वर्णीजी-प्रवचन:आत्मकीर्तन - छंद 4
From जैनकोष
जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम ।
राग त्यागि पहुंचूं निजधाम, आकुलता का फिर क्या काम ।।4।।
निज धाम में पहुंचने की भावना―जिस आत्मतत्त्व के जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि आदिक नाम हैं, राग को छोड़कर मैं उस निजधाम में पहुंचूं तो फिर आकुलता का क्या काम? यहाँ भावना में मुख्य बल दिया है निज चैतन्यस्वरूप धाम में पहुंचने का । जहाँ पहुंचने पर फिर आकुलता नहीं रहती । उपयोग की गति दो ओर होती हैं―निज की ओर और पर की ओर । निज और पर के अतिरिक्त कुछ और तीसरी चीज रही ही नहीं । जब उपयोग पर की ओर अभिमुख रहता है तो आकुलित रहता है और जहाँ अपनी ओर अभिमुख हो गया वहाँ आकुलतायें नहीं रहतीं । लोक में धर्म का अनुराग रखने वाले अनेक लोग हैं, भगवान का सहारा लेते हैं, तो भगवान के सहारे में भी मूल में सहारा वास्तविक क्या किया जा रहा है? जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि आदिक नामों से प्रभु का आश्रय लोग लेते तो असल में आश्रय है क्या? इसमें अपने आपका आश्रय कर रहे हैं । जैसे कि जिस आत्मतत्त्व का नाम जिन है उस आत्मतत्त्व में पहुंचने की भावना की है ।
आत्मा की जिन स्वरूपता―जिन क्या है? जो रागद्वेष को जीते उसको ही तो जिन कहते हैं । जिन्होंने रागद्वेष को जीत लिया उन प्रभु ने भी किसके आलंबन से रागद्वेष को जीता? उनका आलंबन रहा निज का ही चैतन्यस्वरूप शुद्ध अंतस्तत्त्व । जब हम आप पूजा करें, भक्ति करें तो साथ ही यह भी निरखते जायें कि ये प्रभु क्या कार्य करके बड़े बने हुए हैं? जो कार्य करके वे बड़े बने वह ही कार्य हम आपको उपादेय है । प्रभु जिन हुए, उन्होंने रागद्वेष मोहादिक को जीतने का उपाय किया । सर्व परपदार्थों से भिन्न अपना जो चैतन्य स्वरूप है, निज आत्मतत्त्व है उसकी ओर दृष्टि की । रागद्वेष होते हैं इन इंद्रियों के द्वारा कुछ ज्ञान करते हुए में । और, इंद्रिय के विषयों के उपयोग से रागद्वेष होते हैं । वे विषय इन द्रव्येंद्रियों के साधन से उपयुक्त होते हैं । द्रव्येंद्रियां है अचेतन । उनसे भिन्न है यह चेतन आत्मा । उसका ध्यान करने से द्रव्येंद्रिय का जो अंत: लगाव है वह समाप्त होता है । और, भीतर जो कल्पनायें बनती व कल्पनायें हैं भावेंद्रिय, क्षायोपशमिक, मलिन । उनसे भिन्न है आत्मा का शुद्ध चैतन्यस्वरूप । उस चैतन्यस्वरूप की दृष्टि से इन भावेंद्रियों पर विजय होती है । और, ये सामने हुए विषयभूत पदार्थ ये कहलाते हैं संग । तो इनसे भिन्न निःसंग मेरा जो आत्मस्वरूप है उसकी दृष्टि होने से इस संग का भी आश्रय छूटता है । ऐसी स्थिति में आत्मा रागादिक भावों पर विजय करता है । इस उपाय से ये आत्मा जिनेंद्र हुए । तो जिस आत्मा का जिन नाम है उस आत्मा का स्वरूप ही इस उपासक की दृष्टि में आ रहा है भगवान की भक्ति के समय भी ।
मूल शिवस्वरूप की उपासना―कोई लोग प्रभु को शब्द से भी कहते हैं । शिव का अर्थ है कल्याण जो कल्याण स्वरूप है, सुखमय है उसे कहते हैं शिव । लोक प्रसिद्धि हे कि शिव कोई महादेव हुए हैं । ठीक है, हुये हैं । उन्होंने भी इस आत्मतत्त्व का आश्रय लेकर अपने आप में विकास किया है, निर्ग्रंथ साधु थे, सभी लोग उन्हें दिगंबर कहते हैं । विकास होते-होते 11 अंग 9 पूर्व तक का उनका अध्ययन अधिकार पूर्वक हुआ था । विद्यानुवाद नामक दशांग पूर्व में वे शिथिल हुए और उससे आगे वे न चल सके, चमत्कार उनका था ही, लोक में बडी प्रसिद्धि हुई और वे बड़ी प्रसिद्धि के साथ लोक में उपास्य हुए । अच्छा, शिव हुआ कौन? यह आत्मा ही । कैसे हुआ? अपने आत्मा के अंत: स्वरूप की उपासना के बल से ही हुआ है । ऐसे जिस आत्मा का नाम शिव है, ऐसे आत्मतत्त्व में राग त्यागकर यदि पहुंचूँ तो फिर आकुलता का कोई काम नहीं रहता ।
ईश्वर ब्रह्म राम के मूलस्वरूप की उपासना―प्रभु को कहते हैं ईश्वर, ईश्वर कहते हैं उसे जो ऐश्वर्यवान हो, स्वयं हो, स्वयं में हो, स्वयं के लिए हो । जिसे अपने ऐश्वर्य के भोगने में किसी पर की आधीनता न हो उसे ईश्वर कहते हैं । लोक में बड़ा वही माना जाता जो अपने सुख साधनों के भोगने में पराधीन न हो, वस्तुत: देखो तो पूर्ण स्वाधीन सुख के भोगने वाले वीतराग सर्वज्ञदेव हैं । उनका परिपूर्ण विकास हुआ है । वहाँ किया क्या जा रहा है? केवल आत्मीय आनंद का स्वाधीन अनुभवन । उस आनंद के भोगने में उन्हें किसी पर की अपेक्षा नहीं रही । ये सब परिणमन अपने आप में ही किए जाते हैं अत: आत्मा ही स्वयं ईश्वर है, अर्थात् यह आत्मा अपने विभावों से स्वयं ही स्वयं की परिणति करता है और स्वय ही स्वयं की परिणति को भोगता है । ब्रह्मा भी इस आत्मा का ही नाम है । जो सृष्टि करे, जो बड़े उसका नाम ब्रह्मा है । सृष्टि करना, उत्पत्ति करना इसको वृद्धि के रूप से कहा गया है उत्पत्ति, वृद्धि, बढ़ना, विकास, विलास ये सब अनर्थांतर हैं । जो बड़े बढ़ाये उसको कहते हैं ब्रह्मा । तो यह आत्मा स्वयं अपने ही गुणों से बढ़ता है और अपनी ही सृष्टि करता है तो इस ही का नाम निरुक्ति से ब्रह्मा है । राम, जहाँ योगीजन रमण करें उसे राम कहते हैं । योगीजन कहां रमण करते हैं? इस ही आत्मस्वरूप में । जो केवल प्रतिभासमात्र अमूर्त है उस आत्मा का ही नाम राम हे ।
विष्णु बुद्ध हरि के मूलस्वरूप की उपासना―विष्णु, जो व्यापक हो जो व्यापे उसे कहते हैं विष्णु । ज्ञान के समान व्यापने वाली और कोई चीज नहीं है । जितना बड़ा प्रसार ज्ञान का है उतना बड़ा प्रसार और किसी चीज का नहीं है । ज्ञान का प्रसार लोक में भी है और अलोक में भी है । इस आत्मा को ज्ञानरूप से ही निरखा गया है अत: इस आत्मा का ही नाम विष्णु है । विष्णु को रक्षक भी कहते हैं । जो रक्षा करे सो विष्णु । तो यों भी ध्यान में लाइये कि हमारी रक्षा करने वाला हमारी आत्मा के सिवाय अन्य कौन हो सकता है? इसलिए यह आत्मतत्त्व ही विष्णु है । बुद्ध, यह आत्मा ही बुद्ध है, क्योंकि आत्मा का स्वरूप ज्ञानमात्र है । और ज्ञान की दृष्टि से ही जब हम इसको निरखने चलते हैं तो हमें आत्मा का सत्य परिचय होता है । अतएव यह आत्मा ही बुद्ध है । हरि, यही आत्मा हरि है । जो पापों को हरे सो हरि । पापों का हरने वाला हमारा विशुद्ध परिणाम ही तो हे । हम जब विशुद्धि में बढ़ते हैं तो ये सब कर्म कलंक स्वयं ही विशीर्ण हो जाते हैं ।
निजधाम में पहुंचने का यत्न―जिसके जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि आदि सब नाम हैं उस निजधाम में यह मैं पहुंचूँ । उसका उपाय है राग त्यागि । राग त्यागने से ही अंतस्तत्त्व में सहज पहुंच हो जाती है । यह आत्मा स्वयं ही तो ज्ञान स्वरूप है और जानने वाला भी ज्ञान हे । तो ज्ञानमय स्वयं को ज्ञान ही जानने चले तो उसे कठिनाई क्या है? पर इस ज्ञान के चलने में बाधक है राग । किसी परवस्तु के प्रति जब तक यह प्रतीति रहे कि मेरा बड़प्पन, मेरी इज्जत, मेरा सुख, मेरा जीवन अमुक पर आश्रित है, धनवैभव आदि पर आश्रित है । इस तरह की जब तक प्रतीति रहती है तब तक यह आत्मा अपने आपके स्वरूप में नहीं पहुंचता । इसलिए उपाय ही यह है कि राग त्यागें । राग को छोड़कर अपने आप में पहुंच बन सकती है । अब इस तरह के प्रयत्न में जिसकी यह स्थिति बनी कि जिसका उपयोग अर्थात् जानन ज्ञानवृत्ति जानने के स्वरूप में रम गयी, ज्ञायकस्वभाव अंतस्तत्त्व में ज्ञान एकरस हो गया ऐसी स्थिति में फिर बतलावो आकुलता का उदय किस ओर से हो सकता है? जिस अंतस्तत्त्व में पहुंचने पर रागद्वेष का उदय नहीं है वह मैं आत्माराम कैसा हूं? स्वतंत्र अपने आपके आधीन । निश्चल―जो अपना चैतन्यस्वरूप है उससे चलित न होने वाला, निष्काम, समस्त विकारों से रहित ऐसा जानन-देखनहार स्वरूप वाला यह मैं आत्मतत्त्व हूँ ।
आत्मा के निर्णय पर भविष्य की निर्भरता―मैं क्या हूँ, इसके निर्णय पर मेरा सारा भविष्य निर्भर है । यों समझिये कि जैसे नाव के चलाने वाले मल्लाह तो कई होते हैं, पर किस ओर नाव को ले जाना है यह कर्णधार के हाथ की बात है । नाव में पीछे एक सूप की तरह कर्ण लगा होता है, वह बड़े मोटे डंडे के नीचे लगा रहता है । कर्णधार उसे जिस रुख से मोड़ दे उस रुख से नाव चलने लगती है । तो जैसे नाव की प्रगति, किस तरह चले, कहां जाय, यह सब कर्णधार पर निर्भर है इसी प्रकार मैं क्या हूँ इस निर्णय पर मेरा भविष्य निर्भर है । मेरा संसार में जन्म-मरण करते रहना व मुक्त होना इन दोनों ही बातों के भविष्य का आधार है अपने आपके स्वरूप का निर्णय । जहाँ यह प्रतीति है कि मैं सर्व से निराला चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ, मेरा इस जगत में कहीं कुछ नहीं है, मैं अकिन्चन हूँ, यहाँ मुक्ति का मार्ग मिलता है । और, जहाँ परदृष्टि है, स्वदृष्टि से विमुखता है वहाँ संसारभ्रमण करते रहने का मार्ग मिलता है । तो ये दोनों ही बातें हमारे हो भावों के आधीन हैं ।
आत्मभाव से आत्मस्वरूप की उपलब्धव्यता―जैसे किसी पुरुष के आगे दो चीजें धर दी जायें, एक ओर हीरा रत्न और दूसरी ओर खली, और उससे कहा जाय कि भाई इनमें से तुम्हें जो चीज इष्ट हो वह ले लो । और, यदि वह खली का ही लेना पसंद करे तो उसे तो लोक में बेवकूफ कहा जायगा । इसी तरह से हमारे आगे दो बातें हैं एक तो मुक्ति प्राप्त करना और दूसरी―जन्मसंतति बढ़ाना । भावों से ही हम मुक्ति पाते हैं और भावों से ही हम अपनी जन्मसंतति बढ़ाते हैं । जन्मसंतति करते रहने के भाव बनाने से तो इस संसार में रुलते ही रहना पड़ेगा और मुक्ति प्राप्त करने के भाव बनाने से स्वाधीन अनुपम आनंद की प्राप्ति होगी । तो देखिये―जब भावों से ही हमें जन्मसंतति मिल सकती है और भावों से ही हम को मुक्ति भी मिल सकती है तो हमें कहां लगना चाहिये, किस ओर प्रतीति करना चाहिये, कैसा प्रयत्न करना चाहिये, यह जरूर विवेक से सोच लीजिए कोई हम को बंधन में डाले हुए नहीं है । हम सबसे निराले और अपने स्वरूप में, अपने प्रदेशों में रह रहे हैं, जो कुछ यहाँ दिखता है वह कुछ भी मेरा नहीं है, मेरे से बाहर यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है । तो मैं अपने में ही रह रहा है । कोई भी परवस्तु मुझे पकड़े हुए नहीं है । भले ही वे परवस्तुवें निमित्त हैं, आश्रयभूत हैं, पर वे सब भी निमित्त और आश्रयभूत मेरे ही अपराध से बन रहे हैं । मैं अपने असली स्वरूप को जानकर सर्व पर की उपेक्षा करके अपने आप में ही बसूं तो ये सब झंझट, ये सब संततियां हमारी दूर हो सकती हैं ।
संकटमुक्ति के लिये ही प्रभुभक्ति की उपेवता―हम संकटों से छुटकारा पाने के लिए ही सब प्रयास कर रहे हैं । भगवद्भक्ति भी हमारे जीवन के उत्थान में एक बहुत महत्त्व रखती है जब हम प्रभु के स्वच्छ, वीतराग, निर्दोष, परिपूर्ण गुणयुक्त स्वरूप को निरखते हैं । और, जब साकार दृष्टि से सोचते हैं कि प्रभु आकाश में समवशरण में विराजते हैं, चारों ओर से देव देवियां बहुत गान तान संगीत के साथ, बड़े उमंग के साथ सब लोग आ रहे हैं प्रभुचरणों में भक्ति करने के लिए, यह सब जो आकर्षण है वह किस बात का है? बह सब आकर्षण है वीतरागता का । वीतराग प्रभु के निकट पहुंचने के लिए किसी के पास खबर नहीं भेजी जाती । अरे वह खबर तो बिजली की तरह स्वयं फैलती है तथा अचानक ही अनेक शंखनाद वगैरह हो जाया करते हैं, देवों के आसन स्वयं कंपित हो जाते हैं जिससे भी सब प्रभुपद का ध्यान कर लेते हैं और सबके सब वहाँ जाकर प्रभुभक्ति में रत रहा करते हैं । यह सब प्रताप है वीतरागता का । हम यदि शांत रह सकते हैं तो वीतराग होकर ही शांत रह सकते हैं । रागसहित होकर हम शांति के सपने देखें तो यह बिल्कुल विरुद्ध बात होगी । तो रागभाव को छोड़कर ऐसे ज्ञानमय अपने आत्मस्वरूप में पहुंचें, जिस पहुंच में छल कपट अथवा अन्य किसी प्रकार के अंतर बाह्य यत्न की जरूरत नहीं । मन, वचन, काय के योग की जहाँ वृत्ति नहीं, केवल ज्ञान द्वारा ज्ञान में ज्ञान को अवस्थित करने की वृत्ति है, ऐसे अपने आपके इस पवित्र कार्य में, अपने आपके स्वरूप में समाये जाने में उद्यम करें तो यही एकमात्र सारभूत काम है । निरपेक्ष होकर, मंदकषाय होकर, आत्महित की अभिलाषा से आप अपनी प्रत्येक वृत्तियों में एक यह प्रश्न उठाते जाये कि क्या इस समस्त अनंतकाल में यही काम सारभूत है? ऐसा सोचने पर जो सारभूत काम नहीं है उससे हट जायेंगे और जो सारभूत काम है उस पर दृष्टि पहुंचते ही आप जम जायेंगे । यही सारभूत काम है । क्या मिला तब सारभूत? ‘‘राग त्यागि पहुंचूं निजधाम ।’’ इस एक काम के सिवाय अन्य कोई यत्न, अन्य कोई कार्य सारभूत नहीं है ।
विकल्प तोड़कर निजधाम में ही पहुंचने की सारभूतता―आप अनुभव करके देख लीजिए । बाह्य में कर करके कोई काम पूरा नहीं होता । जब ऐसी दृष्टि बने कि अब तो मेरे करने को कुछ काम रहा नहीं, तब काम पूर्ण हो सकेगा । काम कर करके काम कभी पूरा हो नहीं सकता । और, काम हमें करने को लोक में कुछ नहीं रहा, यह बुद्धि तभी बन सकती है जब स्वरूप चतुष्टय का भेद व ज्ञानज्योति हमारे उपयोग में स्पष्ट रहे । क्या कुछ हो सकता है मेरे द्वारा किसी परपदार्थ में? मैं अपने प्रदेश में हूँ । अपने ही प्रदेशों में अपने ही गुणों से हूँ और यहाँ ही मेरी रचना होती रहती है, इसके आगे मेरा संबंध नहीं है । मेरे द्वारा बाह्य में कुछ किया जा सकता नहीं । केवल भाव कर सकता हूँ । जहाँ ऐसा बोध हो वहाँ ही यह बात चित्त में आ सकती है कि इस जगत में मेरे किये जाने योग्य कुछ भी कार्य नहीं । सो इस कार्य से विकल्प छूटे, इसका राग छूटे और में अपने आपके स्वरूप में पहुंचूं तो फिर वहाँ आकुलता का कोई काम नहीं हे । ऐसे स्वतंत्र, निश्चल, निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतमराम को ध्याये जिसके आलंबन से सारे क्लेश संक्लेश दूर होंगे ।