वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 314
From जैनकोष
विषयासत्तो वि सया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि ।
मोह-विलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेय ।।314।।
मोहविलास की हेयता―विषयों में आसक्त होने वालों का, समस्त आरंभों में प्रवृत्ति करने वालों का देखो यह मोह का विलास कितनी विडंबना करने वाला है, ऐसा समझकर इन सबको वह हेय समझता है । लोग विषयों में आसक्त हो रहे हैं तो वहाँ यह निरखना है कि यह जीव तो जीव में है, ये बाह्यविषय विषय में हैं, इसका उससे कुछ भी संबंध है नहीं, फिर भी अपने आपके प्रदेश में रहते हुये ये मोही जीव कितना अपने को निर्धन निःसार अनुभव कर रहे हैं ? बाहर में सुख की आशा करते हैं और सुख मानते हैं । जो अपने को अपने सहज आनंद से लबालब भरा हुआ मानता है वह रीता नहीं है, वह तृप्त है, भरा हुआ हैं आनंदमय है । जिस जीव को अपने उस सहज परमआनंद की खबर नही है ऐसा पुरुष ही बाहर से सुख की आशा रखता है । लोग व्यर्थ घबड़ाते हैं कि मुझ पर बड़ी विपदा आयी है । अरे विपदा बाह्यपदार्थ से नहीं आती । अपने आपकी सुध भूलें हैं इसलिए घबड़ाते हैं और मानते हैं कि मुझ पर बाह्यपदार्थों से यह विपदा आयी हुई है। जब इस अमूर्त जीव में किसी भी बाह्यपदार्थ का प्रवेश नहीं हो सकता तो विपदा कहा आ जायगी ? जिसको शरीरवेदना से कुछ पीड़ा होती है और अपने में विपदा अनुभव करते हैं उनका भी यही हाल है । इस अमूर्त जीव में इस शरीर से कुछ भी विपदा नहीं आ सकती है । लेकिन दृढ़ता नहीं है, इतना ज्ञानप्रकाश नहीं है अतएव जैसे साधारणजन किसी बाह्यपदार्थ से अपने में विपदा मानते हैं तो यह भी इस शरीर की वेदना से अपने में विपदा पाकर दुःखी होते हैं । जिन साधुओं का ऐसा चरित्र है कि जिन्हें शेरनी ने भखा, स्यालिनी ने भखा, जिनके शिर पर अंगीठी जलाई गई, जो घर में बंद करके जला दिए गए, लेकिन उनको केवलज्ञान हुआ । कहीं विपदा के समय में विपदा का अनुभव करते हुए में केवलज्ञान हो सकता है ? शुद्ध आनंद की प्राप्ति शुद्ध आनंद के अनुभव से ही हो सकती है । उन साधुजनों को परमआनंद था, तृप्ति थी । वे अपने स्वरूप को स्पष्ट निरख रहे थे, जहाँ किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है ऐसे अपने स्वरूप को जान रहे थे, उन्हें केवलज्ञान हुआ । तो शरीर से उन्हें कुछ विपदा आयी क्या ? यहाँ हम आप जो कभी थोड़ा कायरपने की बातें करने लगते हैं―‘‘शरीर अच्छा होगा तो सब धर्मसाधन होगा, शरीर पर ही सब कुछ धर्म करना आधारित है,’’ ये कमजोरी की स्थिति की बातें हैं, जब दृढ़ता नहीं है तो यह कथन भी कथंचित् सत्य है कि शरीर स्वस्थ होगा तो धर्मसाधन करते बनेगा, मगर यह शाश्वत सत्य नहीं जिनको इतना स्पष्ट भेदविज्ञान जग गया कि यह मैं ज्ञानमात्र अमूर्तआत्मा, स्वतंत्र निरापद हूँ, इसमें बाह्य से कुछ नहीं आता और मुझे किसी बाह्य की कुछ चाह नहीं है, बाह्य की धुन नहीं है, जो जीने की भी आशा नहीं रखता, किसी भी बाह्य तत्त्व को अपना परमात्मा नहीं मानता, ऐसी दृढ़ प्रतीति वाले जीव को शरीर वेदना से भी कोई बिगाड़ नहीं होता ।
अपने निरापदस्वरूप को निरखने वाले के बिगाड़ की असंभवता―बताया यहाँ यह जा रहा है कि ज्ञानी जीव अपने निरापद स्वरूप को निरख रहा है । इस कारण सबको हेय समझता है । लोग सोचते हैं कि अभी कुछ थोड़ा और जिंदा रह जावें, अभी इतना काम और करने को पड़ा है घर, दूकान, परिवार समाज आदि का तो ऐसा सोचने वाला व्यक्ति अभी मोह में है । अभी मैंने धर्म नहीं कर पाया, अभी मैंने ज्ञानार्जन नहीं किया, धर्म को अच्छी तरह नहीं कर पाया, मुझे अभी जीवन की जरूरत है, ऐसा सोचने वाला व्यक्ति यद्यपि उतना मोही नहीं है, किंतु उसका भी यह मोह का ही प्रलाप है । जो उद्यत हैं, तैयार हैं, पुरुषार्थी हैं, मोक्षमार्ग के सुभट है, उनका तो यह निर्णय है कि मेरा कारण इसी समय आ जाय तो आ जाय, कोई फिक्र नहीं है । यह तो बड़ी अच्छी बात है कि हम सावधान हैं और हमारी दृष्टि इस निजस्वरूप में जा रही है, हमें उस धुन का आनंद मिला है । ऐसी स्थिति में किसी का मरण हो तो उसका बिगाड़ क्या ? रही यह बात कि जिस संपर्क में रह रहे हैं वह बिछुड़ जायगा, तो बिछुड़ा हुआ तो अभी भी है । अब उनका क्या होगा, ऐसी शंका न रखना, क्योंकि सभी जीवों का अपना-अपना पुण्य पृथक-पृथक है । बड़े घराने के बच्चे बड़े लाड़प्यार से पाले जाते हैं फिर भी बड़े दुर्बल रहते हैं और भिखारियों के बच्चे जो मिट्टी के डलों पर लोटते हैं वें खूब हृष्ट पुष्ट रहते हैं, तो सबका अपने-अपने ढंग में उदय न्यारा-न्यारा है । किसी बालक को अगर कोई जंगल में फेंक दे, पर उसका उदय अनुकूल है तो देवता उसकी रक्षा करते हैं । ऐसे अनेक उदाहरण पुराणों में मिले हैं और एक उदाहरण तो अभी कुछ ही वर्षों पहिले का है जब कि भारत देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था । बुंदेलखंड में एक राजमाता राज्य करती थी उनके अपने पति के मर जाने के बाद तो तभी उस राजमाता पर किसी मुगल ने आक्रमण कर दिया । उससे मुकाबला करने के लिए वह राजमाता युद्ध के लिए निकल पड़ी, पर उन दिनों उसके पेट में गर्भ था, बच्चा उत्पन्न होने के दिन थे, उस युद्धस्थल में ही उसका पेटदर्द शुरू हो गया, अब राजमाता सोचने लगी कि बच्चा यदि यहाँ पैदा होता है तो हत्यारों द्वारा यह मार डाला जायगा, इसलिए युद्धस्थल को छोड़कर वह बाहर की ओर भागी । रास्ते में ही बच्चा पैदा हो गया, उसे एक झाड़ी में फैंककर वह राजमाता कहीं दूर निकल गई । 7 दिन के बाद वह राजमाता लौटकर आती है तो अपने बच्चे को खूब हृष्ट पुष्ट खेलता हुआ पाती है । हुआ क्या था कि जिस जगह वह बच्चा फिक गया था उसी के ठीक सामने ऊपर एक मधुमक्खियों का छत्ता लगा हुआ था । सो शहद की एक-एक बूंद उस बच्चे के मुख में प्रवेश कर रही थी । उसी से बच्चा पुष्ट रहा । तो देखिये कैसा उसका उदय था ? सबका उदय न्यारा-न्यारा है । तो किसकी फिक्र करना ? अगर किसी के पाप का उदय है तो कितना ही आप उसे सुख सुविधायें प्रदान करें पर वह ज्यों का त्यों दुखिया रहेगा ।
ज्ञानी की दृष्टि में अमीरी और गरीबी―सम्यग्दृष्टि पुरुष तो ऐसा अनुभव करता है कि यहाँ मेरे पर तो कोई भार नहीं है, मैं तो एक अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ, इस मुझ पर किसी पर से कोई विपदा नहीं आती । ऐसा निरापद ज्ञानमात्र अपने आपको निरखता है । यहाँ हम आप इतना साहस नहीं बनाते हैं कि यहाँ किसी भी पड़ोसी, देशवासी, मित्रजन आदि से अपने बड़प्पन की चाह न रहे । यह हिम्मत नहीं, जगती कि सर्व से उपेक्षा करके अपने आपके स्वरूप में समा सकते हैं। चाहे सारा जहान प्रशंसा करे तो उससे इस जीव को लाभ क्या मिलता, अथवा सारा जहान इस जीव की निंदा करे तो भी इसका बिगाड़ क्या होता ? जिसने अपने उस ज्ञानानंदस्वरूप का अनुभव किया है वह अमीर है और जिनकी दृष्टि बाहर ही बाहर डोल रही है वे गरीब हैं । बाहर में उनको कैसी ही स्थिति मिली हो, वे गरीब हैं । ज्ञानी पुरुष जानता है कि कैसा ये मोही प्राणी इन विषयों में आसक्त हो रहे हैं । खुद-खुद में है, विषय-विषय में है, किसी से कुछ संबंध नहीं है पर अपने आपके भीतर न समाकर बाहर में कुछ आशा बना करके ये मोही प्राणी दुःखी हो रहे हैं । आरंभ परिग्रह के कार्यों में लगे हुए ये जीव कितना दु:खी हैं । ये दूकान, ये कारखाने, ये बड़े-बड़े वैभव जो मिले हैं ये इस जीव के क्या लगते हैं ? इस जीव को समझने वाला यहाँ है कौन ? यह अज्ञानी प्राणी परवस्तुओं की आशा कर करके अपने में रीता बन गया । यह अपने ज्ञानानंदस्वरूप की सुध नहीं रख रहा । तो बाहर में इतना आरंभ परिग्रह में वृत्ति रखना यह तो मोह का विलास है । लोग तो बड़े आदमियों को (धनिकों को) देखकर यह विचार बनाते हैं कि ऐसे ही ठाठ, ऐसी ही अमीरी हमें भी मिले, पर सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष इन ठाठबाटों को देखकर उन पर दया कर रहा है कि ये बेचारे कितने दु:खी हैं ? अपने आपके स्वरूप से बाहर इनका ज्ञान दौड़ रहा है, अहो इन बेचारों की बड़ी दयनीय स्थिति है । तो देखिये―ज्ञान और अज्ञान की धारा में ज्ञानी और अज्ञानी में कितना अंतर है ? ज्ञानी पुरुष इन सब बाह्य प्रसंगों को हेय समझता है ।