के कोई बादशाह तो नहीं है हम ही तो समर्थ नहीं हैं कि जो हम हठ करें सो वह हो ही जाय । अरे मेरे ही समान अथवा मुझ से भी समर्थ इस जगत में और भी तो जीव हैं, कहां तक हठ निभेगी?
परवस्तु के हठ में अभीष्ट की सिद्धि का अनिश्चय―कोई स्त्री पुरुष थे, तो स्त्री की ज्यादह चलती थी । बह अपने पति पर अपना रौब जमाना चाहती थी । वह पुरुष उस स्त्री से बड़ा प्रेम भी करता था । एक दिन उस स्त्री के मन में आया कि हमें अपने पतिदेव की परीक्षा करना चाहिए कि यह हम से प्रेम करते हैं या नहीं । सो वह स्त्री सिरदर्द व पेटदर्द का बहाना करके पड गई । (ये ही दो बहाने ऐसे हैं जिनका डाक्टर तक भी सही पता नहीं पाड़ सकते) पतिदेव ने आकर पूछा―क्या बात है देवी? तो स्त्री ने कहा―हमारे बहुत बड़ा सिरदर्द व पेटदर्द है । बहुत से वैद्य बुलाये किसी से दर्द ठीक नहीं हुआ । बहुत समय बाद पति ने कहा कि किसी तरह से दर्द ठीक भी होगा? अभी हमें कुछ निद्रासी आयी, सो एक देव आकर कह गया है कि जो तुम से बहुत अधिक प्रेम करता हो वह यदि अपने मूंछ मुड़ाकर प्रातःकाल दर्शन दे तब तो तुम बच सकती हो, नहीं तो मर जावोगी । सो क्या था, पति तो उससे प्रेम करता ही था । सो झट अपनी मूंछ मुड़ायी और प्रात: काल होते ही उसे दर्शन दिया । (पहिले समय में मूँछ मुड़ाना बुरा समझा जाता था) अब तो उस स्त्री ने प्रतिदिन चक्की पीसते समय एक गीत गाना शुरु कर दिया-अपनी टेक रखाई, पति की मूँछ मुड़ा? । कई दिनों तक सुनते-सुनते जब वह पुरुष हैंरान हो गया तो झट एक दिन अपनी स्वसुराल को चिट्ठी लिख दी कि आपकी लड़की सख्त बीमार है । उसके बचने का सिर्फ एक उपाय किसी देव ने बताया है कि उसके जो मां, बाप, भाई, बहिन, बुआ आदिक उससे प्रेम करते हों वे अपने-अपने सिर, मूँछ आदि मुड़ाकर प्रातःकाल होते ही उसे दर्शन दें तो वह बच सकती है अन्यथा वह नहीं बच सकेगी । फिर क्या था, उसके मां-बाप, भाई-बहिन, बुआ आदिक सभी अपने मूँछ व सिर वगैरह मुड़ाकर प्रातःकाल होते ही हाजिर हुए । उस समय वह स्त्री वही गीत गा रही थी―अपनी टेक रखाई, पति की मूँछ मुड़ाई । तो उस समय वह पुरुष कहता है―पीछे देख लुगाई, मुंडो की पल्टन आई । देखो, हठ में स्त्री ने कैसी मुंह की खाई ।
अभीष्ट परिणमन में भी पर का अकर्तृत्व―मतलब यह है कि हम चाहते हैं कि दूसरों पर हमारी हठ निभे, पर यह बात बन कैसे सकती है? हम ही तो इस जगह के ईश्वर या प्रभु नहीं है । हम भी कर्मों के प्रेरे हैं । हम से भी अधिक कलावान अनेकों लोग पाये जाते हैं । परपदार्थों में स्नेह करना और उनमें अपनी हठ बनाना यह व्यर्थ की बात है । यह अमूर्त प्रतिभासमात्र आत्मा अपने भावभर बनाता है । अन्य कुछ करता हूँ ऐसी तो एक भ्रमभरी बात है । एक कोई बहुत बड़ा दानवीर पुरुष था, अथवा कोई सम्राट हो, वह जब दान देवे तो अपना सिर नीचा करके शर्मिंदासा होकर देता था । तो कुछ लोगों ने उससे पूछा महाराज ! आप इतना तो दान करते हैं, बहुत बड़े आप दानी हैं फिर भी आप दान देने में अपना सिर नीचा करके (एक शर्मिंदासा होकर) क्यों दान देते हैं? तो वह दानवीर कहता है कि―देने वाला और है, देत रहत दिन रैन । लोगन को है भ्रम मेरा, तासो नीचे नैन । देने वाला तो कोई और ही है, मैं तो देता नहीं हूँ । पर लोगों को मेरे प्रति भ्रम है कि यह दान देते हैं इसलिए शर्मिंदा होकर मेरा सिर झुक जाता है । मैं कुछ नहीं करता, मैं तो मात्र भाव बनाता हूँ । बस इसी एक अपने स्वरूप की सम्हाल करना हे । यही तीनों लोक में एक सारभूत काम है ।
रत्नत्रयरूप धर्म की शरण्यता की घोषणा―मैं कहां जाऊं, किसकी शरण गहूं, किसके आगे प्रार्थना कर, किससे भीख मांगूं कि वह मेरी रक्षा कर दे? मैं सद हूँ, सदा रहूंगा । मेरा साथ निभाने वाला यहाँ कौन है? साथ कौन जायगा? केवल मैं ही मेरा साथी हूँ, मेरा कोई दूसरा साथी नहीं । फिर मेरा सुधार अथवा बिगाड़ करने वाला यहाँ कौन? मैं ही अपना सुधार करता हूँ और मैं ही अपना बिगाड़ करता हूँ । मैं बाहर में किसी का कुछ नहीं करता, ऐसा देखना है और जगत में जो भी पदार्थ दिखें उनके संबंध में यह निर्णय रखना है कि सबका परिणमन अपने आपके प्रदेशों में होता है, कोई किसी अन्य के परिणमन को नहीं करता । अपने स्वरूपनिर्णय का सही उपाय क्या है? अपने ऐसे अमूर्त प्रतिभासमात्र स्वरूप की जानकारी रखना और ऐसा ही जानने में निरंतर बने रहना अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक̖चारित्ररूप रहना है । तत्त्वार्थसूत्र में जो प्रथम सूत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: है, आज का राष्ट्रीय ध्वज भी इस सूत्र का समर्थन कर रहा हे । राष्ट्रीय ध्वज में तीन रग हैं, हरा श्वेत और लाल । सम्यग्ज्ञानक जब भी वर्णन होगा तो स्वच्छता से होगा । सम्यक्चारित्र का वर्णन हरे रंग से होता है । जब कुछ अपनी उन्नति है, तरक्की है तो वहाँ हरे रग से वर्णन होता है । सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? विपरीत अभिप्राय के विनाश को सम्यक्त्व कहते हैं । तो विपरीत अभिप्राय का ध्वंस है, उसका सकेत लाल रंग में होता है । तो यों भारत का राष्ट्रीय ध्वज भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इस आत्महितमार्गदर्शक सूत्र की पुष्टि करता है ।
रत्नत्रयरूप धर्म में सहज ज्ञानभाव के अभ्युदय का विलास―और भी देखो―जैसे कि समयसार में वर्णन किया गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र क्या है? ज्ञान का जीवादिकश्रद्धानस्वभाव से होने का नाम सम्यग्दर्शन है । ज्ञान का जीवादिक की जानकारी के स्वभाव से होने का नाम है सम्यग्ज्ञान । ज्ञान का विकार से दूर रहने के स्वभाव से होने का नाम है सम्यक्चारित्र । तो जैसे ज्ञानस्वभाव पर श्रद्धान का भी रंग है, चारित्र का भी रंग है तो उसमें ज्ञान माध्यम हुआ, इसी प्रकार ध्वज में भी सफेद रंग ज्ञान का माध्यम है । यह एक प्रासंगिक बात कही । तात्पर्य यहाँ यह है कि हमारा रक्षक, हमारा पिता, हमारा सर्वस्व हमारा ही ज्ञान है । मैं सहज ज्ञानमात्र हूँ, मात्र जानन स्वभाव हूं, प्रतिभासस्वरूप हूँ यों चिंतन में सामान्य चित्तत्व ही रहता है । उस निर्विकल्प अखंड प्रतिभासस्वरूप अंतस्तत्त्व का अनुभव होने पर सुविदित होता है कि यह मैं अमूर्त प्रतिभासमात्र चेतन पदार्थ अपने ही स्वरूप चतुष्टय में रहकर अपने भावों का ही निर्णय करता रहता हूँ, अन्य का कुछ नहीं करता । होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम?
परकृत परिणाम में अशुचिता―जिसने अपने स्वभाव और परभाव में भेद जाना है, जिसने स्वभाव की महिमा समझी है और परभावों को दुःखरूप जाना है ऐसा पुरुष ही एकमन होकर स्वभाव में लग पाता है । यह स्वभाव शुचि है; पवित्र है, आत्मा का चैतन्यस्वभाव अपने आपके सहज सत्त्व के कारण जो कुछ भी आत्मा में चमत्कृति है वह पवित्र है । उसी के कारण समस्त द्रव्यों में सार आत्मा को कहा है और आत्मा की समस्त अवस्थाओं में सार एक चैतन्य स्वभाव को कहा है, जबकि परभाव इससे विपरीत हैं, कर्मों का निमित्त पाकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले विकार अपवित्र हैं । लोग कहते हैं कि नाली बड़ी गंदी है, बदबू आती है, इस में बहुत से कीड़ों का कलेवर है, तो लोग नाली को और मांस को गंदा बताते हैं लेकिन यह तो बताओ कि यह नाली और मांस, कीड़ों का बह कलेवर आया कहां से? इसी जीवित शरीर से । जब यह प्राणी न मरा था, जैसे कि हम आप सब जीवित हैं । हम आपका जो यह मांस है वही तो वह है । तो सड़े गले मांस को गंदा किसने किया? हमारे शरीर ने । अच्छा अब शरीर की बात सोचो । शरीर में जो परमाणु आये वे परमाणु जब तक निराले थे, उनका हमने ग्रहण न किया था तब तो वे गंदे न थे । तो उन परमाणुवों को गंदा किसने किया? इस संसारी जीव ने उन परमाणुवों को शरीररूप में जो बनाया तो गंदा किसने किया? इस संसारी जीव ने, मोही ने । जीव गंदा नहीं, पर जीव में जो मोहभाव है वह गंदा है । तो समस्त गंदगी की जड़ क्या निकली? मोह । रागद्वेष विकार भी गंदा भाव है, पर उनको पुष्ट करने वाला है मोहभाव । तो यह विकार ही वास्तव में अपवित्र है ।
परकृत परिणाम की अध्रुवता व अशरण्यता―स्वभाव और परभाव में अंतर तकिये । स्वभाव शाश्वत रहता है, ध्रुव है, कभी धोखा नहीं दे सकता । हम स्वभाव की शरण में न जायें यह हमारी भूल है, पर शरणभूत स्वभाव तो शाश्वत अंत: प्रकाशमान हैं, लेकिन ये परभाव कर्मोदय का निमित्त पाकर उत्पन्न हुए, दूसरे क्षण नहीं रहते । चूंकि यह जीव जिस समय अपवित्र हे इस लिए विकार के बाद विकार आते रहते हैं, पर जो विकार हुआ वह दूसरे क्षण नहीं ठहरता, वह अध्रुव है । मोही जीव मोह की वेदना के वश होकर इलाज समझता है मोह करने को ही, और यही हो रहा हे संसार में । कषाय की वेदना से होता है जीवों को क्लेश और उस क्लेश के मेटने का उपाय समझते हैं कषाय करना ही । अरे ये विकार भाव अशरण हैं । इनकी शरण गहना मोहांधकार में ही संभव है । विकार मेरा स्वरूप नहीं । एक यह चैतन्यस्वरूप ही मेरा है । इन परभावों के प्रसंग में इन विकारों के संग में, अशरण विकार के विषयभूत विषयों के व्यासंग में मेरा गुजारा नहीं चल सकता ।
दूर हटो परकृत परिणाम―लोक में मेरा कौन? जब घनिष्ट घुलामिला यह शरीर भी हमारा साथी बनकर नहीं रह सकता तब फिर अन्य प्रकट भिन्न परपदार्थ मेरे साथी कैसे बन सकेंगे? तो स्वभाव और परभाव के अंतर का अध्ययन करना यही है सच्चा अध्ययन और विभाव से हटकर स्वभाव में लगना यही है सांचा कार्य । तो यह अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानी संत स्वभाव विभाव का भेद जानकर विभावों की उपेक्षा करके स्वभावभक्ति में लगता है । और, स्वभावभक्ति में रहते-रहते स्थिरता न हो पाने से जब अलग होता है तो वह बड़ा क्लेश मानता है । जम आत्मभक्ति में स्थिर न होने से स्व से हटता है तब इतना खेद मानता है कि कहां तो उस निराकुल ज्ञानामृत का स्वाद लिया जा रहा था, बड़ी निराकुल दशा थी और अब वहाँ से हटकर परभावों में आकर कहां यह दुर्दशा, अंत: आवाज निकलती है―ओह ! दूर हटो परकृत परिणाम । मैं दुःखी हो गया, हैरान हो गया, बरबाद हो गया । ऐ परकृत परिणाम ! तुम दूर हटो, मुझे मेरे अमूर्त धाम में पहुंचने दो, जहाँ मैं अभी निकट में था ।
विभाव के नियामकत्व की मीमांसा―इन विकारों को परकृत परिणाम कहते हैं । इन विकारों का यद्यपि अंतर्व्याप्यव्यापकभाव आत्मा से है अर्थात् ये रागादिक भाव आत्मा में समाये हुए हैं और इनमें आत्मा समाया हुआ है, लेकिन इनका निर्माणनियम अंतर्व्याप्यव्यापक भाव से नहीं है । निर्माणनियम वहीं हो सकता है जहाँ यह अत्यय व्यतिरेक हो कि जिसके होने पर विकार हो, जिसके न होने पर विकार न हो । यह नियम तो बहिर्व्याप्यव्यापकभाव में संभव है । वहिर्व्याप्यव्यापक का मतलब यह है कि जिसके साथ संबंध बन रहा है वह तो है अलग और ये नैमित्तिक रागादिकभाव हैं अलग । पृथक् भिन्न-भिन्न दो पदार्थ हुए हैं, वहाँ व्यापक-व्यापक संबंध है । तो ऐसा नहीं कह सकते कि आत्मा के होने पर रागादिक हों और न होने पर न हों । वह तो बेतुकी बात है । जब आत्मा हो तब रागादिक हों यह नियम तो नहीं । पर कर्मविपाक के साथ इन रागादिक का अन्वय व्यतिरेक है । देखिये―ज्ञानवीर वही होगा जो निमित्त नैमित्तिक संबंध को भी यथार्थ जानता हो एवं वस्तुस्वरूप की स्वतंत्रता को भी समझता हो । वस्तुस्वातंत्र्य का घात हो जायगा इसलिए निमित्त को कुछ मत मानो । अरे निमित्त को कुछ न मानोगे, उसकी जो सन्निधि है उसका अपेक्षण न मानोगे, उस प्रसंग में तो यहाँ बड़ी विडंबना बनेगी । आत्मा में जब रागादिक होते हैं उस समय बकरा, घोड़ा, गधा आदि जो भी खड़े हों वे निमित्त बन जाते हैं क्या ऐसी अटपट बात है । यों कर्म निमित है वह निमित्त की बात नहीं । निमित्तनैमित्तिक संबंध मानने से आत्मा की स्वतंत्रता की अधिक ख्याति होती है । उस निमित्त नैमित्तिक संबंध की यथार्थ जानकारी से विदित होता है कि इन रागादिक विकारों से आत्मा का क्या संबंध? इस आत्मा में विकार है कहां? जब जो दृष्टि आये आने दो, तत्त्वज्ञानी पुरुष हर दृष्टियों से अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप की निरख कर लेता है । यहाँ परकृत की परख चल रही है इस कारण यह बात कही जा रही है ।
परकृत विभाव के नैमित्तिकत्व के परिज्ञान का अंतत: स्वच्छता के परिचय में सहयोग―जैसे दर्पण में हस्तादिक की छाया आयी तो उसमें दर्पण का क्या दोष? दर्पण तो ज्यों का त्यों स्थिर है, दर्पण तो पूर्ण स्वच्छ है, दर्पण में वह छाया तो पर के निमित्त से हुई है । इसी तरह आत्मा तो ज्यों का त्यों शुद्ध है पर उसमें ये रागादिक विकार पर के निमित्त से हुए हैं, इन्हें परकृत कहते है अथवा परिकृत कह लीजिये । यह परिकृत शब्द ही निमित्त को सिद्ध करता है । परिकृत का अर्थ है परिसमंतात् किए गए । की गई चीज निमित्त बिना नहीं होती, पर ये होते हैं आत्मा के सर्वप्रदेशों में । सर्वप्रदेशों में रागादिक तो हुए, लेकिन वे ऊपरी कहलाते है, स्वभाव में वे रागादिक नहीं जा घुसे । सर्वप्रदेशों में राग व्याप गया, कोई प्रदेश खाली नहीं रहा, अखंड आत्मा है । रागादिक परिणति हुई तो समस्त आत्मा में हुई, पर वह राग स्वभाव में नहीं व्याप गया । वह तो एक ऊपरी चीज है । राग आत्मा का अंत: स्वरूप नहीं बना । ऐसे परकृत परिणाम, परिकृत परिणाम दूर हटो ।
विभाव परिणामों के दूरापसरण का अंतिमेत्थम्―हे परकृत परिणामो ! मुझ में अनादिकाल से तुमने घर बना रखा है, खुब पनपे हो अब तक ꠰ अब मेरे समझ हुई । अब तुम यह धाम छोड़ो, मुझे अपने आपके आनंदधाम का आनंद लेने दो । ऐ रागादिक भावो ! तुम अनादिकाल से अभी तक इस मुझ आनंदधाम में बसे हुए हो, अब तुम दूर हटो । मैं अब अनंत भविष्यकाल तक यहाँ आनंद से रहूंगा । ज्ञानी पुरुष आगाह करके, घोषणा करके इन रागादिक भावों पर विजय कर रहा है, रागादिक भावों का विनाश कर रहा है । भले ही इन रागादिक विकारों ने बिना कुछ आगाह किये हम पर अब तक आक्रमण किए रहे, पर ऐ रागादिक विकारो, अब तुम दूर हटो, यो ज्ञानी पुरुष आगाह करके इन रागादिक भावों पर विजय प्राप्त कर रहा है ꠰ जब कोई दर्शक, पूजक अथवा उपासक पुरुष मंदिर में आता है तो मंदिर में प्रवेश करते समय वह निःसही, निःसही शब्दों का उच्चारण करता है । उसका भाव क्या है कि ऐ रागादिक भावों ! बहुत काल तक या दिन में भी देखो 23 साढ़े 23 घंटे तुम हम पर सवार रहे, अब हम वीतराग प्रभु के मंदिर में जा रहे हैं, वहाँ तुम्हारी दाल न गल सकेगी । वहाँ वीतराग प्रभु की मुद्रा दर्शन में आयगी । स्तवन आदिक द्वारा वीतरागभाव दृष्टि में रहेगा, वहाँ तुम्हारी दाल न गल सकेगी । तुम मेरे बड़े साथी रहे इसलिए हमारा कर्तव्य था कि तुम के आगाह कर दें, कहीं बिना पते में तुम्हारी दुर्गति न हो, इसलिए धीरे से तुम भागो, हम प्रभुदर्शन को जा रहे है । यह ज्ञानी संत इन रागादिक भावो को ठीक-ठीक समझाकर कह रहा है कि दूर हटो परकृत परिणाम ।
परकृति परिणाम की हैरानी―इस परकृत को परकृति कहकर भी कुछ समझ आयगी और परकृति परिणाम बताकर भी इससे कुछ अध्ययन मिलता है, परपदार्थ में कृति करने का जो परिणाम हे, कुछ करने का परिणाम है, जो कर्तृत्व परिणाम है सो दूर हटो । जीव अब तक परपदार्थ में कर्तृत्व बुद्धि लगाकर आकुलित होते चले आये हैं । अजी, अभी यह काम और पड़ा है बस इतनी ही हैरानी है । कम से कम मानव जगत में तो इसको अच्छी तरह समझ सकते है कि हम आप सब लोगों के सामने हैरानी क्या है? एक न एक काम करने को पड़ा हुआ है दिमाग में, बस यही हैरानी है । सारी हैरानी को संक्षिप्त में बताया जाय तो यही बताया जा सकता, परकृति परिणाम । परपदार्थ में कृतिका, कुछ पड़ा है करने को, इस तरह का जो भाव है बस वही हैरानी है । सम्यक्त्व के होने पर तुरंत ही निराकुलता का जीवन बनने लगता है । सो देखिये―जहां निज को निज पर को पर जान लिया, निज है सहज ज्ञानस्वभाव रूप, अपने आप में अपनी अर्थ पर्याय से परिणमते रहना, और कुछ बात यहाँ गुजरती ही नहीं । ऐसा जहाँ बोध होता है, पर में कुछ करने को है ही नहीं, जिस क्षण यह ज्ञानविद्युत प्रकाश उपयोग में समाया हुआ होता है उस क्षण तो वह आकुलता फटक नहीं पाती । देखिये―छोड़कर सब कुछ जाना है । और, काम अधूरे ही रहेंगे । काम अधूरे तो नहीं रहते, काम तो सब पूरे है, पूरे रहेंगे, पूरे थे, अधूरा तो कोई काम होता ही नहीं है । लेकिन इस अभिलाषी के दिमाग की दृष्टि से कह रहे हैं कि काम अधूरे ही रहेंगे, क्योंकि इसने ऐसा समझ रखा है काम बनने पर कि हमारे करने को अभी इतना काम और पड़ा है कभी विश्राम ही नहीं मिलता ।
परिकृति परिणाम से भावविडंबना―एक किम्वदंती है कि एक बार नारद घूमने के लिए चले, पहिले नरकों में गए तो वहाँ इतनी भीड़ थी कि उनको खड़े होने की जगह भी न मिली । यहाँ से झुंझलाकर लौट आये । स्वर्गों में घूमने गए तो वहाँ क्या देखा कि सारा स्वर्ग खाली पड़ा है । केवल विष्णुजी वहाँ अकेले आराम से पड़े हुए थे । नारद बोले―हे नारायण ! आप तो बड़े पक्षपाती हैं । आपने नरकों में तो इतने जीव भेज दिए कि हमें वहाँ खड़े होने की जगह भी न मिली और यहाँ आप अकेले आराम से पड़े हुए हैं । तो विष्णु बोले―हे नारद तुम्हें हम आज्ञा देते हैं कि जितने जीव यहाँ ला सकते हो ले आवो । हम तो बहुत चाहते हैं कि कोई जीव यहाँ आये, पर कोई आता ही नहीं है । नारद बड़े खुश हुए और जीवों को स्वर्गों में लाने के लिये चल पड़े । सबसे पहिले मध्यलोक में आये । किसी बूढ़े से कहा―चलो बूढ़े बाबा हमारे साथ, हम तुम्हें बैकुंठ ले चलेंगे, वहाँ तुम सुख से रहोगे । सो बूढ़ा तो जानता था कि बिना मरे बैकुंठ मिलता नहीं, सो वह बूढ़ा झुँझलाकर बोला―अरे चलो यहां से, और किसी को ले जाओ, क्या हमी तुमको मिले मरने के लिये, बैकुंठ ले जाने के लिए? नारद इस तरह से कई बूढ़ों के पास गए, पर सभी बूढ़ों ने मना कर दिया । बाद में जवानों के पास गए तो जवानों ने भी अपने अनेक काम बता दिए और नारद के साथ बैकुंठ जाने के लिए मना कर दिया । बाद में नारदजी लड़कों के पास गए । एक 18-19 वर्ष का लड़का माथे पर तिलक लगाये हुए एक मंदिर के चबूतरे पर बैठा हुआ था । उससे नारद ने कहा―बेटा तुम हमारे साथ चलो, हम तुम्हें स्वर्ग ले जायेंगे, वहाँ तुम सुख से रहोगे । वह बालक नारद के साथ चल पड़ा, मगर थोड़ा ही चलकर रुक गया, बोला―ऋषिजी, अभी तीन-चार दिन बाद हमारी शादी है, रिश्तेदार लोग घर आ गए हैं, शादी हो जाने दीजिए, आप 5 वर्ष के बाद में आना तब हम जरूर आपके साथ चलेंगे । जब 5 वर्ष बाद नारदजी आये―कहा अब तो चलो बेटा, तो वह बालक बोला―ऋषिजी हमारे पास 1 वर्ष का बच्चा है, उसे कुछ समर्थ हो जाने दें तब हम आपके साथ चलेंगे । सो आप अब 20 वर्ष बाद में आना । 20 वर्ष बाद में जब नारद आये और कहा―अब तो चलो बेटा―तो वह कहता हे कि नारदजी, हमने बहुतसा धन कमाया, हमारा पुत्र कुपूत निकल गया, यदि हम आप से साथ गए तो यह सारा धन बरबाद कर देगा, इसलिए हम इस भव में तो आपके साथ नहीं जा सकते, पर आप अगले भव में आना, तब हम जरूर आपके साथ चलेंगे । सो वह तो मरकर खजाने के कोठे में सर्प बना । वहाँ भी नारद पहुंचे और साथ चलने के लिए कहा―तो वह सर्प अपना फन हिलाकर कहता है कि हम कैसे आपके साथ चलें? हम तो इस धन की रक्षा के लिए ही यहाँ पैदा हुए हैं । तो नारद ने विष्णु के पास जाकर कहा कि नाथ ! आप सच कहते थे कि यहाँ कोई आने को तैयार ही नहीं होता । तो क्या है, वह सब परकृति परिणामों का जाल है । अभी मेरे करने को यह पड़ा हुआ है, यह अधूरा काम है, इस प्रकार की बात सब जीवों के मन में है ।
सहजानंदमय रहने की भावना―भैया ! यहाँ कोई भी काम अधूरा नहीं होता है । जिस पदार्थ का जिस क्षण जो परिणमन होता है वह पूर्ण होता है, इस रहस्य को न जानकर सब जीव परेशान हैं । अरे मेरे करने को बाहर में रखा ही क्या है? सर्व परपदार्थ स्वतंत्र हैं, परिपूर्ण हैं, यों जानकर परिकृति परिणाम जब दूर हो जाते हैं तब शांति प्राप्त होती है । सो यह अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानी संत पुरुष कह रहा है कि दूर हटो परकृत परिणाम । ऐ समस्त परभावो ! तुम दूर हटो । अच्छा, हम तो दूर हो जायेंगे फिर आपका समय कैसे व्यतीत होगा? अभी तो हम राग की बातें लगाकर, काम के बहाने लगाकर तुमको व्यस्त रखते हैं, अब हम को हटा दोगे तो बतलावो तुम फिर क्या करोगे? कैसे रहोगे? हम तो तुम पर दया करके लदे हुए हैं । तो कहते हैं कि दूर हटो परकृत परिणाम । सहजानंद रहूं अभिराम । मैं क्या करुंगा, कैसे रहूंगा सो सुनो―मैं सहज आनंदस्वरूप रहूंगा । मेरा स्वरूप ही है यह आनंद, और वह है सहज । सहज कहते हैं उसे जो ‘‘सह जायते इति सहजं’’, जो साथ ही उत्पन्न होता है । जब से मैं हूँ, जब से जो हो मेरे साथ वह है मेरा सहज भाव । सहज का लोग आसान अर्थ करते हैं, सुगम अर्थ करते हैं । सहज का असली रूप आसान नहीं है, किंतु सहज आसान हुआ करता है । जो-जो सहज होता है वह आसान हुआ करता है । इसलिए लोगों ने सहज का अर्थ आसान रख लिया । सहज कहते हैं उसे कि द्रव्य के सत्त्व से लेकर सत्त्व तक जो भाव रहे । वह है ज्ञानदर्शन की भांति आनंद भी । मैं सहज आनंदस्वरूप रहूंगा ꠰
अभिराम आनंदमय रहने का विनिश्चय―कहां रहोगे? वह जगह भी तो बतलावो । इस दुनिया में जितनी जगह है सब पर हमारा याने कर्मजाल का अधिकार है । रागभाव, विकारभाव पूछ रहे हैं कि कहां रहोगे? मैं रहूंगा सहज आनंदस्वरूप में याने अभिराम । राम मायने आत्मा । उस आत्मा के सर्वप्रदेशों में । हमें लोक की जगह न चाहिए । जहाँ रहे रहे, जहाँ न रहे न रहे, ये लोग मुझे भगा दें तो भगा दें, पर भगा न सकें यह बात अलग है । मुझे इसकी चिंता नहीं कि मैं कहां रहूंगा । मैं रहता ही कहां हूं? जब विकार द्रवित हो रहे तब भी मैं बाहर नहीं रह रहा । अपने ही स्वरूप में रहता हुआ विकृत हो रहा हूँ, और फिर विकार भाव के हटने पर तो स्वतंत्रतया सहज भाव से सुगमतया दृढ़ता के साथ अनंतकाल तक अपने आप में रहूंगा ।
आत्मोपासना का अंत: प्रभाव―आत्मा का लक्षण जानकर, आत्मकल्याण की आवश्यकता जानकर इस कल्याण की सुगमता समझकर आत्मा की निरंतर भावना की इस ज्ञानी पुरुष ने और उस आत्मा की दृढ़ अभेद उपासना के प्रताप से अब यह स्थिति प्राप्त की अथवा निकट भविष्य में प्राप्त करेगा । सर्व परभावों से जहाँ निवृत्त होने की बात कही वहाँ शरीर और कर्म की निवृत्ति होने की बात तो स्वयं ही आ गई । यों शरीर, कर्म, विकार इनसे रहित होकर केवल मैं आत्माराम रहूं और अपने आपके सर्वप्रदेशों में सहज आनंदस्वरूप रहूं । इसके लिए अहर्निश यह भावना चाहिए जैसा कि मैं हूँ, अपने आपके ही आधीन हूँ । अपने आपके स्वरूप से कभी चलायमान होने वाला नहीं हूँ, निश्चल हूँ । समस्त विकारों से रहित रहने के स्वभाव वाला निष्काम सदा ज्ञानदर्शन की परिणति रखने वाला जानन देखनहार, ऐसा मैं स्वतंत्र निश्चल, निष्काम ज्ञाताद्रष्टा आत्माराम हूँ ।
―ॐ―