वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 200
From जैनकोष
जइ पुण सुद्धसहावा सव्वे जीवा अणाइकालेवि ।
तो तव चरणविहाणं सव्वेसिं विप्फलं होदि ।।200।।
परमात्मा की अंतरंग लक्ष्मी के वर्णन से आत्मा के शुद्ध स्वभाव का स्मरण―परमात्मा शब्द का अर्थ किया जा रहा था, पर अर्थात् उत्कृष्ट लक्ष्मी जिसमें हो उसे परम कहते हैं । आत्मा की उत्कृष्ट लक्ष्मी बहिरंग में तो समवशरण आदिक है, और अंतरंग में केवलज्ञानादिक है । तो प्रभु अरहंत जिनेंद्रदेव बहिरंग लक्ष्मी से भी युक्त हैं और अंतरंग लक्ष्मी से भी युक्त हैं । समवशरणादिक को बहिरंग लक्ष्मी यों कहा गया कि समवशरण जैसी शोभा और अमूल्य पदार्थों की लक्ष्मी अन्यत्र नहीं हो सकती । और न किसी मनुष्य के द्वारा संभव है, वह देवकृत रचना है, अनोखे ढंग की रचना है, ऐसी रचना भगवान जिनेंद्र के सान्निध्य के कारण होती है । वे देवगण भी प्रभु के सान्निध्य बिना ऐसी रचना नहीं किया करते । इस कारण इस शोभा को भगवान जिनेंद्रदेव की बहिरंग लक्ष्मी कहा है । अंतरंग लक्ष्मी है केवलज्ञान, अनंत आनंद, अनंत शक्ति, ऐसी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से शोभायमान परमात्मा होता है । परमात्मा शब्द की व्युत्पत्ति से यह सिद्ध होता है कि प्रभु उत्कृष्ट होते हैं, वे अन्य संसारी जीवों से अपनी एक विशेषता रखते हैं, निरंतर ज्ञानमय और आनंदमय अपनी अनुभूति करते रहते हैं । उनका यह शुद्ध परिणमन स्वयं से हुआ है । इससे शुद्ध स्वभाव का परिचय मिलता है ।
शुद्धस्वभाव वाले जीवों को तपश्चरणादि करने के उपदेश की निष्फलता का प्रश्न―अब इस समय एक जिज्ञासु यह जानना चाहता है कि सभी जीव अनादि से ही शुद्ध स्वभाव वाले हैं क्या ? मानना तो पड़ेगा कि सभी जीव ऐसा ही शुद्ध स्वभाव रखते हैं लेकिन शुद्ध स्वभाव का एकांत कर लेने पर एक शंका यह होती है कि जीव यदि ऐसा शुद्ध स्वभाव वाला है सो स्वभाव तो अनादिकाल से होता है अत: इसका अर्थ है, कि जीव अनादिकाल से शुद्ध स्वभाव वाला है । तो जब जीव अनादिकाल से ही शुद्ध स्वभाव वाले सिद्ध हो गए याने कर्ममलकलंक उनके नहीं है । शुद्ध-बुद्ध एक ज्ञानदर्शन स्वभावमात्र हैं तो ऐसे शुद्ध स्वभाव वाले जीव जब अनादि से हीं हैं तब फिर आचरण तपश्चरण ध्यान अध्ययन परीषहसहन आदिक का जो विधान बताया है शास्त्रों में, फिर वह निष्फल हो जायगा । तपश्चरण से क्या प्रयोजन ? जीव, तो शुद्ध स्वभाव वाला है, कर्ममलकलंक से रहित है । वर्णन भी तो शास्त्रों में ऐसा किया गया है कि जीव कर्ममलकलंक से रहित है, परद्रव्य का इसमें प्रवेश नहीं है । यह स्वयं अपनी सत्ता से सत् है । तो इस वर्णन से भी यह सिद्ध होता है कि जीव शुद्ध है । तब उस शुद्ध जीव को यह उपदेश क्यों दिया जाता है कि संयम करो, तपश्चरण करो, ध्यान करो, अध्ययन करो, दान आदिक करो । वह तो शुद्ध है ही । उसको कोई आपत्ति ही नहीं है, फिर कैसे आपत्ति आदिक को दूर करने के लिए तपश्चरण आदिक बनाये जाते हैं ? एक यह जिज्ञासा हुई । इसी जिज्ञासा से संबंधित आगे की गाथा में द्वितीय प्रश्न चलेगा ।