वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 285
From जैनकोष
तत्थ वि असंख कालं बायर-सुहुमेसु कुणइ परियत्तं ।
चिंतामणि व्व दुलहं तसत्तणं लहदि कट्टेण ।।285।।
त्रस पर्याय पाने की दुर्लभता―निगोद में अनंतकाल यह जीव रहा । वहाँ से निकलकर पृथ्वीकाय आदिक में असंख्याते काल तक रहा, और वहाँ से निकलकर त्रस हो जाय तो यों समझिये कि चिंतामणि रत्न पाने की तरह दुर्लभ बात पा ली । जैसे खुली जगह में चौहट्टे में जहाँ से बहुत से लोगों का आना जाना बना रहता है वहाँ पर खोया हुआ चिंतामणि रत्न मिलना अति दुर्लभ है, अथवा समुद्र में फिका हुआ चिंतामणि रत्न मिलना दुर्लभ है इसी प्रकार त्रस पर्याय का पाना दुर्लभ है । अपनी-अपनी बात संभालने का ध्यान रहे तो संभाल होता है और दूसरों की संभाल के लिए जो यत्न रखे, उपदेश देकर, ज्ञान देकर, अन्य उपायों से दूसरों के उपकार की ही बात चित्त में रखे तो दूसरों का उपकार हो गया क्या, यह भी नहीं कहा जा सकता और खुद का तो कुछ
कहना ही नहीं । 10 आदमी अगर खुद-खुद की संभाल में लगे तो वे सब संभल जायेंगे । और, वे दसों व्यक्ति अगर दूसरों की संभाल में लगे तो वे न संभलेंगे । अपनी बात देखना है कि किस-किस तरह से जन्म-मरण करते हुए कैसी-कैसी कुयोनियों को पार करके आज इस श्रेष्ठ जैनशासन में हम आये हुए हैं । यहाँ आकर क्या मोह करना ? अपना कर्तव्य है ? मोह कहते हैं बेहोशी को । मोह कहो, मुग्धता कहो, मूढ़ता कहो, बेहोशी कहो एक ही बात है । जैसे मदिरापान करके होता क्या है ? बेहोशी, ऐसे ही मोह करके होता क्या है ? बेहोशी । मोह में और राग में अंतर है । राग हो, बेहोशी न रहे यह स्थिति हो सकती है, पर मोह में बेहोशी रहती ही है । अपने आपकी सुध न होना यही है बेहोशी । तो यों, जीव निगोद में अनंतकाल व अन्य स्थावरों में असंख्य काल भ्रमण करके बड़ी कठिनाई से त्रस पर्याय को प्राप्त हुआ ।