वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 194
From जैनकोष
जे जिण वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव देहाणं ।
णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरप्पा य ते तिविहा ।।194।।
अंतरात्मा की जिनवचनकुशलता―जो पुरुष जिनेंद्र भगवान के वचनों में कुशल हैं, तीर्थंकर गणधरदेव आदिक के जो वचन हैं, द्वादशांग में अथवा वर्तमान उपलब्ध शास्त्र इनके ज्ञान में जो दक्ष हैं, जो जिनेंद्रदेव की आज्ञा का प्रतिपादन करने वाले हैं, जो देह और जीव के अंतर को जानते हैं ऐसे पुरुष अंतरात्मा कहलाते हैं, पर द्रव्य से भिन्न अपने आत्मस्वरूप में जिनकी रुचि है उनका नाम है अंतरात्मा। सम्यग्दृष्टि जीव अनेक विवादों से परे रहते हैं। लोक में बड़ा झंझट है और वह अज्ञान से बनाया हुआ है। पद-पद पर अज्ञानी को झंझट आ सकता है। ज्ञानी पुरुष सब रहस्य को जानता है कि यहाँ का प्राप्त समागम पुण्य पाप का खेल जैसा है। उदय अनुकूल है तो लौकिक समागम मिलते हैं। पाप का उदय है तो उस दु:ख के अनुकूल समागम मिलते हैं। यहाँ थोड़े से धन पर मायाचार न करना, लोभ न करना ये सब बातें उसके ज्ञान में स्पष्ट रहा करती हैं। इस कारण कितनी ही बड़ी-बड़ी राशियों का मोह त्याग देते हैं । कहीं देखा होगा, किन्हीं दो भाइयों में न्यारापन होता है तो कोई भाई इतना उदार रहता है कि कितना ही अधिक दूसरे भाई को मिल जाय फिर भी अपने में विषाद नहीं करता है, और प्राय: देखा जाता है कि न्यारा होने के बाद जिसने अन्याय से अधिक भी रख लिया है तो कुछ समय बाद उसके पास नहीं रहता है । और एक भाई पुण्योदय में उससे कई गुना अधिक धन संचय कर लेता है । तो है क्या? ये सब उदय के अनुसार बातें चलती हैं । ज्ञानी का यह निर्णय रहता है कि मुझे कुछ भी वैभव मिले अथवा न मिले, इस पर कोई मेरा जीवन नहीं टिका है । तो मेरा जीवन तो जीवत्व भाव से है, मेरी चेतना शुद्ध रहेगी तो मेरा सच्चा जीवन है, जहाँ उपयोग अशुद्ध हो गया तो वह जीवन क्या जीव है, भावमरण है । मैं अपने भावों से अपने आपको मारता रहता हूँ । ज्ञानी पुरुषों को बाह्यपदार्थों से आसक्ति नहीं हुआ करती । जिनेंद्र भगवान के वचनों में वैराग्य और ज्ञान का उपदेश भरा हुआ है, जिस आज्ञा को ज्ञानी मानने का संकल्प बनाये हुए है ऐसा अंतरात्मा पुरुष 8 प्रकार के मदों से दूर रहता है ।
अंतरात्मा के ज्ञानमद व पूजामद का अभाव―घमंड के विषय 8 हुआ करते हैं । किसी को ज्ञान का घमंड रहता है, मैं जानकार, मैं ज्ञानी हूँ, ये लोग कुछ नहीं समझते । मैं इतना श्रेष्ठ हूँ, यह हुआ ज्ञान का मद, किंतु ज्ञानी समझता है कि इस ज्ञान का क्या मद किया जाय? क्या ज्ञान पाया है? केवलज्ञान के सामने यह ज्ञान उसके कुछ अंश भर ही कीमत नहीं रखता है । क्या जाना, सामने की बात जाना, थोड़ी बात जाना, कोई इस विद्या से ईश्वर नहीं बन जाया करता । सब विद्या का ईश्वर तो केवली भगवान प्रभु हैं । हमारा यह कुछ भी ज्ञान नहीं, और जो ज्ञान पाया है यह तो एक आलंबन है इसका सदुपयोग किया जाय, नम्र बनकर अपने आपकी ओर झुका जाय, अपने स्वरूप के दर्शन करके तृप्त रहा जाय तो यह केवलज्ञान का बीज बन जायगा । और, मद में आकर परदृष्टि बनायी जायगी तो यह संसार में रुलने का बीज बन जायगा । तो इस ज्ञान का सदुपयोग करना चाहिए न कि घमंड । अज्ञानी को पूजा का मद होता है । पूजा मायने आदर सत्कार । लोग आदर सत्कार में भूल जाते हैं । बड़े-बड़े पुरुष जो कि लाखों का दान कर जाते हैं भरी सभा में वे उसमें बुद्धि कितनी रखते हैं उनकी बात वे ही जानें, पर प्राय: करके ऐसा होता है कि जो थोड़े से लोगों ने प्रशंसा की, कुछ विशेष सत्कार किया तो वह हर्ष के मारे फूलकर लाखों का द्रव्य दान कर जाता है । वह दान तो नहीं है किंतु अपनी प्रतिष्ठा बनाने के लिए खर्च कर जाता है । यह क्या है? यह आदर सत्कार का मद है । जिस मद में आकर लोग अपने संचित धन का भी उत्सर्ग करते हैं । बड़े-बड़े सुभट लोग युद्ध में अपने प्राण गंवा देते हैं तो यह क्या उनका आदर का मद नहीं है?
मद में अपनी बरबादी―घमंड तो एक ऐसी चीज है कि जिसके कारण अपनी कितनी ही बरबादी की जा सकती है । एक पुराना कथानक है कि टीकमगढ़ की एक सुनारिन ने बड़ा हठ करके 20-20 तोले के बखौरे अपने पति से कहकर बनवाये । वहाँ सारा तन ढांककर धोती पहिनने का रिवाज है सो उन बखौरों को किसी ने देखा नहीं, वह बेचारी मन ही मन कुड़ती रही कि देखो हमने बड़ी हठ करके तो बखौरे बनवाये, पर कोई प्रशंसा के दो शब्द नहीं कहता, सो मारे गुस्सा के उसने अपने ही घर में आग लगा दी । जब घर जलने लगा तो कुछ अकल ठिकाने आयी । वह पड़ोसियों को रोकर पुकारने लगी अरे भैया ! बुझा आग, घर जला जा रहा, वह बाल्टी है, वह कुआं है, इतने में उसके हाथ के बखौरे किसी स्त्री को दिख गए । बोली―अरी बहन ये बखौरे कब बनवाये, ये तो बड़े सोने हैं―तो वह गाली देकर कहती है अरी रांड यही बात पहिले ही बोल देती तो मैं घर में आग क्यों लगाती? इस घमंड का क्रोध से ज्यादह संबंध है । जिसके मद रहता है उसके क्रोध भी भरा रहता है । आदर का मान लोग करते इसीलिए तो बरबाद हो रहे हैं, और आदर के लोभ में आकर शृंगारों का बढ़ना, सात्विक रहन सहन न होना, अनेक फैशन बनाना ये सब बातें हो रही हैं । अब तो 10 वर्ष से अधिक कोई फैशन नहीं टिकता । नये-नये फैशन बदलते रहते हैं । तो ये सब आदर सत्कार के मद में लगी हुई चीजें हैं । तो आदर सत्कार का मद, पूजा का मद ज्ञानी जीव के नहीं रहता । उसे तो अपने आपके भीतर यह बात पड़ी हुई है कि यह मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा जो स्वभाव से आनंदमय है इसकी उपासना से मैं चिगूँगा तो मेरी बरबादी है । वह यहाँ अपने आपमें अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए उत्सुक रहता है ।
अंतरात्मा के कुलमद व जातिमद का अभाव―किन्हीं को कुल का मद रहता है । मेरा बड़ा श्रेष्ठ कुल है । अरे श्रेष्ठ कुल है तो इसके लिए है कि हम धर्मपालन में आगे बढ़े । अगर कुल का मद करके इस तरह अपने को हीन कर देते कि आगे ऐसा कुल न मिले, नीच कुल में, नीच योनियों में जन्म लेना पड़े, यह होता है कुलमद का प्रभाव । किन्हीं को अपनी जाति का मद रहता है, अजी मैं ऐसे घराने का हूँ, मेरी माँ बड़े घराने की है, कभी दरिद्रता आ जाय तो अपने कुल की और जाति की अपने पहिले हुए उन पुरुषों की तारीफ करके अपने आपको श्रेष्ठ मनाना चाहते हैं । यह सब क्या है? ये सब कुल और जाति के मद हैं । ज्ञानी जीव जानता है कि मेरा कुल तो मेरा चैतन्य है, मेरी जाति तो मेरी चेतना है और यह बाहरी कर्मोदयवश पर्याय में कुल और जाति का व्यवहार है । मैं हूँ एक चैतन्यस्वरूप । मेरा वंश है चैतन्य । मेरा कुल चलाने वाला मैं ही हूँ, लोग संतान से यह आशा रखते हैं कि यह मेरा कुल चलायेगा, मेरा वंश चलायेगा, लेकिन यह विदित है कि मेरा वंश तो केवल चैतन्यभाव है, यही मेरा साथी रहेगा । जो अन्वयरूप से हो वही तो वंश है । उस चैतन्य वंश को पवित्र करने वाला मैं ही मात्र तो हूँ, दूसरा कोई मेरे वंश को पवित्र नहीं कर सकता । ज्ञानी जीव को कुल और जाति का मद नहीं रहता । ये अंतरात्मा के लक्षण बताये जा रहे हैं कि वह कितना नम्र होता, कितना भक्त होता है और कैसा उसके अंतरंग में अभिप्राय रहता है । जो अंत:स्वरूप को जानता है, अंतस्वरूप को मैं आत्मा हूँ, इस तरह मानता है उसे अंतरात्मा कहते हैं ।
अंतरात्मा के बल ऐश्वर्य तप व सुंदरता के मद का अभाव―ज्ञानी अंतरात्मा पुरुष के बल का मद नहीं रहता । शरीर में जो बल है उसे ही लोग बल कहा करते हैं । यह बल विकृत बल है । वास्तविक बल तो आत्मा का बल है केवल ज्ञातादृष्टा रहना, लेकिन अंतराय कर्म के उदय क्षयोपशम में शारीरिक बल प्रकट होता है तो अज्ञानी जीव उस बल बड़ा घमंड रखता है, मैं बलिष्ठ हूँ, अन्य ये लोग निर्बल हैं, लेकिन ज्ञानी जीव के उस बल का मद नहीं है । वह जानता है कि यह बल पर्याय की चीज है, मायामय है, इस बल में पूर्णता नहीं है । अपेक्षाकृत बल की महिमा गाई जाती है । ज्ञानी पुरुष के ऐश्वर्य मद नहीं है, जैसे बल प्रतिष्ठा आदिक होते हैं तो वे इस मद में भूल जाते हैं कि मेरा भी बड़ा प्रताप है, ये सब मेरे हुकुम में चलते हैं, यह मद अज्ञानी के होता है । ज्ञानी पुरुष जानता है कि मेरा ऐश्वर्य तो मेरा सहज स्वरूप विकास है । उस ज्ञानी पुरुष में जो अपने आपका सत्य अनुभव है वह उसका ऐश्वर्य है । ऐश्वर्य को भी वह मिथ्या समझता है । ज्ञानी पुरुष के ऐश्वर्य का मद नहीं होता । तप का भी मद ज्ञानी पुरुष नहीं करता । अज्ञानी में ही यह बुद्धि जगती है कि मैं तपस्वी हूँ, मैं तपश्चरण करता हूँ, पर ज्ञानी यह जानता है कि मैं तो ज्ञानभाव को कर पाता हूँ । ये तपश्चरण आदिक बीच के साधन आ रहे हैं ये भी मैं अपने ही ज्ञानदर्शन भाव से करने वाला हूँ । उसे तपश्चरण का मद नहीं होता । ज्ञानी पुरुष को शरीर की सुंदरता का भी मद नहीं होता । शरीर की सुंदरता क्या? हाड़, माँस, रुधिर आदिक महा अपवित्र चीजों का यह घर है, इससे अपवित्र चीज और क्या हो सकती है? यह सब शरीर ही अपवित्र है । उसमें सुंदरता किस बात की? रागभाव जगता है तो इसका शरीर सुंदर मालूम होता है । जब राग नहीं रहता है तो यह शरीर घृणित और असार जंचने लगता है, तो शरीर की सुंदरता क्या? सुंदरता तो हमारे आपके
आत्मा के अंदर हैं । जैसे कहते हैं सत्यं शिवं सुंदरं । क्या चीज है, मेरा स्वरूप, मेरा स्वभाव, मेरा सहज सत्व वही मेरे लिए सुंदर है, मैं अपने सहजभाव में आऊँ तो मेरी सुंदरता है । इसमें ही मेरी भलाई है और अपने सहज स्वरूप की दृष्टि से चिगकर कहीं बाहर दृष्टि लगाया, वहीं विडंबनायें हैं । ज्ञानी जीव को शरीर में मद नहीं रहता । जिसने आठों प्रकार के मदों पर विजय प्राप्त किया है वह अंतरात्मा कहलाता है । अंतरात्मा तीन प्रकार के होते हैं जिनका कथन अब आगे करेंगे ।