वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 284
From जैनकोष
जीवो अणंत-कालं बसइ णिगोएसु आइ-परिहीणो ।
तत्तो णिस्सरिदूणं पुढवी-कायादिओ होदि ।।284।।
बोधिलाभ की दुर्लभता बताने के प्रकरण में जीव की आद्य अवस्था का वर्णन―बोधि दुर्लभ भावना में यह बताया जायगा कि जीव की स्थिति कौनसी बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है ? यह बताने के लिए जीवों की सर्वप्रथम स्थिति बतला रहे हैं । यह जीव अनादिकाल से निगोद में बस रहा है । कितना काल व्यतीत हो गया ? अनंतकाल, क्योंकि काल की कुछ आदि ही नहीं । कल्पना में यदि ऐसा लाया जाय कि अमुक दिन से काल शुरू हुआ है तो क्या चित्त गवाही दे देगा कि इस दिन से पहिले समय न था ? तो समय की आदि नहीं होती, अतएव काल अनादि है, और इस जीव का निगोद में बसना भी अनादि से ही है । निगोद नाम है एक प्रकार के शरीर का । जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है―नियतां जांददाति इति निगोदं याने जो शरीर अन्य जीवों को नियत क्षेत्र दे देवे उसे निगोद कहते हैं । तो निगोद जीवों का शरीर इस प्रकार का होता है कि वहाँ अनंत निगोद समा जायें और वे अंगुल के असंख्यात भाग में रहते हैं, ऐसा निगोद शरीर जिनका होता है उनको निगोद जीव कहते हैं । निगोद एकेंद्रिय जीव होते हैं और वनस्पति के भेद में से हैं । ये हरी वनस्पति तो नहीं हैं निगोद पर साधारण वनस्पति जो भेद किया है वनस्पति का उसे कहते हैं निगोद । तो यह जीव अनंतकाल निगोद में बसा ।
प्राकरणिक अपना चिंतन―ये सब बातें अपने आप पर घटित करके सुनना है, समझना है कि हम कैसी कठिन खराब कुयोनियों से निकलकर आज इस श्रेष्ठ नरजन्म में आये हैं और नरजन्म में आकर यदि यहाँ भी विषयप्रेम कषायवासना की संज्ञाओं से इस जीवन को गंवा दिया तो यह हम आपके लिए कितने खेद की बात है ? इस जीव का मूल ऐब यही है कि जिस पर्याय में यह पहुंचता है उसको ही आत्मरूप से स्वीकार कर लेता है । कषाय बढ़ने में और कारण क्या है ? जिस शरीर में बसा उसी को ही मान लिया कि यह ही मैं हूँ । किसीने निंदा की, गाली दे दी तो इसने मुझे यों कहा ऐसा सोचकर दुःखी होता है । अरे इसे निज का कुछ पता ही नहीं है । जो ये नाक, आँख, कान आदिक इंद्रिय वाला शरीर है इसी को समझ लिया कि यह मैं हूँ । इसने मुझको कहा । पोजीशन आदिक की जो चाह है, प्रतिष्ठा के प्रति भीतर में जो लगाव है यह इस नरजन्म को बरबाद कर देने वाला है । तो इस जीव ने जिस भव में जन्म लिया उसमें ही मोह किया । आज मनुष्यभव में हैं तो यहाँ भी मोह कर रहे । तो बताओ यह बात कहाँ तक युक्त है? जिस घर में मोह किया जा रहा, जिन परिजनों से मोह किया जा रहा उनसे मोह करना ही चाहिए ऐसी कोई युक्ति है क्या ? कुछ भी तो हेतु नहीं है । आज ये जीव जो आपके घर में आकर बसे हैं, बजाय इनके यदि और कोई दूसरे जीव आपके घर में आ जाते तो उनसे मोह करने लगते । तो इस जीव की मोह करने की आदत पड़ी है । एक जीव का किसी दूसरे जीव से कुछ नाता तो नहीं है, फिर भी ऐसा मोह पड़ा है ? कि बस ये ही घर के लोग मेरे सब कुछ हैं, इन्हीं के पीछे मेरा सारा जीवन है । बाकी तो सब गैर लोग हैं ।
जब इस जीव को मोह करने की आदत पड़ी है तो फिर इसे अपनी ज्ञाननिधि की सुध हो कहाँ से ? इसे तो ये बाह्यपदार्थ ही रम्य प्रतीत हो रहे हैं । यह कितनी बड़ी इस जीव की गलती है ? लोग दोष देते हैं दूसरों पर कि, हम बड़े बुरे फंसे हैं, हमारी कच्ची गृहस्थी है । अभी ठीक ढंग नहीं है ।...अरे ठीक ढंग कब होगा ? अपने से गरीबों पर दृष्टि डालकर देख लो―जब उनके सभी ढंग बन रहे हैं, वे भी जब जीवित हैं तो फिर आपके सभी साधन क्यों न बनेंगे ? आपकी तो उनसे हजार गुना अधिक अच्छी स्थिति है । और ढंग क्या बनाओगे ? किस जगह बनाओगे ? इस तरह बाह्य की ओर दृष्टि रखकर कि मैं इनका सुधार कर दूं, तब निश्चित होकर अपना जीवन धर्मसाधना में लगाऊँगा, ऐसी जो बात सोचते हैं उनका ढंग कभी बनने का नहीं है, क्योंकि वे तृष्णा के पथ पर चल रहे हैं । जितना-जितना ढंग बनाते जायेंगे उतना-उतना ही वे ढंग और बिगड़ते जायेंगे । सुधार होगा संतोषवृत्ति से, विज्ञान से, आत्महित की लगन से एक गुप्त ही गुप्त अपने आपमें अपनी दृष्टि करके अपना कल्याण करते जावो । यहाँ कौन किसका है ? किसे क्या दिखाना है ? ऐसा भीतर में संतोष भाव करके अंतर्दृष्टि करें तो ढंग बन पायेगा अन्यथा याने बाह्यपदार्थों में दृष्टि रख रखकर ढंग न बन पायेगा ।
निगोद जीवों का विवरण―यहां बतला रहे हैं कि प्रारंभ में इस जीव की क्या हालत थी ? प्रारंभ के मायने अनादि । यह निगोद । निगोद में क्या बात बीतती है ? तो शास्त्रों में स्पष्ट इसका कथन किया गया है । एक श्वास में 18 बार जन्म मरण करना पड़ता है । श्वांस के मायने नाड़ी के एक बार उचकने में जितना समय लगे उतने का नाम एक श्वांस है । यहाँ मुख के श्वांस का नाम श्वांस नहीं है । तो यों समझिये कि एक सेकेंड में करीब 23 बार जन्म-मरण होता है । यह बात शास्त्रों में कही है । हम उस तरह इसे आंखों तो नहीं देख सकते जैसे पशुपक्षियों के दुःखों को देख रहे हैं, लेकिन यह बात असत्य यों नहीं है कि जिन ऋषि संतों ने मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्वों का वर्णन किया है, जिनका ध्येय विशुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्टि का रहा है, जिनका ध्यान वीतरागता की ओर अग्रसर होते रहने का रहा है, जो अवधिज्ञानी व मनःपर्ययज्ञानी भी थे, जिन्होंने केवली भगवान व श्रुतकेवली की निकटता भी प्राप्त की थी, वै भला असत्य वचन कैसे कह सकेंगे? जिन तत्त्वों में हमारी युक्ति से गति हो सकती है उनके वर्णित स्वरूप में जब हम वहाँ निर्वाधता पाते हैं और अनुभव से हम उसे सत्य करार कर लेते हैं तो जो परोक्ष बात है उसकी सत्यता में क्या संदेह? देखिये―निकृष्ट से निकृष्ट जीव यहाँ जो दिखते हैं उनसे भी निकृष्ट जीव हैं, और सबसे निकृष्ट ये निगोद जीव हैं । एकेंद्रिय जीव के 5 भेद कहे गए हैं―पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । वनस्पति के दो भेद कहे गए हैं―प्रत्येकवनस्पति और साधारणवनस्पति । तो साधारणवनस्पति का नाम निगोद है । यह एक ऐसा ही निगोद शरीर है कि एक जीव मरे तो सब मरे, एक जीव जन्म ले तो सब जन्म लें । जिनका आहरण एक समान है, जिनका श्वांस एक समान है, जन्म और मृत्यु भी सबकी एक साथ है, क्योंकि एक शरीर का आधार है, और उस एक औदारिक शरीर में ये सब भिन्न-भिन्न जीव अपने भिन्न-भिन्न सूक्ष्म शरीर में रहते हुए दुःख पाया करते हैं ।
साधारण वनस्पति का परिचय―जो कुछ वनस्पति दिखने में आ रही हैं वे सब प्रत्येक वनस्पति हैं । जो भक्ष्य हैं वे भी प्रत्येकवनस्पति हैं । और जिन्हें अभक्ष्य कहा है आलू, कंद आदिक, वे भी प्रत्येकवनस्पति हैं । साधारणवनस्पति तो आँखों दिख नहीं सकते । सो कंदादिक भी प्रत्येकवनस्पति हैं, परंतु साधारणवनस्पति सहित प्रत्येकवनस्पति कहलाते हैं । जिनका नाम हैं प्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति । उन्हें साधारणवनस्पति शब्द से लोग कह देते हैं, पर शुद्ध नाम उनका आलू आदिक कंदों का साधारणवनस्पति नहीं है । सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति है । साधारणवनस्पति तो केवल निगोद को कहते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं―निराधार और साधार । वनस्पतिकाय दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय आदिक औदारिक शरीर जहाँ रह सकते हैं उनके आधार में निगोद जीव हैं और इन शरीरों के बिना ये सर्वत्र निगोद जीव बसे हैं । जहां हम आप पोल समझते हैं वहाँ भी अनंत निगोदिया जीव भरे पड़े हैं । ये निराधार कहलाते हैं । और, आलू वगैरह में जो निगोद हैं वे साधार कहलाते हैं । तो ऐसे सूक्ष्म और वादर निगोद से यह सारा जगत व्याप्त है, और ये निगोद अनादि काल चले आये हैं । जिन्होंने अभी तक निगोद पर्याय नहीं छोड़ा है ऐसे अनंत जीव हैं, उन्हें कहते हैं, नित्यनिगोद । और, जिन्होंने निगोदपर्याय छोड़ दी थी, यहाँ व्यवहार रीति में आ गए थे, पृथ्वी आदिक एकेंद्रिय हो, गए, अथवा दोइंद्रिय हो गए, मनुष्य, देव आदिक हो गए और फिर भी निगोद में पहुंचे तो उनको कहते हैं इतरनगोद ।
असावधानी का फल―अब अपनी-अपनी बात सोचिये―यह जीव निगोद से निकल आया कि नहीं ? अपने आपकी बात सोचो―यह तो स्पष्ट है कि हम आप निगोद से निकल आये और उससे भी आगे दोइंद्रिय तीनइंद्रिय आदिक को भी उल्लंघन करके हम पंचेंद्रिय हुए, लेकिन यह ध्यान में रखने की बात है कि अब यदि नहीं चेतते हैं और अटपट ही रहते हैं, व्यर्थ का जो मोह लगा है, उससे ही मोह बना हुआ है तो वही निगोद दशा फिर होने को है । थोड़े बहुत अन्य-अन्य भवों में जायेंगे, पर जहाँ सावधानी नहीं है वहाँ यही निर्णय है कि आखिर निगोद होना पड़ेगा । असावधानी के मायने हैं कि विषयों का प्रेम, कषायों की वासना, पर का उपयोग, अपने आपकी सुध न रहे ऐसी रहे बेहोशी तो ऐसे वातावरण में जो जीवन गुजरता है वह असावधानी है । एक कथानक है कि एक साधु महाराज के पास एक चूहा रहता था, उस चूहे पर एक दिन बिल्ली झपटी, चूहा बिल्ली से भयभीत हो गया, तो साधु ने चूहे को आशीर्वाद दे दिया बिडालो भव अर्थात् तू भी बिल्ली बन जा । लो चूहा बिल्ली बन गया । एक बार उस बिल्ली पर झपटा कुत्ता तो बिल्ली भयभीत हो गयी । साधु ने पुन: बिल्ली को आशीर्वाद दिया कि श्वाभव अर्थात् तू भी कुत्ता बन जा । बिल्ली कुत्ता बन गयी । उस कुत्ते पर एक दिन झपटा व्याघ्र । कुत्ता भयभीत हो गया तो साधु ने आशीर्वाद दिया―व्याघ्रो भव अर्थात् तू भी व्याघ्र बन जा । वह कुत्ता व्याघ्र बन गया । एक दिन उस व्याघ्र पर झपटा सिंह, व्याघ्र भयभीत हो गया तो साधु ने आशीर्वाद दिया―सिंहो भव अर्थात् तू भी सिंह बन जा । अब देखिये वह चूहा सिंह बन गया । अब उस सिंह को लगी भूख । पास में कुछ खाने को तो था नहीं, सो सोचा कि इन्हीं साधु महाराज को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहिए । जब साधु ने सिंह के मन की बात को पहिचान लिया तो कहा―पुन: मूषको भव अर्थात् तू फिर चूहा बन जा । अरे जिसके आशीर्वाद से वह चूहा सिंह बना उसी पर वह आक्रमण करने लगे तो उसका फल यह तो होगा ही कि पुन: चूहा बनेगा । तो ऐसे ही यहाँ देखिये―जिस आत्मदेव की निर्मलता के प्रसाद से यह जीव कुयोनियों से उठकर पंचेंद्रिय हुआ, मनुष्य हुआ, इतना श्रेष्ठ भव पाया, अब यहाँ ही उस आत्मदेव पर हमला बोला जाय, विषयों का प्रेम, कषायों की वासना आदि यह अपने भगवान पर हमला करना ही तो है । तो यहाँ यह आशीर्वाद मिलेगा कि पुन: निगोद भव, याने फिर से निगोद हो जा ।
निगोद जीवों की दशा व गणना―निगोद जीव सर्वजीवों से निकृष्ट दशा वाला जीव है । जैसे बताते हैं ना, कि एक आलू के जरा से टुकड़े में कितने ही निगोद जीव बसे हुए हैं । कंद के खाने से उन अनंत स्थावर जीवों का घात हो जाता है । वे तो साधार हैं, पर निराधार निगोदिया जीव कितने ही भरे पड़े हैं, जो बताया गया है कि सिद्ध जीवों से अनंत गुने संसारी जीव हैं, इस वचन की रक्षा ये निगोदिया जीव कर रहे हैं । नहीं तो निगोद को छोड़कर बाकी सब प्रकार के संसारी जीव सिद्धों से कम हैं । [ ये निगोद भी काम आ रहे हैं जिनागम के वचनों की बात निभाने में (हंसी)] तो यह जीव अनंतकाल तक निगोद में बसा और वहाँ से निकला तो पृथ्वीकायादिक हुआ । अब यहाँ 6 भेद समझ लीजिए एकेंद्रिय के, पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, प्रत्येकवनस्पतिकाय और साधारण वनस्पतिकाय । तो जीव अनादि से साधारण वनस्पति में रहा, वहाँ
से निकला तो इन 5 प्रकार के स्थावरों में जन्म लिया । प्रत्येकवनस्पति हुआ तो निगोद से निकला हुआ ही समझिये । पृथ्वी आदिक हुआ तो निगोद से निकलकर हुआ । यों इस जीव ने निगोद में अनंत काल व्यतीत किया । भक्ष्य अभक्ष्य के विवेक की पद्धति यों है कि त्रस जीव का जहाँ घात होता हो उस अभक्ष्य का त्याग होना अत्यंत आवश्यक है । और, फिर जहाँ अनंत स्थावर जीवों का घात होता हो ऐसे पदार्थो का त्याग हो । इन निगोदों में मांस तो नहीं है मगर संख्या तो अनंत है । एक कंद के घात में अनंत निगोद जीवों का घात होता है ।
निगोद जीव की आयु व निगोद में बने रहने का काल―ऐसे निगोद जीवों में अनंतकाल तक यह जीव रहता आया है सो यह सामान्य वचन कहा । कहीं ऐसा अर्थ न लगा लेना कि निगोदिया जीवों की आयु अनंतकाल की होती है । इतर निगोद भी अधिक से अधिक ढाई पुद्गल परिवर्तन तक रहते हैं तो उनकी भी इतनी आयु नहीं है । आयु तो निगोद जीवों की एक श्वांस के 18 वें भाग प्रमाण है । इतनी स्वल्प आयु है । वे निगोद-निगोद में रहकर अनंतकाल बिता देते हैं । बहुत से निगोदिया जीव तो ऐसे हैं जो कभी निगोद का वास छोड़ते ही नहीं । ऐसे जीव नित्य निगोद कहलाते हैं । तो इतना निर्णय तो हम आपको कर ही लेना चाहिए कि हम नित्य निगोद नहीं है, इतर निगोद भी नहीं हैं । पर सावधानी न रखेंगे तो इतर निगोद हो सकेंगे । ऐसे निगोद से निकल कर यह जीव पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और प्रत्येकवनस्पतिकायिक आदिक हुआ । इन 5 स्थावरों में भी विशेष पापी जीव माने गए अग्निकायिक और वायुकायिक जीव । दूसरे गुणस्थान में मरण होने पर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक में तो उत्पन्न हो जाय, पर अग्निकायिक और वायुकायिक में उत्पत्ति नहीं है अर्थात् अपर्याप्त अग्नि और वायु में दूसरा गुणस्थान न होगा । पर्याप्त में तो किसी भी एकेंद्रिय के दूसरा गुणस्थान नहीं है । ऐसे इन 5 प्रकार के स्थावरों में यह जीव बहुत काल तक रहा । पृथ्वी आदिक में भी असंख्याते काल तक रहता है । अब यह जीव कदाचित वहाँ से निकला तो किस-किस तरह से निकलने की बात होती है, सो बताते हैं ।