वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 199
From जैनकोष
णीसेस-कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती ।
कम्मज-भाव-खए वि य सा वि य पत्ती परा होदि ।।199।।
परमात्मा शब्द में प्रयुक्त परा शब्द के प्रकाश से परमात्मस्वरूप का प्रकाश―परमात्मा के स्वरूप के संबंध में अनेक लोग नाना विवाद खड़े करते हैं । कोई मानते हैं कि यह परमात्मा अनादि से ही कर्मों से मुक्त है, कोई कहते हैं कि यह सारे लोक की रचना किया करता है, कोई कहते हैं कि समय-समय पर परमात्मा अवतार लेता है, कोई कहते हैं कि यह एक परमात्मा सर्वजीवों के घट-घट में बसा हुआ है । इस तरह नाना प्रकार की कल्पनायें परमात्मा के संबंध में होता है, लेकिन भली प्रकार शब्द पर ध्यान दिया जाय तो परमात्मा इस पद में जितने शब्द हैं उनका जो अर्थ है सो यह शब्द ही राही सही बतला देता है । अर्थात् इन शब्दों के सहारे से परमात्मा का सही स्वरूप जान लिया जा सकता है । परमात्मापद में 3 शब्द हैं―पर मा आत्मा, पर मायने उत्कृष्ट, मा मायने लक्ष्मी और आत्मा मायने निरंतर जाननहार पदार्थ । तो इसका सीधा अथ यह हुआ कि उत्कृष्ट लक्ष्मी जहाँ प्रकट हुई है ऐसे जाननहार पदार्थ को परमात्मा कहते हैं । तो इन शब्दों में प्रथम पर शब्द की उपपत्ति की जाती है । समस्त कर्मों का नाश होने पर स्वभाव से जो समुपपत्ति होती है उसका नाम है परा । परमात्मा शब्द में 3 शब्द बताये गए हैं―पर मा आत्मा, इनमें पर तो विशेषण है, मा विशेष्य है अतएव अलग-अलग शब्द बनाते समय परा शब्द बोला जायगा क्योंकि मा शब्द स्त्रीलिंग है तो उसका विशेषण रूप पर शब्द स्त्रीलिंग होगा । जिसका समास बनता है ―परा मा विद्यते यस्य सा परम:, अर्थात् उत्कृष्ट लक्ष्मी जहाँ विद्यमान हो उसे परम कहते हैं । लोग परम शब्द को अर्थ उत्कृष्ट करने लगे हैं, यह तो परम पदार्थ है, उत्कृष्ट है, अनोखा है आदि, किंतु परम शब्द का अर्थ बन कैसे गया? उसकी उपपत्ति इस प्रकार है कि जहाँ अधिक शोभा हो, अतिशय हो, लक्ष्मी हो उसे परम कहा करते हैं । वह परा लक्ष्मी क्या है? जो समस्त कर्मों का नाश होने पर अपने आपके स्वभाव से उपपत्ति हो उसको परा कहा करते हैं । यही बात प्रत्येक पदार्थ में घटित करा लीजिए । प्रत्येक पदार्थ में अन्य बाधा संयोग का विनाश होने पर जो अपने आपके स्वभाव से बनती है बात वह है परा । यहाँ आत्मा की बात चल रही है । आत्मा में जो उत्कृष्ट बात आत्मा के स्वभाव से जगे, जो कि समस्त व्यापक कारणों के दूर होने पर जग सकती है उस परिणति को परा कहते हैं, अथवा कर्मजन्य भावों के क्षय होने पर जो उपपत्ति होती है उसका नाम है परा । कर्मजन्य भाव हैं रागद्वेष, मोह, विचार, विकार, इन सब भावों का विनाश होने पर आत्मा में जो बात स्वयं सहज बनती है उसका नाम है परा । ऐसी परा अर्थात् उत्कृष्ट अनुपम लक्ष्मी जहाँ हो उसे परम कहते हैं । ऐसा जो परम आत्मा है उसे परमात्मा कहते हैं ।
परमात्मस्वरूपचिंतन में आत्मनिधि का प्रकाश―उक्त वर्णन से जब हम अपने आपके स्वरूप पर दृष्टि देते हैं तो यहाँ कितना ही वैभव नजर आता है? मेरे में इस स्वभाव से ऐसी अपूर्व विधि है, ऐसा अपूर्व चमत्कार बसा हुआ है कि जिसमें रंचमात्र भी आकुलता नहीं हो सकती । यदि हम इन सब बाहरी मायामयी विनश्वर असार अत्यंत भिन्न पदार्थों का संसर्ग त्यागकर अपने उपयोग से इन समस्त बातों को भूलकर एक गुप्तरीति से ही अपने स्वरूप का स्पर्श करने चलेंगे, जहाँ पर अन्य कोई भी ख्याल न रहे, केवल अपने स्वरूप का अनुसंहरण हो, स्मरण हो, उपयोग में ज्ञानमात्र हो, केवल ज्ञानस्वरूप, केवल ज्योतिस्वरूप ऐसा अपने आपको मान मानकर अपने ज्ञान में जब केवल ज्ञानमात्र स्वरूप ही बस गया हो उस समय जो अनुभूति होती है वह अनुभूति बहुत से कर्मकलंकों का विनाश करती हुई उनका उपसंहार करती हुई प्रकट होती है । इसी कारण यदि इस अनुभूति को काली महाकाली दुर्गा आदिक शब्दों से कहा जाय तो यह कोई अर्थ विरुद्ध बात न होगी । काली का अर्थ है जो आत्मा को हित की प्रेरणा दे । कलयति प्रेरणति आत्मानं हिते इति काली, यह अनुभूति आत्महित में प्रेरणा देती है, प्रयोगरूप से लगा देती है, प्रयोगरूप से लगा देती है, यही अनुभूति महाकाली है, कलयति भक्षयति शत्रून् इति काली । जो रागादिक दोषों को अथवा द्रव्यकर्मों को नष्ट कर दे उसे कहते हैं महाकाली । वह यह अनुभूति ही तो है जिसकी लोग शक्ति देवता के रूप में आराधना किया करते हैं । वह शक्ति बाहर में है कहाँ? कहाँ उपयोग को बाहर में घुमाया जा रहा है और कहाँ अनेक भुजाओं वाले देवता की कल्पना करके चित्त को लगाया जा रहा है? वह महाशक्ति अपने आपमें स्वयं में है, इस ज्ञानानुभूति के प्रकट होते ही कितने ही कर्मकलंक नष्ट हो जाते हैं । इसको यदि अनुयोग पद्धति से विचारा जाय तो यह कहा जाता है कि अनंत संसार नष्ट हो गया । जो अनंत जन्म मरण की परंपरा को नष्ट करे ऐसी देवमयी शक्ति वह स्वानुभूति ही तो है । यही शक्ति बड़ी कठिनता से प्राप्त होती है । जगत में की जाने वाली ये सब बातें बड़ी सुगम लग रही हैं । परिजनों का समागम होना, नाना देहों का मिलना, आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदिक संज्ञाओं का होना, पंचेंद्रिय के विषयों का साधन मिलना आदि ये सब कितने सुलभ हो रहे हैं? किंतु कठिनाई से प्राप्त की सकने वाली परिणति यह अनुभूति है स्वानुभूति ज्ञानानुभूति, आत्मानुभूति, इसी को ही दुर्गा कह सकते हैं । दुर्गा का अर्थ है―दुःखेन गम्यते प्राप्यते या सा दुर्गा, जो बड़ी कठिनाई से पाया जा सके उसका नाम दुर्गा है । कठिनता से पायी जा सकने वाली चीज है यह अनुभूति ।
काम भोग संपर्क की असारता व मोह में सुलभत्वमान्यता―ऋषिसंतों ने बताया है कि काम भोग संबंधी कथायें इस जीव ने अनेक बार सुनी है, उनका परिचय अनेक बार हुआ है और उनकी अनुभूति भी अर्थात् आत्मस्वरूप रूप में उनका अवगम भी अनेक बार किया है, सो सारा जगत इसी चक्र में पड़ा हुआ है । और, कोल्हू के बैल की तरह यह समझ रहा है कि मैं सारा काम सीधा ही और नया-नया करता जा रहा हूँ । जैसे कोल्हू का बैल घूमता तो है उसी चक्र में, यदि उस बैल को यह पता हो जाय कि मैं इसी गोल दायरे में घूम रहा हूँ तो वह इसी ख्याल के बल से चक्कर खाकर गिर पड़ेगा । मालिक उसकी आंखों में पट्टी बाँध देता है और उस कोल्हू के बैल को चक्र से घुमाया करता है । उस बैल को यह पता रहता है कि मैं सीधा चल रहा हूँ और नई-नई जगह जा रहा हूँ, इसी तरह इस जीव के ज्ञान नेत्र पर मोह की पट्टी बँधी हुई है जिससे यह अंधा है । सो कर तो रहा है उन 6 विषयों का वही-वही काम, जैसे―स्पर्शन इंद्रिय से स्पर्श का विषय करना, रसना इंद्रिय से रसका विषय करना, बार इंद्रिय से सुगंध दुर्गंध का विषय करना, चक्षु इंद्रिय से अनेक प्रकार के रूपों का अवलोकन करना, कर्णइंद्रिय से रागरागनी के मनोज्ञ अमनोज्ञ शब्द सुनना और मन के द्वारा यश अपयश, कीर्ति अकीर्ति, भोगोपभोग आदि के अनेक प्रकार के विचार बनाना आदि, सो ये सब काम यह कर तो रहा है अनादि काल से, पर यह समझ रहा है कि मैं ये काम रोज-रोज नये-नये कर रहा हूँ । ऋषि ज्ञानी संतों ने तो इन भोगों को उत्छृष्ट कहा है क्योंकि ये भोग बहुत-बहुत भोगे जा चुके हैं । जैसे कोई भोजन करे और उसे मुख से उगल कर फिर करना चाहे तो वह भोजन उच्छृष्ट भोजन करना कहलाता है । इसी तरह से ये इन समस्त भोगों को ऋषिजनों ने उच्छृष्ट बताया है ये भोग भोगे जाने लायक नहीं हैं । लेकिन जब ज्ञाननेत्र पर व्यामोह की पट्टी बंधी हुई हैं तो यह जीव समझता है कि मैं आज कोई नया ही भोग-भोग रहा हूँ कोई अपूर्व काम ही कर रहा हूँ । यों ये भोग अनादिकाल से इस जीव के लिए सुलभ हो रहे हैं । कर्म के योग से ये सब साधन मिल जाया करते हैं, और मिल क्या जाया करते हैं, इन विषयों से भरा हुआ ही तो यह संसार है । पुद्गल ही तो पड़े हुए हैं, पुद्गल का ही रूप है । यह जीव जहाँ पहुंचता है वहीं इसके भोग के साधन मौजूद हैं, अब इसमें पड़ा हुआ है अज्ञान तो उन भोग साधनों को यह भोगने के रूप में ग्रहण कर लेता है । यों जीव को ये सब काम भोग वाली कथायें सुलभ हो रही हैं, लेकिन अपने एकत्व विभक्त स्वरूप के दर्शन की बात कठिन लग रही है और कठिन होने का कारण यह है कि यह जीव कषाय भावों के कारण एकमेक बन रहा है, इसी कारण अपना स्वरूप तिरोहित हो गया । उसके दर्शन नहीं होते ।
स्वभावपरभावविवेक से सकल संकटों का विध्वंस―यदि यह जीव एक इतना ही काम करे, ऐसा निरखे कि मेरे में जो इस समय भाव बन रहे हैं, कषायें जग रही हैं, रागद्वेष की तरंगें उठ रही हैं ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, विकार हैं, परभाव हैं, औपाधिक हैं, मेरे स्वभाव की बात नहीं है, इतना ही विवेक यदि जग जाय तो इस विवेक कृत्य का इतना महान फल होगा कि इस जीव के समस्त संकट समाप्त हो सकते हैं । धर्मपालन के लिए क्या काम करना है? उसका एक छोटे रूप में दिग्दर्शन कराया है कि विवेक करना है । विवेक के मायने है भेद विज्ञान । भेद कर देना यह मैं ज्ञानमात्र हूँ और ये रागद्वेष, विचार विकार आदिक भाव ये विभाव हैं, परभाव हैं, औपाधिक हैं, मेरे से विपरीत है, अपवित्र है, विनश्वर हैं, इनसे मेरा पूरा न पड़ेगा, इनसे मेरा कल्याण नहीं है, बरबादी है । इतनी विवेक भर की बात निरखना है, इसके फल में फिर जो उत्साह जगेगा, प्रेरणामूलक संयम होगा वे सब अच्छे से अच्छे कार्य इसके होने लगेंगे । पर चाहिए इसको मूल में विवेक । बतलाओ इसमें क्या कठिनाई है? जिस जगह बैठे है, जिस स्थिति में पड़े हैं, जहाँ कहीं भी है, आत्मा तो ज्ञानस्वरूप है, इसको तो कुछ न कुछ दृष्टि में लेने का स्वभाव पड़ा ही है । कुछ तो दृष्टि में आयगा । यदि माया को दृष्टि में न ले और कुछ क्षण सत्य बात को ही दृष्टि में ले तो कौन रोकता है? इसका क्या बिगाड़ है? इस पर कौन जबरदस्ती किए है? कोई शरीर पर जबरदस्ती भी करे, कोई मारे पीटे, बंधन में बाँध ले, कही से कहीं से कहीं पकड़कर कोई ले जाय ऐसी स्थिति में भी यदि यह जीव अपने आपके स्वरूप की दृष्टि करता है तो उस समय भी इसको दृष्टि से कौन रोक सकता है? कारागार में है, बंधन में बने हैं, वहाँ भी यह स्वतंत्रता का दर्शन करना चाहे तो वह अपने ज्ञान से स्वतंत्र है और उस समय में स्वतंत्रता की दृष्टि का अमूर्त दृष्टि का वह लाभ ले रहा है ।
दृष्टि के अनुकूल अनुभवन―भैया ! बाह्य स्थिति कैसी ही कहीं हो, स्वाद तो दृष्टि के अनुसार आयगा । जैसे कोई किसी मैले में पड़ा हुआ है, पर मिश्री की डली मुख में रखे हुए है तो वह तो मिश्री का ही स्वाद ले रहा है, और कोई पुरुष बड़ी साफ जगह में बैठा है, किंतु कोई बड़ की चीज के मुख में रखे हुए है तो वह तो कड़वा ही स्वाद ले रहा है । तो कितना सुगम और कितना पवित्र शासन प्रभु ने बताया है कि भाई अपनी दृष्टि को निर्मल बनाओ । दृष्टि निर्मल बनाने में कितना ही समय गुजर जाय, लगाइये समय कितने ही प्रयत्न करने पड़े, करें प्रयत्न, और कितना ही बलिदान करना पड़े, करते जायें बलिदान, यहाँ तक कि यदि प्राण भी गंवाने पड़े तो गंवा दें, पर एक इस निर्मल दृष्टि को प्राप्त कर लीजिए तो इस निर्मल दृष्टि को प्राप्त करने का महत्व यह है कि संसार के सारे संकट इसके समाप्त हो जाते हैं । अपने को निरखना है, अपने को देखना है, कोई परतंत्रता नहीं, किसी की अपेक्षा नहीं इस काम में । जिसमें कि यह जीव अपने को बड़ा स्वाधीन समझता है । इतना वैभव हो जाय, तब ही हमें स्वतंत्रता रहेगी, समझता है स्वतंत्रता, मगर कितनी ही अपेक्षायें करनी पड़ती हैं, कितने ही लोगों का मुख तकना पड़ता है और कितने ही लोगों से व्यवहार रखना पड़ता है । क्या उन परिस्थितियों में इसको स्वतंत्रता है? स्वतंत्रता की बात खुद में खुद की दृष्टि में पड़ी हुई है । उसे तो यह जीव प्राप्त-करता नहीं और बाहरी उपक्रमों में इतने साधन बना लें तो स्वतंत्रता मिलेगी, ऐसा भ्रम रख करके बाहरी कामों में पुरुषार्थ किया जा रहा है, प्रयत्न किये जा रहे हैं । सो भाई विवेक करना है और वह विवेक यही कि यह समझ लेना है कि मैं यह हूँ और ये सब मायारूप हैं । विवेक कर लेना कोई कठिन बात नहीं ।
आत्मस्वभाव व विभाव में विवेक उपपन्न करने के लिये दर्पण के दृष्टांत का प्रतिपादन―एक दर्पण में हाथ की छाया पड़ी है तो जहाँ छाया पड़ी है वहाँ दर्पण में अंधेरा है, वहाँ अब दूसरी चीज का प्रतिमास नहीं हो सकता, क्योंकि वहाँ तो अंधकार छा गया, उसी का नाम छाया है । जहाँ अंधकार छाया वही छाया है । तो अब दर्पण में जो छाया है बतलावो क्या वह दर्पण का निजी स्वरूप है? दर्पण में दर्पण के स्वभाव से वह बात जगी है क्या? यद्यपि उस छाया का आधार दर्पण है और दर्पण की स्वच्छता का ही यह चमत्कार है कि किसी बाह्यपदार्थ की छाया आ जाय । भींत, दरी, चौकी चटाई आदि में कहाँ उस तरह की छाया पड़ रही है? उनमें दर्पण जैसी स्वच्छता ही नहीं है । दर्पण में कैसा ही प्रतिबिंब आया सो वह यद्यपि दर्पण की स्वच्छता से गुण का ही अभिनंदन कर रहा है कि देखो दर्पण में कैसी स्वच्छता है कि ऐसी छाया प्रकट हो जाती है । तो भले ही ऐसा कोई सूखा अभिनंदन करे, लेकिन तथ्य यही समझना है कि दर्पण में ऐसी छाया का हो जाना दर्पण का निजी स्वरूप नहीं है, स्वभाव नहीं है । यह छाया औपाधिक मायारूप है, विनश्वर है, नैमित्तिक है, इसकी जिंदगी निमित्त के सद्भाव पर आलंबित है, यह मेरे स्वरूप पर आलंबित नहीं है । तो यों निरखने पर क्या यह नहीं जाना जा सकता कि दर्पण में छाया का आना दर्पण का स्वभाव नहीं है, किंतु यह दर्पण में मायारूप है ।
आत्मस्वभाव व विभाव में विवेक व विवेक का महत्त्व―दर्पण में छाया व स्वच्छता का तथ्य निरखने की भांति खुद में भी निरखिये कि ये रागद्वेष मोहादिक विकार भाव जो प्रकट होते हैं तो यद्यपि कुछ थोड़ी स्वातंत्र्य की दृष्टि से निरखने पर यह ज्ञान होता है कि इस आत्मा में देखो ऐसी समझ है, इसमें ऐसी जानकारी की आदत है कि वहाँ रागद्वेष मोहादिक की तरंगें प्रकट हो जाती हैं । ये रागद्वेष मोह की तरंगें इन दरी, चटाई आदि में तो नहीं होती क्योंकि उनमें चेतना नहीं है, समझ नहीं है, मगर यह सूखा ही अभिनंदन है । भीतर निरखें तो ये रागद्वेष मोहादिक विकार मेरे स्वरूप नहीं हैं, ये हममें हैं । इनका वर्तमान में आधार यद्यपि मैं हूँ, अन्य कोई अधिकरण नहीं है, मेरे परिणमन बन रहे हैं, लेकिन ये मेरे स्वरूप नहीं है, किसी भी वस्तु का स्वभाव उस वस्तु के विनाश के लिए नहीं हुआ करता । जो मेरा स्वभाव है वह मेरे विनाश के लिए न होगा, और ये विकार ये तो मेरी बरबादी के लिए हो रहे, ये मेरे स्वरूप नहीं, औपाधिक है, नैमित्तिक भाव हैं, इनसे निराला मैं केवल चेतना मात्र हूँ, यह विवेक बने तो अनेक संकट, अनेक कलुषतायें, अनेक कर्म कलंक तुरंत ही ध्वस्त हो जाते हैं, ऐसी अपने आपमें विभूति का दर्शन परमात्मस्वभाव में प्रयुक्त परा शब्द की व्याख्या के अवसर में अपने आपको प्राप्त होता है ।