वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 203
From जैनकोष
जो अण्णोण्ण-पवेसो जीव-पएसाण कम्म खंधाणं ।
सव्व-बंधाण वि लओ सो बंधो होदि जीवस्स ।।203।।
जीव के बंधन का वर्णन―जीव के प्रदेशों का और कर्मस्कंधों का जो परस्पर प्रवेश है उसका नाम बंधन है । मूल बंधन यही है कि ये जीव और कर्म (दोनों) परस्पर बंध गए । यद्यपि स्वरूप को देखो तो कर्म में कर्म है जीव में जीव है मगर परस्पर ऐसा निमित्तनैमित्तिकसंबंध है कि वहाँ जीव बंधन में बद्ध है और परतंत्र है । जैसे गाय को गिरमा से बाँध दिया जाता है तो गला और गिरमा का परस्पर में बंधन नहीं है किंतु, गिरमा का एक छोर से दूसरे छोर का बंधन है । मगर ऐसा निमित्तनैमित्तक संबंध है कि वह गाय उस गिरमा से ऐसा बंध गई कि कहीं जा नहीं सकती । तो इसी तरह यहाँ यद्यपि यह जीव अनादिकाल से अपना ही स्वरूप रख रहा लेकिन ऐसा बद्ध चला आ रहा है कि जीव रागद्वेषादि परिणाम करता है तो उसके निमित्त से कर्म बँधते हैं, कर्मों का उदय आता है, तब वह जीव रागद्वेषी होता है । यह जीव अमूर्त है और कर्म भी इतने सूक्ष्म हैं कि जिन्हें अमूर्त की तरह समझ लीजिए । अमूर्त तो नहीं हैं, उनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं, किंतु इतने सूक्ष्म हैं कि प्रतिघातरहित हैं । उनका जो बंधन होता है तो जीव के सर्वप्रदेशों में उनका प्रवेश है बंधन है, मगर स्वरूप में प्रवेश नहीं है । एक क्षेत्रावगाह तो हो गए कि जीव के उन असंख्यात प्रदेशों में उन अनंतानंत कर्मपरमाणुओं का प्रवेश है और वे कर्म कर्मरूप से आये हुए हैं और उनका यही बंधन है, पर इसको यदि वस्तुरूप से देखें तो जीव में किसी अन्य का प्रवेश नहीं, अन्य में जीव का कुछ प्रवेश नहीं, एकक्षेत्रावगाह की दृष्टि का प्रवेश है, मगर पर के सत्व के बल का सत्त्व नहीं है, याने परपदार्थ का उसमें सत्व मिलाकर जीव को सत् बताना यह मूढ़ता पूर्ण प्रलाप है । जीव सत् है, अपने आपमें उसका सत्व है, पर अनादि से ऐसा बंधन है कि जीव के प्रदेश और कर्मपरमाणु इनका परस्पर प्रवेश है, एकक्षेत्रावगाह है और वहाँ जीव का बंधन होता है ।
प्रत्येक जीव के असंख्यात प्रदेश और उनमें अनंतकार्माणवर्गणावों का बंधन―जीव के प्रदेश कितने हैं ? सूत्रों में बताया है कि असंख्यात प्रदेश हैं । असंख्यात प्रदेश का यह अर्थ है कि कदाचित् जीव फैल जाय सारे लोक में तो फैल सकता है । और लोक में हैं असंख्यातप्रदेश । असंख्याते प्रदेश असंख्याते तरह के हैं, पर उत्कृष्ट प्रमाण जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने प्रदेश बराबर हैं । वैसे तो यदि एक अंगुल जगह को भी नापा जाय तो उसमें असंख्याते प्रदेश कहे जायेंगे । एक सूई के द्वारा कागज पर गढ़ा बने तो जितनी जगह में वह गढ़ा बना है वहाँ भी असंख्याते प्रदेश हैं, एक प्रदेश की जगह को कोई नहीं निहार सकता संख्याते प्रदेश की जगह को कोई बता नहीं सकता है । यह सारा भारत देश असंख्यातप्रदेशी है । और सारा तीन लोक यह भी असंख्यात प्रदेश में है । जब अरहंत भगवान आयु के अंत से पहिले समुद्धात करते हैं तो उनके जीव प्रदेश तीन लोक में वातवलयों में सब जगह व्याप जाते हैं, तो जीव का परिमाण कितना बड़ा है ? यदि वह प्रदेश से फैले तो लोकाकाश के बराबर है, लेकिन यह फैला हुआ नहीं है । अनादि से ही यह देहप्रमाण है । जो शरीर मिला है उस शरीर के बराबर ही यह जीव है । जैसे आज जो मनुष्य शरीर है तो उतना जीव इस शरीर के बराबर है, न कम है न अधिक है, और मरण करके किसी अन्य गति में गया, वहाँ जो देह मिला उस देह के बराबर हो गया । जब यह मनुष्य पैदा हुआ था तब जो शरीर मिला उसही प्रमाण था यह । जैसे ही इस जीव का शरीर बढ़ा वैसे ही जीव के प्रदेशों का भी फैलाव हुआ । तो संसार में सर्वजीवों के प्रदेश देह के बराबर विस्तृत हैं और जब यह मनुष्य मुक्त होता है तो जिस देह से मुक्त होता है । मुक्त होने पर इस जीव के प्रदेश के न तो फैलने का कारण रहा, और न संकोच का कारण रहा, संकोच और विस्तार ये कर्मोदय का निमित्त पाकर होते थे, जब कर्म न रहे तो ऐसी स्थिति में जीव ने आयु के क्षय से देह को तो छोड़ दिया, लेकिन जिस आकार में रहते हुए इस देह को छोड़ा गया है उतना ही आकार उस सिद्ध का रहता है । तो उतना आकार रहा । उसका कारण यह है कि जो था सो ही रहा । जीव के प्रदेश अधिक फैले तो ये कर्म के संबंध बिना होगा, जीव के प्रदेश सिकुड़ जायें तो यह भी कर्म के संबंध बिना न होगा, क्योंकि संकोच और विस्तार का कारण कर्मोदय है । जैसे नोकर्म, जैसे कार्माणशरीर, जैसा जब उदय आता है उस प्रमाण इस जीव के प्रदेश हुआ करते हैं । तो अनंत आत्माओं में प्रति एकात्मा के सर्वप्रदेशों में अनेक पुद्गल स्कंधों का प्रवेश है ।
अनंत जीवों में प्रत्येक जीव में अखंडता और असंख्यातप्रदेशिता का कथन―कोई लोग मानते हैं कि केवल एक ही जीव है और वह सारी दुनिया में फैला है, पर ऐसा अनुभव नहीं बैठता । तो हम आपका जो अनुभव है वह यह बताता है कि हममें सुख होता है, उतने में ही सुख होता है जितने कि देह में हम बसे हुए हैं । यहाँ यह सुख का अनुभव है, यदि जीव एक होता तो जब सुखी होता तो सर्व जगह रहने वाला जो जीव है याने अन्य देहों में रहने वाला जो जीव है उसे भी अब उसी सुख से सुखी हो जाना चाहिए, क्योंकि एक पदार्थ में यह भेद न बन पायेगा कि एक चीज का एक हिस्सा और भांति परिणमे और दूसरा हिस्सा और भाँति परिणमें । अगर ऐसा कहीं देखा जाता हो तो कहा जाना चाहिए कि वह एक चीज नहीं है । जैसे काठ एक तरफ जल रहा है बाकी तरफ नहीं जल रहा है तो समझना चाहिए कि वह काठ एक नहीं है, अनंत परमाणुओं का स्कंध है । एक पदार्थ उतना होता है कि जो भी परिणमन हो तो पूरे में होना पड़े, एक के आधे में परिणमन हो या विरुद्ध परिणमन हो ऐसा नहीं होता । जो कुछ चीजें हम आपको दिखती हैं वे वास्तव में एक नहीं हैं और तभी इसके टुकड़े हो जाते । एक का कभी टुकड़ा नहीं होता । जैसे यहाँ काठ के टुकड़े हो जाते हैं, सींक वगैरह तोड़ दी जाती हैं, इनका भाग हो जाता है तो ये एक चीज नहीं हैं । उनमें अनेक स्कंध हैं तो कोई अलग हो गया कोई कहीं पड़ गया । एक पदार्थ हो तो उसके हिस्से नहीं हो सकते । यदि जीव को माने एक और सर्वव्यापक तो वहाँ यह दोष आयेगा कि उस जीव के एक प्रदेश में जो परिणमन हो तो वही परिणमन सब जीवों में होना चाहिए । तो सभी जीव एक साथ एक सुख से सुखी हों और एक साथ एक दुःख से दुःखी हों, ऐसी बात बनें तब तो मानें कि एक जीव है, लेकिन ये भिन्न-भिन्न अनुभव हो रहे, इस कारण से यह अनुभव होता है कि जीव एक नहीं है किंतु अनंत है । उन अनंत जीवों में से एक-एक जीव की चर्चा चल रही है कि प्रत्येक जीव अखंड और असंख्यातप्रदेशी है ।
कर्मों में प्रकृति स्थिति आदि का बंध―इस जीव में कर्म का बंध है, कर्मबंधन है, जब रागद्वेष मोह का परिणाम होता है तो यही पड़ा हुआ जो कार्माण स्कंध है वहु कर्मरूप बन जाता है । उनमें यह प्रकृति का बंध हो जाता कि इस प्रकृति वाले कर्म के विपाक से जीव अज्ञानी बन गया, इस प्रकृति वाले कर्म के उदय से जीव सुखी दुःखी बन गया । उनमें ऐसी स्थिति पड़ जाती है कि बँधे हुए ये कर्म बहुत नियत दिनों तक इस जीव के साथ रहेंगे । और जब इनके खिरने का समय होगा, स्थिति पूरी हो जायेगी तो अमुक प्रकार का फल देकर अर्थात् उनके उदय में जीव इस प्रकार परिणम जायेगा और वे कर्म खिर जायेंगे । उनसे ऐसे अनुभाग पड़ते हैं । उनमें ऐसा बटवारा हो जाता कि अमुक प्रकृति वाले कर्म इतनी संख्या में होंगे और अमुक प्रकृति वाले कर्म इतनी संख्या में होंगे । यों चार प्रकार का बंधन इस जीव के हो जाता है । जीव हैं अनंत । यहीं देख लो किसी जगह अगर कीड़ी निकल आती हैं तो कितनी बड़ी संख्या में निकलती हैं, या कभी मक्खी अथवा टिड्डियों को देखा होगा, कितनी बड़ी संख्या में निकल पड़ती हैं, यह तो त्रस जीवों की बात है । जब बड़े-बड़े जीवों की संख्या भी नहीं बतायी जा सकती तो फिर उन छोटे-छोटे जीवों की तो बात ही क्या कहना ? इस शरीर के अंदर असंख्यात जीव भरे हैं, और भी त्रस जीव हैं, जिन्हें रक्त अणु, मांस अणु आदिक कहते हैं, ऐसे भी बहुत से जीव पाये जाते हैं, और निगोद जीव तो अनंत हैं ही । ऐसे जीवों की संख्या नहीं की जा सकती । इनमें प्रत्येक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं । और एक-एक प्रदेश में कर्म प्रदेश बहुत से भरे हुए हैं ।
जीव के अपने भावों पर अपने भविष्य की निर्भरता―यहाँ इस बात का निर्णय करना कि भविष्य हम अपना अपने आप बना लेते हैं। जैसे हम कर्म करते हैं वैसा हमको फल प्राप्त होता है । हम खोटे कर्म करें और उससे भले फल की आशा रखें तो यह नहीं हो सकता । खोटे कर्म करेंगे तो खोटा फल पायेंगे, अच्छे कर्म करेंगे तो अच्छा फल पायेंगे, यह व्यवस्था जीव और कर्म के संबंध में अपने आप बनी हुई है । ऐसा नहीं है कि कोई अलग जज हो और वह हमारा फैसला करे, हमको सुखी-दुःखी करे । इसमें तो वह गल्ती भी खा सकेगा, पर जहां ऐसा प्राकृतिक संबंध है कि हम जैसा भाव करते हैं वैसा ही कर्मबंध होता है और जैसे कर्म का उदय होता है वैसा ही जीव को सुखी अथवा दु:खी होना पड़ता है । यह एक प्राकृतिक बात हो गई । यह एक निमित्तनैमित्तिक संबंध वाली बात हो गई । जैसे घड़ी ठीक है, चाबी भरी है तो उसे देखें अथवा न देखें वह चलती रहेगी, उसके चलने में कोई फर्क नहीं आता, वहाँ निमित्तनैमित्तिक संबंध ही ऐसा है, तो ऐसे ही समझिये कि यहाँ जीव और कर्म का ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि जब जीव रागद्वेष परिणाम करता है तब कर्मबंध होता है । जब कर्मोदय होता तो जीव में रागद्वेषादिक होते । होते हैं प्रत्येक जीव में, उनके अपने परिणमन से, कर्म में भी जो कुछ होना है होता है, मेरे परिणमन से परपदार्थ में एक निमित्तनैमित्तिक भाव है, यह सब व्यवस्था प्रकृत्या बनी हुई है । तो इस तरह आत्मा में प्रवेश प्रदेश का बंध है और वह बंध घन है । जैसे कि लोहे का मुदगर या गोला हो तो वह अपने में घन है, बीच में कोई जगह खाली नहीं रहती है इसी प्रकार इस जीव प्रदेश में कर्म का बंध घन है, यहाँ कोई प्रदेश घिरा नहीं रहता, तो ऐसा दृढ़ जीव के साथ बंधन लगा है, सर्वप्रदेशों में अनंतानंत कर्म परमाणुओं का बंधन है, और यह बंध परंपरा अनादिकाल से
चली आ रही है ।
हम आप पर वास्तविक संकट और उससे छूटने के उपाय के संबंध में विचार―हम आप पर कोई संकट है तो यही है कि कर्मबंधन है, देह का बंधन है, जन्म मरण करना पड़ता है, बस यही संकट है । ये कोई संकट की बात नहीं है कि धन कम हो गया, कोई इज्जत नहीं है, कोई लोग अपमानजनक वचन बोल रहे हैं आदि, इन्हें तो विवेकपूर्वक सह लेना चाहिए । इनमें अधीर न होवें और उपाय ऐसा बनायें कि कर्मों से हमारा छुटकारा हो, जन्म मरण का चक्र मिटे । अगर यह उपाय हम बना सके तो इतना उत्कृष्ट कुल पाना, मनुष्यभव पाना, श्रेष्ठ बनना आदि सब सार्थक हो जायेंगे, और एक कर्मबंधन से छूटने का उपाय न बना सके तो कितने ही धन का ढेर हो जाय, यह क्या साथ दे देगा? कितने ही परिजन हो जायें तो क्या ये मददगार हो जायेंगे ? ये सब वैभव पर हैं, ये सब परिजन पर है, ये सब प्राप्त समागम पर है; इन समस्त परपदार्थों से इस जीव का कुछ भी प्रयोजन नहीं है । आत्मा का प्रयोजन तो इसमें है कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र को पूर्ण बनाये, अपने आपको निहारें, अपने आपका स्वरूप समझें, अपने में गुप्त हो जाये, ऐसा उपाय बनायें । बाहरी पदार्थों में हर्षविषाद न हो ऐसी उदारता आये तो इससे ही इस आत्मा को शांति का मार्ग मिलेगा और जीवन सफल हो जायेगा । एक यही काम यदि न कर सके तो इस मानवजीवन के पाने का कुछ भी लाभ न उठाया जा सका ।