वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 220
From जैनकोष
जीवाण पुग्गलाणं जे सुहमा बादरा य पज्जाया ।
तीदाणागद भूदा सो ववहारो हवे कालो ।।220।।
व्यवहारकाल का विक्षेपण―लोक भावना में यह प्रकरण चल रहा है कालद्रव्य के स्वरूप का । कालद्रव्य क्या चीज है? जो निश्चयकाल है, जो वास्तविक कालद्रव्य है वह अतिसूक्ष्म है और बताया गया है कि आकाश के, लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य है । जैसे कि एक परमाणु कितना सूक्ष्म पदार्थ है । एक छोटा से छोटा कंकड़ होवे तो उसमें भी अनंत परमाणु पड़े हुए हैं । अब बतलाओ जिसको हम छोटा नहीं कर सकते इतने सूक्ष्म कण है और उसमें भरे हैं अनंत परमाणु । अब उसमें एक परमाणु कितना कहलाता है यह हम आप इन इंद्रियों द्वारा न जान सकेंगे । इसे तो सर्वज्ञदेव ही साक्षात्कार कर सकते हैं, तो जैसे एक परमाणु अतिसूक्ष्म है ऐसे ही एक प्रदेश भी सूक्ष्म है । एक सूई की नोक किसी कागज पर गड़ा दी जाय तो उसमें जो गढ़ा बन गया उसमें अनगिनते प्रदेश है । उनमें से कोई एक प्रदेश कितना छोटा होता होगा, आप स्वयं इसका अंदाज कर लीजिए । यों ही समझिये एक काल द्रव्य लोकाकाश के एक प्रदेश पर ही जो ठहरा हुआ है वह अतिसूक्ष्म है, अब उसके संबंध में जो हमको ज्ञान विशेष बनता है वह उसकी पर्याय के होने पर बनता है । उस कालद्रव्य की पर्याय है एक समय । यह एक समय भी अतिसूक्ष्म है, एक सेकेंड का करोड़वां हिस्सा भी असंख्याते समयों से भरा हुआ है । उसमें से एक समय भी कितनी सूक्ष्म चीज है । पर वे ह समय जब बहुत हुए तो उनके तो हम व्यवहारकाल द्वारा परखा करते हैं । अब सेकेंड हुआ, मिनट हुआ, दिन हुआ, वर्ष हुआ आदि । अब व्यवहारकाल में हम फिर व्यवहार करते हैं कि भाई समय गुजरता है, तो ऐसे परिणमन होते ही हैं । तो वह है समय नाम का वास्तविक एक पर्यायार्थिक दृष्टिकाल, व्यवहारकाल । किंतु इस गाथा में इस ढंग से व्यवहारकाल का वर्णन कर रहे हैं कि पदार्थों में जो परिणमन होता है वह है व्यवहारकाल । जैसे हमने समझा कि 12 घंटे व्यतीत हो गए, यह कैसे समझा कि सूर्य पूर्व से चलकर पश्चिम तक पहुंच गया । उदय हुआ था, निकला था तब दर्शन था, अब अस्त हो रहा है तो अंतिम दर्शन हो रहा है, तो सूर्य का जो इतना काम हुआ उससे ही तो समझा कि 12 घंटे व्यतीत हो गए । यह व्यवहारकाल जो कि कालद्रव्य के परिणमन से संबंधित है, वह है इस पुद्गल के परिणमन से संबंधित । तो इसका परिणमन व्यवहारकाल है इस ढंग से यह वर्णन किया जा रहा है । जीव और पुद्गल का जो सूक्ष्म और वादर पर्याय है, अतीत भविष्य वर्तमानरूप जो कुछ परिणमन है वह व्यवहारकाल कहा गया है ।
दो पद्धतियों में व्यवहारकाल का वर्णन―काल के संबंध में कुछ न कुछ कल्पनायें सभी को जगती हैं । समय गुजरे उसको काल कहते हैं, या जो बात होने को होती है उसको काल कहते हैं अथवा कोई लोग वस्तु के विनाश करने वाले किसी को काल कहते हैं, और काल का वास्तविक अर्थ क्या है, काल क्या चीज है? स्याद्वाद शासन में इस प्रकार बताया है कि जैसे परमाणु पदार्थ होता है इसी प्रकार कालद्रव्य नाम के भी पदार्थ होते हैं । ये अमूर्त हैं और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य अवस्थित है । उन कालद्रव्यों की प्रतिक्षण परिणति होती है और वह परिणति समय के रूप में है । तो समय है परमार्थपर्याय और कालद्रव्य है परमार्थद्रव्य । अब व्यवहारकाल क्या कहलाता है, उसका वर्णन इस गाथा में क्रिया गया है । उस परमार्थ समय का व्यवहार नहीं हो सकता, और कालद्रव्य भी व्यवहार नहीं होता । व्यवहार जिस समय का, जिस काल का हो सकता है उसका वर्णन यहाँ कर रहे हैं । यद्यपि कालद्रव्य का या समय पर्याय का व्यवहार नहीं होता, लेकिन व्यवहारकाल बनने में समय पर्याय कारण है और समय पर्याय के होने में काल कारण है । तो व्यवहारकाल को यहाँ दो तरीकों में बतला रहे हैं । एक तो समय से बढ़कर जो समय का समूह रूप समय है उसे व्यवहारकाल कहा है । दूसरे सभी पदार्थों में और विशेषतया जीव पुद्गल में जो परिणमन दृष्टिगोचर होते हैं उन परिणमनों को व्यवहारकाल कहते हैं । तो पहिले समय सीमा में व्यवहारकाल का वर्णन किया जा रहा है ।
सबसे छोटा कालपर्याय है समय । एक परमाणु एक ओर से गमन करे और दूसरा परमाणु दूसरी ओर से विरुद्ध गमन करे तो गमन करते हुए दो परमाणुओं का जहाँ मेल होकर अतिक्रमण हो तो उन परमाणुओं के अतिक्रमण में जो क्षण लगे उसे समय कहते हैं । इस प्रकार भी समय का लक्षण कहा है । और मंदगति से चलते परमाणु एक प्रदेश का उल्लंघन करें जितने क्षण में उसे समय कहते हैं । इसको मोटे रूप में यह समझिये कि एक चुटकी बजाने में जितना काल लगता है उतने काल में अनगिनते समय हो जाते हैं । उनमें से जो एक समय है वह काल की जघन्यपर्याय है । असंख्यात समयों की राशि को आवली कहते हैं । ऐसे-ऐसे अनगिनते समय गुजर जायें उसे आवली और असंख्याते आवली गुजर जायें उसे उच्छ्वास कहते हैं । उच्छ्वास का स्थूल अर्थ है कि निरोग पुरुष की जो नाड़ी चलती है उसका जो एक उचकना है, एक नाड़ी जितने समय में चले उसे कहते हैं उच्छ्वास । 7 उच्छ्वासों का एक स्तोक होता है । 7 स्तोकों का एक लव होता है । 38।। लवों की एक लाली (घड़ी) होती है, दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है । अब घड़ी से खूब अच्छी तरह व्यवहार चलने लगा । 24 मिनट की घड़ी होती है और 48 मिनट का मुहूर्त होता है । उस मुहूर्त में 1 समय कम करके बाकी जो समय है उसे उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त कहते हैं और एक समय अधिक आवली को जघन्य अंतर्मुहूर्त कहते हैं । और, इसके बीच उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त तक के मध्य में असंख्याते प्रकार के और अंतर्मुहूर्त हैं वे मध्यम अंतर्मुहूर्त कहलाते हैं । यह है समय की माप की बात ।
अब 24 घंटे का दिन होता अथवा कहो 60 घड़ी का एक दिन होता । दिन के मायने दिन और रात । दूसरा दिन जब तक न आये तब तक एक दिन संज्ञा की गई है । 15 दिन का पक्ष, दो पक्ष का महीना, दो महीने की ऋतु, 3 ऋतुओं का अयन, दो अयन का वर्ष और 12 वर्ष को एक युग कहते हैं । युग शब्द की अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकरण में भिन्न-भिन्न किया गया है, किंतु जहाँ एक साधारण समय का माप बताया जाता है वहाँ 12 वर्ष को युग कहते हैं और देखा जाता है कि 12 वर्ष के बाद बहुतसा परिवर्तन हो जाता है । घर में, देश में, समाज में 12 वर्ष के बाद कोई नई-नई बात दिखनेसी लगती है । फिर उसके बाद उपमाप्रमाण है, पल्य है,, सागर है, कल्प आदिक हैं । पहिले जितना व्यवहारकाल बताया गया उसमें जो संख्यात वर्षों जितनी बात है, वह तो श्रुतज्ञान का विषय है, असंख्यात अवधिज्ञान का विषय है, और अनंत केवलज्ञान का विषय है । ये सब व्यवहारकाल कहलाते हैं । समय के अनुसार काल की माप बतायी गई है ।
परिणमनपद्धति में प्रयुक्त व्यवहारकाल का कथन―अब जीव और पुद्गल के जो परिणमन हैं उन परिणमनों को भी व्यवहारकाल कहते हैं, इस ढंग से अब व्यवहारकाल को बतला रहे हैं । जीव और पुदगल में दो प्रकार के परिणमन हैं―सूक्ष्म और वादर । कोई हालत तो एकदम ज्ञान में आ जाती है, कोई हालत सूक्ष्म होती है । जैसे पुद्गल में अनंत परमाणुओं के ये स्कंध तो आँखों दिख रहे हैं, किंतु दो, तीन, चार अणु वाले स्कंध और अनेक परमाणु वाले अनेक स्कंध होते हैं असंख्याते परमाणुओं वाले तक आंखों नहीं दिखते। अनेकों अनंताणु स्कंध भी आँखों नहीं दिखते । ये सब सूक्ष्म पर्यायें हैं । जीवों में स्थूल पर्याय हैं मनुष्य तिर्यंच आदिक अथवा उसके क्रोध, मान, माया, लोभादिक । सूक्ष्म पर्याय तो केवलज्ञान, केवलदर्शन आदिक हैं, जिनका समझना बहुत परिश्रमसाध्य बात है । लोग परमात्मा पर इसी कारण विश्वास नहीं करते कि कौन है परमात्मा । और भगवान के हैं क्या? कितने ही मनचले लोग परमात्मस्वरूप का यों तिरस्कार करते हैं कि क्या रखा है वहाँ? खाना पीना भी नहीं, शरीर भी नहीं, कोई मौज के साधन भी नहीं, किंतु मोही जीवों को उस परमात्मतत्त्व की क्या खबर हो सकती है?
परमात्मतत्त्व का निश्चयन―परमात्मतत्त्व अपने आपमें ही विराजमान है । उसके देखने की पद्धति होनी चाहिए । जैसे एक किलो दूध रखा हो, उसके बारे में पूछा जाय कि बताओ इसमें घी है या नहीं? तो घी आँखों दिखता तो नहीं, पर पारखी लोग बता देते हैं कि इसमें एक छटांक घी है, इसमें आधी छटांक घी है। उन्होंने विवेक बुद्धि से समझा और जान लिया, किंतु उसके व्यक्त होने का उपाय दूसरा ही है । मशीन से उसका मंथन किया जाय तो वहाँ घी प्रकट होता है । तो यह प्रकट होने का उपाय है लेकिन घी का अस्तित्व उस दूध में है अप्रकट रूप से, शक्तिरूप से है, इसी प्रकार हम आपकी जो आज हालत है सो यह कोई परमात्मस्वरूप की बातें नहीं है । नारकी, पशु, पक्षी मनुष्य आदिक कितनी ही तरह की दुःखमयी स्थितियाँ हैं उनको लाई फिरना यह कोई परमात्मस्वरूप की बात नहीं है, लेकिन हम आप जो दुःखी हो रहे हैं, परतंत्र हो रहे हैं, जन्ममरण कर रहे हैं उतने विकल्प मचा रहे हैं, जीव हम वही है जिसमें कि वह परमात्मस्वरूप बना हुआ है । वह शक्तिरूप है । न हो तो यह बात भी नहीं हो सकती है लेकिन उस परमात्मस्वरूप के दर्शन का और उसके विकास का उपाय होना चाहिए । परमात्मस्वरूप का दर्शन का उपाय यही है कि कोई प्रकार के विकल्प न हों, तब वहाँ उस स्वरूप का दर्शन होगा । परमात्मा के दर्शन में बाधा देने वाले तो विकल्प हैं । जहाँ परंतु के संबंध में कोई ख्याल बनाया, विकल्प बनाया, बस वे विकल्प ही उस स्वरूप को प्रकट नहीं होने देते, उसके दर्शन नहीं होने देते । यदि वे विकल्प न हों तो परमात्मस्वरूप का दर्शन होगा ।
निर्विकल्पता के आनंद की अलौकिकता―अब विकल्प न हों इसका उपाय बनाना है । उसका उपाय यही है कि जहाँ हमारा दिल जाता है, जिनका आश्रय करने से विकल्प बनते हैं उनका स्वरूप समझें । वे चीजें मेरे से भिन्न हैं, पर हैं, मेरा तो मेरे में ही सर्वस्व है, किसी परपदार्थ से मुझमें कुछ आता नहीं है, ये सभी पदार्थ मेरे से अत्यंत निराले हैं । इनमें उपयोग लगाने से तो मेरी बरबादी ही है । जन्म मरण के संकट सहने पड़ते हैं । ये समस्त ही परपदार्थ चित्त में बसाने योग्य नहीं हैं । इस तरह का एक निर्णय करते जाइये और चित्त में उठने वाले नाना प्रकार के विकल्पों को हटाते जाइये, तो किसी क्षण एक ऐसी स्थिति बनेगी कि यथायोग्य उस परमात्मतत्त्व की झाँकी हो जायेगी और तब मालूम पड़ेगा कि परमात्मा का आनंद किस जाति का है । परमात्मा के अनंत आनंद है, और यहाँ ही अनुभूति करने वाले पुरुष को उस जाति का थोड़ा आनंद आया है । जैसे कोई धनिक सेठ एक किलो मिठाई खरीद कर छक कर खाता है और कोई गरीब आदमी उसी मिठाई को एक छटांक ही खरीदकर खाता है तो स्वाद तो दोनों ने एक जैसा ही पाया । हाँ अंतर इतना है कि सेठ ने तो छक कर खाया और गरीब छक कर नहीं रवा पाया, एक उसकी जानकारी भर कर पायी, यों ही समझिये कि परमात्मा के आनंद में और एक सम्यग्दृष्टि पुरुष के आनंद में ऐसा ही अंतर है । परमात्मा तो अनंत आनंद वाला है जिस आनंद से अब कभी वह विचलित न हो सकेगा और सम्यग्दृष्टि पुरुष को आनंद तो उसी जाति का है पर थोड़ा है और थोड़े समय के लिए है । मगर वह सम्यग्दृष्टि पुरुष समझ जायगा कि परमात्मा का आनंद इस तरह का है ।
शांति के लिये तो अनुकूल अंत: पौरुष की आवश्यकता―हम आप सभी शांत व सुखी होना चाहते हैं, पर शांत और सुखी होने का जो उपाय है उसमें कषायवश लग नहीं पाते । इस जीव ने भव-भव में कषायें कीं और उन कषायों से खोटे ही फल पाये । तो जैसे कोई तेज लालमिर्च खाने हाला पुरुष लालमिर्च खाकर दुःखी होता जाता है, आँखों से अश्रु भी बहाता जाता है, सी-सी भी करता जाता है मगर कहता है कि लालमिर्च थोड़ी और दे दो, ठीक ऐसे ही समझो कि राग कर करके हम आप दुःखी होते जाते हैं पर उस दु:ख के मेटने का उपाय राग करना ही समझते हैं । पर राग कर करके दु:ख मिट सके यह बात कभी हो नहीं सकती । जैसे खून का दाग खून से धोया जाय तो वह खून का दाग मिट नहीं सकता, ऐसे ही राग कर करके राग से उत्पन्न हुआ दुःख मेटा नहीं जा सकता । उस दुःख को मेटने के लिए सही जानकारी बनानी होगी, परद्रव्यों से एकदम उपेक्षा करनी होगी, कषायभाव मेटने होंगे ।
पर्यायों की व्यवहारकालरूपता―यहां वादर और सूक्ष्म पर्यायों की बात चल रही है कि जीव में जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, विशुद्ध आनंद आदिक पर्यायें हो रही हैं वे सूक्ष्म पर्यायें हैं । वे एकदम से समल में नहीं आ सकतीं । ये सब पर्यायें व्यवहारकाल कहलाती हैं । जहाँ वस्तु के स्वरूप का वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा में किया जाता है वहाँ भी काल का यही अर्थ है―वस्तु का परिणमन । किसी पदार्थ को जानना हो तो वहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ज्ञान में आयगा । जैसे मान लो एक इस पैन (कलम) को ही समझा तो इसका जो स्कंध है, द्रव्य है वह ज्ञान में आया । यह कितनी जगह घेर रही है, कितनी बड़ी है, उसका आकार भी ज्ञान में आया और यह कमजोर है, मजबूत है, आदिक किस पर्याय में है, किस रंग का है, यह भी ज्ञान में आया और इसमें कैसी शक्ति है यह भी ज्ञान में आया । तो ये चार चीजें ज्ञान में आयीं उस विधि से ही वस्तु का परिचय होता है । तो यहाँ काल का अर्थपरिणमन किया गया है । अब विचार करें―ये सब परिणमन कितनें हैं? तो उसको कहा न जा सकेगा क्योंकि जितने काल के समय हैं प्रत्येक समयों में भिन्न-भिन्न परिणमन चलते रहते हैं । तो जितने काल के समय हैं उतनी ही पर्यायें कहना चाहिए । और इस सामान्यदृष्टि में छहों द्रव्यों का
अवस्थान समान है । प्रत्येक द्रव्य अनादि से है, अनंतकाल तक रहता है । कोई नया द्रव्य बनता नहीं और कोई द्रव्य कभी मिटता नहीं । जितने अनंत जीव हैं वे सब रहेंगे, जितने अनंत पुद्गल हैं वे सब रहेंगे । जो सत् है उसका विनाश नहीं । जो कुछ भी नहीं है उपादान न मिलने से उनकी उत्पत्ति कल्पना में आ नहीं सकती।
व्यवहारकाल के स्वरूप को जानकर अपनी समझ बनने की सत्यदिशा का निर्देश―इस अनादि अनंत काल परिणमन को जानकर अपने आपके बारे में भी कुछ समझना है । मैं अनादि से हूँ, अब तक हूँ अनंत काल तक रहूँगा । तो अब तक की जो हमारी स्थितियां गुजरी भी हैं वे सब खोटी गुजरी है । जन्म मरण किया है । मरण किया, जन्म लिया, सारी जिंदगी मोह में, कषायों में बितायी, फिर मरण किया । मोह में जन्मे, मोह में जिये और मोह में ही मरे, ऐसी स्थिति जीवों की अब तक चली आयी है । लाभ कुछ नहीं मिला । अब अपना कर्तव्य यह है कि अपनी स्थिति को अब बदले, कुछ सत्य ज्ञान की ओर आये । अब तक जो हुआ सो हुआ उसका खेद क्या करें । जो होना था हुआ, अब जान लीजिए कि जो कुछ भी अभी तक हुआ वह सब मिथ्या था, मायारूप था । तो यह जानकारी हमारे हित के लिए है । अब आगे की कुछ सुध ले, बीती हुई बातों को मायारूप समझे, इन लौकिक समागमों में हर्ष विषाद न मानें । यह तो संसार है, यहाँ पुण्य तथा पाप के फल मिलते हैं तो पुण्य के फल में हर्ष न मानना और पाप के फल में विषाद न मानना । उस पुण्य पाप फलों के ज्ञाताद्रष्टा रहें और अपने आपमें ऐसा निर्णय बनायें कि मैं तो इन सबसे निराला एक विशुद्ध चैतन्यमात्र हूँ । ये जो व्यवहारकाल बताये जा रहे हैं, इनसे निराला अपने आपको एक शुद्ध स्वरूप में निरखना यही हम आपका आगे बढ़ने का उपाय है। अब अतीत भविष्य और वर्तमान पर्याय की संख्या का प्रतिपादन करते हैं ।