वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 304
From जैनकोष
तेणुवइट्ठो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं ।
पठमो बारह-भेओ दह-भेओ भासिओ विदिओ ।।304।।
सर्वज्ञोपदिष्ट द्विविध धर्म―सर्वज्ञदेव ने जो धर्म का उपदेश किया है वह दो प्रकार के पुरुषों के लिए किया गया है । एक तो गृहस्थ दूसरे मुनि । जो संग में रह रहे हैं संगासक्त हैं, परिग्रह रखे बिना जिनका गुजारा नहीं है उनका धर्म बताया है और जो संगरहित हैं ऐसे साधुपुरुषों का धर्म बताया । दो प्रकार के धर्मों का वर्णन किया । इस प्रसंग में यह भी सोच लेना कि दो प्रकार के धर्म चारित्र की अपेक्षा बताये गए है । पर इन दोनों प्रकार के धर्मों का मूल सम्यग्दर्शन है । सम्यक्त्व न हो तो श्रावक के व्रत भी धर्म न कहला सकेंगे और मुनियों के व्रत भी धर्म न कहला सकेंगे । तो सम्यग्दर्शन का कुछ वर्णन आगे आयेगा, उससे पहिले यह बताया जा रहा कि धर्म गृहस्थों का और साधुओं का दो प्रकार से बताया है सर्वज्ञदेव ने । जिसमें गृहस्थों का धर्म तो 12 प्रकार का बताया है और साधुओं का धर्म 10 प्रकार का बताया है । 12 भेद हैं ―एक अविरत सम्यक्त्व व 11 प्रतिमायें । ऐसे 12 भेदों वाला धर्म तो श्रावक का है । इसका वर्णन इसी प्रकरण में स्पष्टरूप से किया जायेगा । मतलब यह है कि इन बारह पदों में 5 पापों के एकदेश त्याग का निर्देशन है तारतम्यरूप से । यह तो है गृहस्थों का धर्म । चूँकि वे गृहस्थ हैं सो उनका सर्वदेश त्याग नहीं हो सकता । और मुनियों का धर्म है उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव आदिक 10 प्रकार के धर्म उनका पालन । यह है मुनियों का धर्म । इस प्रकार धर्म के दो भेदों की
सूचना करके पहिले श्रावक के जो 12 भेद कहे हैं उन 12 भेदों को एक समीचीन पद्धति से बतला रहे हैं ।