वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 193
From जैनकोष
मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव्व कसाएण सुद्रु आविट्ठो ।
जीवं देहं एक्कं कष्णंतो होदिं बहिरप्पा ।।193।।
तीर्थंकर प्रभु के 46 गुणों में जन्म के दस अतिशयों का वर्णन―तीर्थंकर अरहंत वे कहलाते हैं जिनमें 46 गुण पाये जाते हैं । 46 गुणों में चार तो मुख्य है―अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद, और इस स्वाभाविक गुणविकास के अलावा शेष अन्य अतिशय हैं । उनमें जन्म के 10 अतिशय हैं, तीर्थंकर भगवान का जन्म होता है तो जन्म से ही उनके ये आश्चर्यकारी बातें रहती है । उनके देह का अतिशय रूप होता है, जिस सुंदरता की शानी का अन्य कौन बताया जावे? तीर्थंकर के शरीर में जन्म से ही यह अतिशय है कि सुगंध आती है । सबके शरीर में गंध तो होती है पर भगवान के शरीर में उत्तम गंध होती है । उनके शरीर में पसेव आदि नहीं उत्पन्न होते । दुर्गंध का साधन तो मुख्यतया पसेव है, उनका शरीर पसेव से रहित है, उनके वचन प्रिय और हितकारी होते हैं । वे जीव भी बड़े भाग्यवान हैं जिन्होंने उन तीर्थंकरदेव के बचपन में, गृहस्थावस्था में भी वचन सुने हों । जिनके शरीर में अतुल्य बल पाया जाता है, हजारों लाखों करोड़ों सुभटों में जो बल है उससे भी अधिक बल तीर्थंकर के देह में होता है । जिनका रुधिर श्वेत वर्ण का होता है । रुधिर सभी के श्वेत और लाल दोनों होते हैं, पर मिले हुए होते हैं । उसमें यह पता नहीं पड़ पाता कि यह सफेद खून है, लेकिन सफेद खून विषैले कीटाणु का नाशक होता है, रोगनाशक होता है। किसी में श्वेत कम है, लाल रक्त अधिक है । प्रभु के देह में श्वेत खून है, जिनके शरीर में 1008 लक्षण पाये जाते हैं । हथेली में पैरों में कुछ ऐसे लक्षण होते हैं शकुन शास्त्र के अनुसार कि जिनसे उनका महाभाग्यपना विदित होता है । शंख, चक्र, धनुष, ध्वजा आदिक बहुत से आकार हैं, और इनके अतिरिक्त तिल, मोर आदिक भी लक्षण होते हैं, जिनका संस्थान समचतुरस्र है । नाभि से नीचे पैरों तक जितनी लंबाई, है, नाभि से ऊपर सिर तक उतनी लंबाई होती है समचतुरस्र संस्थान में । हाथ पैर की तुलना में ठीक-ठीक प्रमाण रहना यह समचतुरस्र संस्थान में होता है । जिनके बज्रवृषभनाराचसंहनन है, जिनकी हड्डियाँ वज्र की तरह प्रबल हैं, जिनका शरीर ही ब्रज की तरह प्रबल है, इतने पर भी सुकोमल शरीर रहता है ।
तीर्थंकर के कल्याणक―जन्म के समय ही जिनके 10 अतिशय प्रकट हुए है वे तीर्थंकर भगवान जब कुछ बड़ी उम्र पाकर विरक्त होते हैं, जिनके पंचकल्याणक मनाये जाते हैं, गर्भ के समय भी कल्याणक होता, 6 माह पहिले से रत्नवर्षा उनके महल के आंगन में हुआ करती है और कुबेर इंद्र के द्वारा प्रबंध चलता है । गर्भ के समय अनेक देवियाँ माता की सेवा करती थीं और जैसे भी उनका दिल बहले, जैसे भी वे प्रसन्न रहें, वे सब उपाय देवियाँ करती थीं, वचन व्यवहार भी ऐसा कि काव्यअलंकार की चर्चा सहित वार्ता करके देवियाँ तीर्थंकर की माता का मन प्रसन्न रखती थीं । जन्म के समय तो बड़े ठाठबाट से इंद्र पांडुशिला पर ले जाकर मेरुपर्वत पर उनका अभिषेक करते थे । फिर जब विरक्त होते हैं तब भी कल्याणक रचा गया, तप कल्याणक के समय लौकांतिक देव आते हैं और भगवान के वैराग्य की प्रशंसा करके चले जाते हैं । ये लौकांतिक देव अन्य समय में नहीं आते, सिर्फ वैराग्य के समय में आते हैं । उन्हें वैराग्य प्रिय है । लौकांतिक देव एक भवावतारी होते हैं । एक मनुष्यभव पाकर मुक्त हो जाते हैं । उनके द्वारा की गई वैराग्य की प्रशंसा से यहाँ लोगों के वैराग्य की ओर और भावना दृढ़ होती है ।
तीर्थंकर के दीक्षाकल्याणक के समय का प्रभावक दृश्य―प्रभु के वैराग्य समय इंद्र एक बड़ी सुसज्जित पालकी बनाता है, भगवान से प्रार्थना करता है, अभी वे भगवान गृहस्थावस्था में हैं, पालकी में विराजने के लिए प्रार्थना करता है । जब भगवान उस पालकी में विराजमान होते हैं और इंद्र उस पालकी को लेकर चलने के लिए उद्यत होता है उस समय कवियों ने अलंकार में बताया है कि मनुष्य लोग उस इंद्र को पालकी उठाने के लिए रोक देते हैं, दोनों से विवाद होता है, उसका निर्णय अधिकार 4-5 विवेकी पुरुषों को दिया जाता है, तो वे विवेकी पुरुष क्या निर्णय देते हैं कि देखिये―इस पालकी को उठाने का अधिकारी वह है जो इन भगवान के समान ही विरक्त होकर इन जैसा ही बन सके । सो मनुष्यों को उस पालकी के उठाने का निर्णय दिया गया । उस समय मानो इंद्र अपना माथा ठोकता हुआ कहता है―ऐ मनुष्यों, तुम हमारा सारा देवत्व ले लो, सारी इंद्रत्व की विभूति ले लो, पर अपना मनुष्यत्व मुझे दे दो । तो अब आप सोचिए―इस मानवजीवन की कितनी महत्ता है? हम आप सब आज मनुष्य पर्याय में हैं, इस दुर्लभ मानवजीवन को व्यर्थ न खोयें, अपने उपयोग को कुछ बदलें और कल्याण की ओर चलें तो हम आपको बड़ा जौहर प्राप्त होगा । अपने आपके आत्मा में उस सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन होंगे जिसकी प्रसन्नता में संसार के समस्त संकट समाप्त हो जाते हैं । तप कल्याणक मनाया गया ।
तीर्थंकर केवलज्ञानी के प्रति भक्ति विशेषता व अतिशय विशेषता―तीर्थंकर प्रभु जबसे तपश्चरण ध्यान करते हैं तब से मौन हो जाते हैं, और जब केवलज्ञान होता है तो दिव्यध्वनि के रूप में उनकी वचनवर्गणायें खिरती हैं । भव्य जीवों के भाग्य से और उनके वचनयोग के निमित्त से दिव्यध्वनि खिरती है, गणधरदेव उसका पूर्ण अर्थ समझते हैं, द्वादशांग की रचना करते हैं, उस परंपरा से आचार्यजन ग्रंथ रचना करते हैं, उसी परंपरा से आज हम सबको महान ग्रंथ प्राप्त हैं । जरा आचार्य संतों की उस निधि का तो ध्यान करें, कितनी अपूर्व निधि है? हम अपने आपके कल्याण के लिए उन्होंने कैसे-कैसे ग्रंथ रच दिये हैं, उन्हें हम आप आज अपने उपयोग में नहीं लेते, उनसे कुछ फायदा नहीं उठाते तो यह अपनी ही मूर्खता है । तीर्थंकर भगवान के केवलज्ञान के समय और विहार आदिक के समय अनेक अतिशय प्रकट होते हैं, जिन्हें देव रचते हैं, उन्हें देवरचित अतिशय कहते हैं और जिनके इंद्र ही पहरेदार बनकर उन अतिशयों को प्रकट करने में कारण बनते हैं वे प्रातिहार्य कहलाते हैं । देवरचित 14 अतिशय हैं―भगवान के अर्हमाल्ती भाषा का, होना, सब जीवों में मित्रता का व्यवहार होने लगना, दिशायें निर्मल, आकाश निर्मल छहों ऋतुओं के समस्त फल फूल एक साथ फूलने फलने लगना, पृथ्वी का काँच के समान स्वच्छ हो जाना । जब विहार करते हैं प्रभु तो उनके चरणकमल के नीचे स्वर्णकमल की रचना होती चली जाती है । आकाश से जयजयकार की ध्वनि होने लगती है । सुगंधित वायु चलती, मंद-मंद सुगंध की वृद्धि होती, समस्त जीवों को हर्ष उत्पन्न होता, भूमिका निष्कंटक हो जाना ऐसे अनेक अतिशय प्रकट होते हैं ।
केवलज्ञान होने पर होने वाले अतिशय―जहां भगवान विराजे हों वहाँ से चारों ओर 100-100 योजन तक सुभिक्ष हो जाता है, कहीं अकाल नहीं रहता, लोग दुःखी नहीं रहते, कैसा पुण्योदय है कि जहाँ प्रभु विराजमान हैं उनके चारों ओर 100-100 योजन तक दुर्भिक्ष, अकाल, पीड़ा नहीं रहती । प्रभु का आकाश में गमन होता है, वे पृथ्वी पर विहार करते हुए नजर न आयेंगे । जब वे समवशरण में गंधकुटी में विराजमान होते हैं तो चारों ओर सभायें रहती हैं । बारह सभायें गोल-गोल रहती हैं । उसमें रहने वाले सभी जीवों को प्रभु का मुख दिखता है । चारों ओर मुख दिखे ऐसा अतिशय प्रकट होता है, यह सब पुण्य की रचना की बात है । ये कोई सी भी बातें कल्पित नहीं हैं, अनेक बातें तो वैज्ञानिकों ने अभी सिद्ध कर दी हैं, अनेक बातें तो बड़ी कलाओं से अब भी जानी जायेंगी । प्रभु के ऊपर उपसर्ग नहीं होता । उनके किसी प्रकार का विकार अदया का भाव नहीं होता । प्रभु अब कवलाहार भी नहीं करते । बिना आहार किए ही अरबों वर्षों तक वे अरहंत अवस्था में रहकर भव्य जीवों को उपदेश देते रहते हैं । ध्यान की अब उन्हें जरूरत नहीं है । मन का विचार अब उनके नहीं चलता । केवलज्ञानी हो गए, केवलज्ञान द्वारा समस्त लोक को एक साथ स्पष्ट जान लेते हैं । प्रभु के चार घातिया कर्मों को अब वहाँ स्थान नहीं है । पूर्ण नष्ट हो गए हैं वे घातिया कर्म, अब वे कभी पनप नहीं सकते । इसलिए सदा ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति प्रकट रहती है, अभी अघातियाकर्म शेष हैं, इनमें सातावेदनीय भी उदय में चल सकती है मगर उसका उदय निष्फल है । जैसे सातावेदनीय का उदय निष्फल है, उनका आनंद तो आत्मा में उत्पन्न हुआ स्वाधीन आनंद है । साता असाता के उदय के विपाक अब उनके नहीं रहे, क्षुधा, तृषा आदिक उपद्रवों का भी अब कोई काम नहीं है । समस्त विद्याओं का ऐश्वर्य वहीं केवलज्ञान में प्राप्त हुआ है । अब उनके केश और नख नहीं बढ़ते । अरहंत होने के पश्चात् भी जब तक आयुकर्म शेष रहता है, करोड़ों अरबों वर्ष भी गुजर जायें पर प्रभु के नख व केश नहीं बढ़ते । और न कभी कवलाहार उन्हें करना होता है । जिनके नेत्रसिंकार नहीं रहती । नेत्र ज्यों के त्यों स्थिर रहते हैं । अब उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती, स्फटिकमणि के समान उनका स्वच्छ देह हो जाता है । ऐसे केवलज्ञान के प्रकट होने पर अतिशय प्रकट होते हैं । तो जहां ऐसा अतिशय प्रकट हो उन्हें अरहंत कहते हैं ।
सकलपरमात्मा व निकलपरमात्मा का वर्णन―उक्त अतिशयों में से अनेक अतिशय सामान्य केवली के भी प्रकट हैं, पर वहाँ यह नियम नहीं है कि समस्त अतिशय सामान्य केवली के प्रकट हो जायें । जन्म के अतिशय तो जन्म से संबंधित हैं । तो तीर्थंकर परमदेव 46 गुण करके युक्त हैं और सामान्य केवली के यथासंभव अतिशय प्रकट है, परमूल अतिशय जो अनंत चतुष्टय है, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद, वे बराबर प्रकट हैं । परमात्मा दो प्रकार के बताये गए हैं-―सकलपरमात्मा और निकलपरमात्मा । उससे ही संबंध यह सब प्रकरण चल रहा है कि शरीरसहित परमात्मा का नाम सशरीर परमात्मा है । सो तीर्थंकर केवली व सामान्य केवली सब सकलपरमात्मा हैं । निकलपरमात्मा उन्हें कहते हैं जो सर्व अघातिया कर्मों से भी निवृत्त हो गए हैं, केवल स्वात्मतत्त्व ही रहा । ये सकलपरमात्मा ही सब निकलपरमात्मा हो जाते हैं । अब वे अनंतानंत गुणों से विराजमान लोक के अग्रभाग पर स्थिरता से विराजे हुए हैं । भगवान कहाँ रहते हैं? इसके उत्तर में कुछ लोग तो यह कहते हैं कि वे सर्वव्यापी हैं, सब जगह हैं और कुछ लोग कहते हैं कि वे ऊपर रहते हैं । प्रकृति भी लोगों की ऐसी पड़ गई है कि जब भगवान का नाम लेंगे तो ऊपर को थोड़ा मुख उठाकर नाम लेकर स्मरण करेंगे । यह पद्धति इस बात को सिद्ध करती है कि भगवान का, सिद्ध का निवास लोक के अग्रभाग पर है ।
प्रभु की सर्वव्यापकता―प्रभु सर्वव्यापक है, यह बात कई अपेक्षाओं से सिद्ध होती है । ज्ञान की अपेक्षा से प्रभु सर्वव्यापक है, लोक में ही क्या, अलोक में भी व्यापक है । जब केवली समुद᳭घात होता है उस समय भी एक समय के लिए भगवान प्रदेशों से समस्त लोकालोक में व्यापक बन जाते हैं । अरहंतदेव के चार अघातिया कर्म शेष रहते हैं, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । तो जब आयुकर्म अंतर्मुहूर्त रह गया और बाकी कर्म लाखों वर्षों की स्थिति के हैं तो ऐसा तो होगा नहीं कि आयुकर्म नष्ट हो जाय और बाकी कर्म रहे आयें । चारों अघातियाकर्म एक साथ नष्ट हुआ करते हैं । तो उस समय समुद्धात होता है । अरहंत भगवान विराजे हैं तो उनके आत्मा के प्रदेश दंडाकार नीचे से ऊपर तक फैल जाते हैं, इसे कहते हैं दंडसमुद᳭घात । दंडसमुद᳭घात के समय में औदारिक काययोग होता है, शरीर परमाणु आते रहते हैं इस कारण वे आहारक कहलाते हैं और पर्याप्त होते हैं । इस एक समय के बाद प्रभु के प्रदेश अगल बगल फैलते हैं, जहाँ तक कि वातवलय नहीं आते । उसे बोलते हैं कपाटसमुद᳭घात । जैसे किवाड़ का आकार होता है फैला हुआ, उस तरह से यहाँ प्रदेश फैले हैं । इस तेरह कपाटसमुद᳭घात इनका नाम है । इस समय औदारिक मिश्रकाययोग हो गया अर्थात् औदारिक देह की वर्गणाओं और कार्माण वर्गणाओं का मिश्रण करके योग चलता है उस समय आहारक रह रहे हैं, शरीरवर्गणायें आ रही हैं किंतु अपर्याप्त हो जाते हैं । इसके पश्चात् दूसरे समय में प्रतरसमुद᳭घात होता है । आगे पीछे के भी देश फैल जाते हैं। उस समय कार्माण काययोग होता है, प्रभु अनाहारक होते हैं, अपर्याप्त होते हैं, अर्थात् शरीर परमाणु अब ग्रहण में नहीं आ रहे, इसके पश्चात् लोकपूरण समुद᳭घात होता है कि जो वातवलय थोड़ा रह गया था वहाँ भी प्रदेश फैल जाते हैं । इस एक समय में लोकपूरण समुद᳭घात के समय लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर आत्मा का एक-एक प्रदेश रह जाता है, इसके बाद फिर प्रदेश सिकुड़ते हैं, प्रतरसमुद᳭घात की स्थिति में आते हैं, फिर कपाटसमुद᳭घात की स्थिति में, फिर दंडसमुद᳭घात की स्थिति में, इसके बाद देह में उनका प्रवेश हो जाता है । इस क्रिया के समय वे सभी कम आयु के प्रमाण करीब अंतर्मुहूर्त के हो जाते हैं, थोड़ा फर्क रहता है, सो वह फर्क भी इसके बाद तत्काल निकल जाता है । जब सब घातिया कर्म अंतर्मुहूर्त की स्थिति में हो गए तब पूर्णतया योगनिषेध हो चुकने पर 14 वें गुणस्थान में ये अरहंत प्रभु पहुंचते हैं और उनके अंतिम दो समयों में सभी प्रकृतियों का नाश हो जाता है, और वे सिद्ध हो जाते हैं, तब वे निकलपरमात्मा कहलाते हैं ।
निकलपरमात्मा का परिचय―निकलपरमात्मा, अशरीर सिद्ध भगवान ऊर्द्धगति से लोक के अग्रभाग तक पहुंच जाते हैं । अब वे सदाकाल अवस्थित हैं । सिद्ध भगवान की स्तुति में कहते हैं कि जो ‘‘एक माहि एक राजे एक माहि अनेकनों, एक अनेकन की नहीं संख्या, नमो सिद्ध निरंजनो’’ । ऐसा पढ़ तो जाते हैं पर अर्थ याद न होने से कुछ से कुछ भी पढ़ लेते हों, एक की जगह अनेक, अनेक की जगह एक । अब देखिये इसका अर्थ कितना मार्मिक है और प्रभु के अंतःस्वरूप को बताने वाला है । ये सिद्ध भगवान निरंजन हैं, इनके अब अंजन नहीं रहा । जैसे कि अंजन खूब लिपटकर ही लग सकता है, दूर-दूर रहकर नहीं लगता, ऐसे ही ये शरीर द्रव्यकर्म ये आत्मा से लिपटकर रह रहे हैं इसलिए इन्हें अंजन कहते हैं । जहां, शरीर, कर्म, विकार आदि कुछ नहीं हैं ऐसे प्रभु को निरंजन कहते हैं । ये एक माहि एक राजे हैं―अर्थात् प्रत्येक सिद्ध एक में एक ही रह रहे हैं । जितने भी सिद्ध हुए हैं वे सभी अपने आपके प्रदेश में ही केवल रागादिक रूप परिणाम रहे हैं । एक में दूसरे का प्रवेश नहीं है, यहां परिणाम की बात देखिये, अनुभव की बात देखिये । प्रत्येक सिद्ध अपने आपके एक में ही वह एक है, वे प्रत्येक सिद्ध, एक में एक ही विराज रहे हैं । यद्यपि जिस क्षेत्र से कोई एक सिद्ध हुआ है उसी क्षेत्र से उसी जगह से अनंत सिद्ध हो गए और वे जाकर वहीं विराजमान हैं जहाँ कि कोई एक हो, लेकिन एक ही जगह में अनंत सिद्ध रहने पर भी प्रत्येक सिद्ध अपने आपके स्वरूप में अपने ज्ञानानंद को भोग रहे हैं, किसी में किसी दूसरे का परिणमन, प्रवेश नहीं है, अतएव प्रभु एक में एक ही राज रहे हैं । और एक में अनेक राज रहे हैं सिद्ध प्रभु । जहाँ एक सिद्ध प्रभु हैं वहीं अनंत सिद्ध भगवान हैं । एक में अनेक विराज रहे हैं । और, वहाँ एक अनेक की कोई संख्या नहीं है, संख्या से परे हैं ना, अनंत हैं ना, अनेक में कितने आये? उसका काई उत्तर नहीं है । अंतरहित, यों भी एक अनेक की संख्या नहीं है, और यदि सिद्ध में, भगवान् में अंतस्वरूप का ध्यान किया जाय तो वह तो एक विशुद्ध चैतन्यमात्र है । और, यदि बड़ी तन्मयता से सिद्ध प्रभु की उपासना कर रहे हों तो उस उपयोग में तो विशुद्ध चैतन्यभाव ही समाया हुआ है, उसकी सीमा नहीं, उसकी व्यक्ति नहीं । उसमें एक अनेक की गिनती नहीं । यों भी एक अनेक की संख्या अब नहीं रही ।
कर्मक्षयसिद्ध व सहजसिद्ध प्रभु की उपासना का अनुरोध―ऐसे निरंजन सिद्ध भगवान जिनका हम गुण गा रहे हैं, ऐसी शक्ति, ऐसा स्वभाव हम आप सबके अंदर है, पर अपनी कदर नहीं किए हुए हैं । इसी से संसार में रुलना भटकना बन रहा है । जब भी अपने आपके इस सहज परमात्मतत्त्व पर दृष्टि होगी, अपनी महत्ता विदित होगी, इन भोगों से, इन लगाओं से, इन व्यर्थ की करतूतों से उपेक्षा बनेगी, अपने आपमें उपयोग रमेगा, सब कर्मबंधन झड़ जायेंगे और यही पद, यही विकास जो परमात्मा को प्राप्त है, हम आप सबको प्राप्त होगा । प्रोग्राम तो इसी का ही सच्चा है, बाकी जो जिंदगी ने अनेक प्रोग्राम बनाये बैठे हैं, अमुक कार्य करना, अमुक बात सिद्ध करना वे सब बेकार हैं । यही प्रोग्राम सार्थक है कि मैं केवल रह जाऊँ । मैं अपने आपको केवल निरखूँ, केवल में ही अपना उपयोग जमाऊँ । केवल ही मुझे रहना है, क्योंकि मैं केवल हूँ । मैं केवल ही तो सत् हूँ । दो पदार्थ मिलकर मैं सत् नहीं बना, ऐसा जैसा मैं सहज सत् हूँ, केवल हूँ, वही मात्र मुझे रहना है, ऐसा प्रोग्राम बनाये कोई तो, उसका विवेकपूर्ण प्रोग्राम है और उसका मनुष्य जीवन का जीना भी सफल है, इसके लिए परमात्मा की भक्ति में रहें और अपने आपमें बसे हुए सहज सिद्धप्रभु की भी याद कर रहे हों, इसमें ही कल्याण है ।
बहिरात्मा के स्वरूप के वर्णन में बहिरात्मा की मिथ्यात्व से अभिगृहीतता―तीन प्रकार के जीवों में से बहिरात्मा का स्वरूप कहा जा रहा है । जो आत्मा मिथ्यात्व से परिणत है और तीव्रकषाय से युक्त है, जो देह और जीव को एक माने उसे बहिरात्मा कहते हैं । यहां मुख्यतया मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव की चर्चा चल रही है । मिथ्यादृष्टि कहो, बहिरात्मा कहो, एक ही बात है । मिथ्यादृष्टि, मिथ्या का अर्थ है संयोग वाली बात । मिथ्या का लोग अर्थ करते हैं ‘‘उल्टा ।’’ मिथ्या मायने उल्टा लगाते हैं पर मिथ्या का सही अर्थ ‘‘उल्टा’’ नहीं है, किंतु मिथ्या मिथ् धातु से बना है । संबंध इसका अर्थ है । परस्पर संबंध के अर्थ में मिथ् धातु बनी है जिससे मैथुन मिथ्या मिथुन आदिक शब्द बनते हैं । जिसकी अर्थ हैं―दूसरी चीज में संश्लेष होना । परमैश्लेष दृष्टि होने का नाम है मिथ्यादर्शन । जो आत्मा का स्वरूप नहीं है ऐसे अन्य स्वरूप में परभाव में श्रद्धा होने का नाम ‘‘यह मैं हूँ’’ इसका नाम है मिथ्यादर्शन । मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वभाव से परिणत है । मिथ्यात्वभाव होता है मिथ्यात्व नाम दर्शन मोहनीय प्रकृति के उदय से । वहाँ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ का भी उदय होता है । सम्यक्प्रकृति और सम्यक्मिथ्यात्व का उदय क्रमश: क्षयोपशम (वेदक) सम्यक्त्व में, व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है पर मिथ्यात्व के उदय में जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है । मिथ्यात्व कहते हैं उस कर्म को जिस कर्म के उदय में जीव का दर्शन बिगड़ जाता है, श्रद्धा विपरीत हो जाती है । जीवों का अपना स्वामी मानना, अपना कुटुंबी समझना, देह को आपा मानना, जो अपने में भाव बनते हैं उन भावों में लगाव रखना; क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम में अपने आपकी श्रद्धा करना, मैं ही तो कर रहा हूँ, मैं दूसरे को पालता हूँ, सेवता हूं, रक्षा करता हूँ आदिक कर्तृत्व बुद्धियाँ मिथ्यात्व में हुआ करती हैं । मैं अमुक विषय को भोगता हूँ, यों भोगने की बुद्धि मिथ्यात्व में होती है । वस्तुत: देखा जाय तो कोई पुरुष मिठाई खाकर मिठाई का रस नहीं भोग रहा, किंतु मिठाई के रस का जो ज्ञान हो रहा है उससे सुख मान रहा है । मिठाई से क्या सुख भोगेगा? मिठाई तो पौद्गलिक चीज है । उसका भोगना क्या होगा ? तो अन्य वस्तुओं के भोगने को करने का भाव मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है ।
बहिरात्मा की तीव्रकषाय से आविष्टता―यह जीव तीव्रकषाय से गृहीत रहता है । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय में इस जीव को अपने आत्मा की सुध नहीं रहती है। अनंतानुबंधी क्रोध जिसका संस्कार भव-भव में साथ जाय, जैसे पुराणों में चर्चा मिलती है कि कमठ का जीव भव-भव में मरुभूति के जीव को सताता रहा। अन्य कथायें भी ऐसी प्राप्त हैं जिनमें भव-भव के संस्कार बताये गए। तो जिनका संस्कार 6 माह से भी अधिक चले वे सब अनंतानुबंधी की कषाय कहलाते हैं। धर्म के संबंध में क्रोध, मान, माया, लोभ का प्रसंग आये तो समझिये कि वह अनंतानुबंधी है। जैसे धर्म कर रहे, पूजा कर रहे, या अन्य कोई धार्मिक कार्य कर रहे और उसी प्रसंग में तीव्र क्रोध जग जाय तो यह क्या है? यह अनंतानुबंधी क्रोध का रूप है। जिस धर्म का प्रसंग शांति के लिए होता है उसका प्रसंग इसके क्रोध का कारण बनता है। कुछ थोड़ा धर्म किया, घमंड में आ रहे, लोग जानेंगे कि आज उपवास किए हुए हैं, मैं ऐसी पूजा करता हूं, यह सब क्या है? यहाँ दूसरों को दृष्टि में अपने को धर्मात्मा जता देना यह अनंतानुबंधी मान है। मायाचार धर्म के प्रकरण में रखना। मन में और, वचन में और, करे कुछ और, दिल में तो दया नहीं, रूप बनाया गया बड़े दयालु का, अथवा दिल में तो धर्म की रुचि नहीं, पर अपने हावभाव गानतान द्वारा यह बतलाने की चेष्टा करना कि हम धर्मात्मा हैं यह क्या है? यह अनंतानुबंधी माया है। जिस धर्म का प्रसंग हमारे सब संकटों को दूर करने के लिए था उसी को अपने दिलबहलावा कषाय पूर्ति करने का साधन बनाया, कभी अकेले दर्शन कर रहे हैं तो झट जल्दी बोलकर कर रहे हैं, मगर कोई दो चार आदमी आकर दर्शन करने लगें तो उनको देखकर खुद बड़े सुरीले गान गाने लगते हैं। सामायिक जैसे चाहे कर रहे, मगर कोई दो चार आदमी आ गए तो अटेन्सन में हो गए, यह क्या है? यह अनंतानुबंधी माया का स्वरूप है। धर्म के प्रसंग में लोभ करना, घर गृहस्थी मोह मोहब्बत के काम में सब कुछ खर्च करने को तैयार रहते हैं पर किसी पड़ौसी भाई पर कोई खर्च करने की जरूरत पड़ जाय तो उसमें बड़ा हिसाब लगाते हैं, अथवा कोई धार्मिक काम में कुछ खर्च करना पड़े तो बहुत सोचा विचारी करते हैं, यह क्या है? यह अनंतानुबंधी लोभ है। तो ऐसी तीव्र कषायों में बहिरात्मा गृहीत हो जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव देह और आत्मा को एक मानता है, इसका मुख्य लक्षण है―शरीर से निराला मैं कुछ ज्ञानदर्शनमय पदार्थ हूं, यह अनुभव मिथ्यादृष्टि को न हो सकेगा।
त्रिविध बहिरात्मा―बहिरात्मा तीन गुणस्थानवर्ती जीव कहलाते हैं। मिथ्यात्व, सासादन सम्यक्त्व और सम्यक् मिथ्यात्व, लेकिन इनमें भी डटकर बहिरात्मा है पहले गुणस्थान में, मध्यबहिरात्मा है दूसरे गुणस्थान में और जघन्य बहिरात्मा है तीसरे गुणस्थान में। तीसरे गुणस्थान में बहिरात्मत्व शिथिल हुआ क्योंकि यहाँ सम्यक् मिथ्यात्व मिले हुए परिणाम रहते हैं। न केवल सम्यक्त्व रहा, न केवल मिथ्यात्व। जैसे दृष्टांत समझ लीजिए कि किसी पुरुष को वीतराग देव, वीतराग धर्म और वीतराग गुरु पर श्रद्धा हुई जो कि पहिले सराग देव, सराग धर्म और सराग गुरुओं को मानता था और सराग देवताओं की मूर्तियां भी अपने घर में रखता था उसे कारण पाकर काललब्धिवश कुछ सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा हुई है, जो रागद्वेष रहित हो, अपने शुद्ध ज्ञानप्रकाश में हो वह हमारा देव है, ऐसी कुछ श्रद्धा तो जगी, मगर यह श्रद्धा इतनी दृढ़ नहीं हो सकी कि अपने घर में स्थापित किए हुए सरागी देवताओं की मूर्तियों को अलग कर सके तो अभी उसका भाव दोनों ओर लगा है उसे न केवल सम्यक्त्व जैसी स्थिति कह सकेंगे और न केवल मिथ्यात्व जैसी स्थिति कहेंगे। तो यहाँ मिथ्यात्व प्रबल न रहा। कुछ सत्य श्रद्धान के लिए भाव होता है ऐसे परिणाम को यद्यपि सम्यक्त्व न कहेंगे, बहिरात्मापन कहेंगे, लेकिन यह है जघन्य बहिरात्मा का परिणाम। किसी जीव को सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया हो उपशम सम्यक्त्व, तो उपशम सम्यक्त्व तो छूट जाय और मिथ्यात्व का उदय न आ पाये, ऐसी बीच की स्थिति कि जहाँ सम्यक्त्व की विराधना हो रही है उस परिणाम को कहते सासादन सम्यक्त्व। अब यह जीव नियम से मिथ्यात्व में आयेगा और परिणाम विपरीत ही हो गया तो उसे कहेंगे मध्यम बहिरात्मा और मिथ्यात्व गुणस्थान में रहने वाला जीव यह है उत्कृष्ट बहिरात्मा। देखो जो मोही है ममतावान है, अज्ञानी है उसे कहते हैं उत्कृष्ट बहिरात्मा। उत्कृष्ट नाम लगा है ऐसा जानकर अज्ञानीजन फूल न जायें कि मुझे उत्कृष्ट कह दिया। उत्कृष्ट तो कहा गया, मगर कैसा उत्कृष्ट? बहिरात्मा उत्कृष्ट। जैसे किसी को कहा जाय यह तो मूर्खों का बादशाह है, तो बादशाह शब्द सुनकर खुश न होना चाहिए, क्योंकि वहाँ बादशाह का अर्थ महामूर्ख है तो ऐसे ही बहिरात्मा कहा गया है मगर उसका अर्थ है कि वह महा बहिरात्मा है, मोही है। इसका प्रधान लक्षण यह जानें कि जो देह जीव को एक मान रहा है सो बहिरात्मा है याने जो बाह्य तत्त्वों को अपने रूप से अनुभव कर रहा है उसका नाम बहिरात्मा है।
भविष्य की निर्भरता परिणामों पर होने से परिणामों की सम्हाल का अनुरोध―भैया ! भला बुरा भविष्य परिणामों की निर्मलता पर निर्भर है। दिखावा से कुछ काम न चलेगा। कर्मबंध तो होता है भीतर के परिणामों
का निमित्त पाकर। कोई ऊपरी-ऊपरी धर्मक्रिया कर रहा हो इतने से वह कर्मबंध से बच जाय सो बात न होगी। हाँ भीतर का परिणाम अगर निर्मल है और वह कदाचित् बाह्य धर्मकार्य में नहीं भी लग रहा है, लेकिन प्रतीति सच्ची होने से वह किसी भी जगह रहता हुआ अनेक कर्मों के बंध से छूटा हुआ है। इसलिए हम आपको अपने परिणामों की संभाल करने में असावधानी न करना चाहिए। देखो केवल एक लक्ष्य की बात है और वह ज्ञान की बात है। जैसे ज्ञान में आ गया कि यह घड़ी है तो इसके समझने में आपको कुछ कठिनाई हुई है क्या? बस जान गए, इसमें कठिनाई की क्या बात? अब यह जो जान गए वह जानना मिट भी जायेगा क्या? बस समझ लिया, हाँ यह है घड़ी। तो ऐसे ही यह आत्मा भी कोई वस्तु है, स्वयं ज्ञानमात्र यह मैं भी तो कोई चीज हूं, यदि मैं कुछ न होऊं तब तो बड़ी ही अच्छी बात है। ये दु:ख सुख किसमें होते हैं? होते तो हैं ना? तो जब मैं कुछ हूं और अपने आपका मुझे हो जाय ज्ञान तो इस ज्ञान में कोई श्रम पड़ता है क्या? और हो जाय एक बार ज्ञान तो हो गया, फिर उसका भूलना कैसा? जान ही गए। तो किसी भी प्रकार यदि हम अपने सहजस्वरूप का ज्ञान कर लेते हैं तब संतोष करना चाहिए कि हमें जो कुछ करना था सो सब कुछ कर लिया, और एक निज ज्ञानस्वरूप का ज्ञान न कर सके तो चाहे धनपति बन जायें, प्रतिष्ठावान् बन जायें, कैसी ही लौकिक ऊंची प्रतिष्ठायें पा लें लेकिन यह समझो कि मैंने कुछ भी नहीं किया। बहिरात्मापन छूट गया तब तो है अपना उद्धार, और यदि उसी मोह ममता में ही पगे हुए हैं तब तो फिर अपने उद्धार की कोई संभावना नहीं है।