वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 216
From जैनकोष
सव्वाणं दव्वाणं परिणामं जो करेदि सो कालो ।
एक्केक्कास-पएसे सो बट्टदि एक्कको चेव ।।216।।
कालद्रव्य का स्वरूप―समस्त द्रव्यों के परिणमन को जो करे उसे काल कहते हैं । वह काल लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य ठहरा हुआ है । सभी लोग ऐसा अनुभव करते हैं कि समय व्यतीत होता है तो पदार्थ की अवस्था में भी परिणमन होता है । कोई पुरूष जन्मा, अभी वह शिशु है, समय बीता बालक बन गया, समय बीता जवान बन गया, समय बीता वृद्ध बन गया, समय बीता उसका क्षय हो गया । जैसे-जैसे समय गुजरता है वैसे ही वैसे वस्तु का परिणमन होता रहता है । वस्तु ने परिणमन का निमित्त है काल । समय न गुजरे तो ये अवस्थायें नहीं बदल सकती हैं । सभी द्रव्यों में परिणमन है । कोई द्रव्य परिणमनरहित नहीं है । होता ही वही सत् है जो प्रतिसमय परिणमन करे । जैनशासन में वस्तुस्वरूप के ज्ञान पर बहुत जोर दिया गया है कि यदि अपना कल्याण करना है तो पदार्थों का सही स्वरूप जानें । पदार्थ का सही स्वरूप जानने से प्रभाव यह होता कि मोह अंधकार नहीं रहता । जीव को जितना भी क्लेश है वह सब मोह का है, अन्य कुछ क्लेश नहीं । सब पदार्थ हैं, परिणमनशील हैं, अपने परिणमन से परिणमते हैं । तो दूसरों से मुझमें क्या आपत्ति आयी? मैं स्वयं में अज्ञान बसाये हूँ, विकल्प किए हूँ, वही मुझ पर आपत्ति है । अब यह एक सिद्धांत की बात है कि मुझमें मोह हुआ कैसे? उसमें कर्मोदय निमित्त है, कर्म और विभाव का निमित्तनैमित्तिक संबंध है, परवस्तु के स्वरूप पर दृष्टि दें तो यह विदित होगा कि पदार्थ प्रतिसमय परिणमनशील है और अपने इस स्वभाव के कारण परिणमता रहता है । तो प्रत्येक द्रव्य में परिणमन निरंतर है, उसका कारण
है कालद्रव्य । जीव और पुद्गल आदिक की जो पर्यायें होती हैं, नई हों, जीर्ण हों, विलीन हों या जो उनमें उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है सो उन अवस्थाओं का कारण है कालद्रव्य । जीव में स्वभावपर्याय है, विभावपर्याय है, नारकी होता, कभी तिर्यंच होता, कभी मनुष्य होता, कभी देव होता, कभी क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक विभाव पर्यायोंरूप बना, कभी छोटे बड़े स्कंधोंरूप बना, आदि, निमित्तदृष्टि से इन सबको करने वाला कालद्रव्य कहा है । कालद्रव्य का ही अपरनाम कालाणु है एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु है और वह भी परिणमनशील है, उसमें प्रति समय नवीन-नवीन पर्यायें बनती रहती हैं और उन समयों का जो समूह है वह व्यवहारकाल है । जिसे कहते हैं मिनट, घंटा, दिन, वर्ष आदि यह व्यवहारकाल है । वास्तवमें तो एक पर्याय समय है और अनेक समयों को जोड़ करके उसे व्यवहारकाल कहा है । यों कालद्रव्य के निमित्त से सर्वद्रव्यों का परिणमन होता है ।
धर्मादिक द्रव्यों में परिणमन व उन परिणमनों में भी कालद्रव्य की हेतुता―अब यहाँ विचार यह करना है कि जीव और पुद्गल का परिणमन तो समझ में आता है । जीव का परिणमन इस समय समझ में आ जाता कि हम जीव हैं, हम पर परिणमन गुजरते हैं । उसका अनुभव होता है तो बुद्धि ठिकाने होती है, समझते हैं कि हम में बड़े विचित्र परिणमन हैं, क्योंकि सुखी दुःखी हो रहे हैं और समझ रहे हैं कि हम विकल्प करते हैं, विषयकषाय के भाव करते हैं, उससे हम सुखी हैं, तो अपने पर गुजर रही हैं ये बातें इस कारण अपना परिणमन समझ में आ जाता है । पुद्गल का परिणमन यों समझ में आता है कि ये स्थूल हैं, इनका परिणमन आँखों द्वारा देख रहे हैं, इंद्रियों से हम जान रहे हैं, तो यहाँ कोई यह आशंका कर सकता है कि हमें तो केवल जीव और पुद्गल का परिणमन समझ में आ रहा है, उनमें ही कालद्रव्य का उपकार बतायें, पर धर्म अधर्म आदिक जो अमूर्तद्रव्य हैं उनमें परिणमन कैसे होगा? सो इसके समाधान में सुनो कि यद्यपि ये सब अमूर्तद्रव्य हैं किंतु यह नियम है कि जो है वह नियम से प्रति समय परिणमन करता रहेगा । तो धर्मादिक द्रव्य भी सत् हैं, उनमें स्वभाव से षड्गुण हानि वृद्धि होती है और जैसा अरहंत भगवान ने बताया है कि प्रति समय वह अगुरुलघुत्व गुण के कारण परिणमता रहता है । तो उन सब परिणमनों का कारण है समय और समय पर्याय है कालद्रव्य की, ऐसा यह कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक ठहरा है, तो यह एक प्रदेशी है, असंख्याते काल हैं । कालद्रव्य की वजह से ये सब परिणमन होते हैं । इस गाथा में यह ध्वनित समझिये कि कालद्रव्य में भी स्वयं परिणमने की शक्ति है और सर्वद्रव्यों के परिणमन का वह कारण बनता है । लेकिन यहाँ यह जानना होगा कि प्रत्येक पदार्थ में परिणमने की स्वयं की शक्ति है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप से परिणमता है, उस परिणममान पदार्थ में सहकारी निमित्त कारण कालद्रव्य है ।