वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 318
From जैनकोष
दोस-सहियं पि देवं जीव-हिंसाइ-संजुदं धम्मं ।
गंथासत्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिठी ।।318।।
कुदृष्टि के सदोष देव की आराधना―जो जीव दोषसहित आत्मा को तो देव मानता है, जीव हिंसा आदिक से सहित को धर्म मानता है और परिग्रहों में आसक्त को गुरु मानता है वह मिथ्यादृष्टि है । जिसकी दृष्टि खोटी हो उसे कुदृष्टि कहते हैं । वस्तु का जिस प्रकार स्वरूप नहीं है या जो पर्याय जिस रूप नहीं है उसको उस रूप से समझना यह ही उसकी विपरीत दृष्टि है । जिन पुरुषों में क्षुधा तृषा रागद्वेष भय मोहादिक 18 दोष पाये जाते हैं उनको देव मानना अथवा कुछ दोष नहीं है, ऐसा स्वीकार करके भी कुछ दोषों को मानना ऐसे दोष से संयुक्त पुरुष को देव नहीं कह सकते । जो दोषसहित पुरुष को देव मानते हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं । जैसे अनेक लोगों की कल्पनायें हैं कि भगवान के साथ उनकी स्त्री व उनके बच्चे आदि भी होते हैं, वे भगवान घर में भी रहते हैं, लोगों से बातें भी किया करते हैं और जहाँ चाहे चोरी से दूध दही भी खा आयें, किसी भी प्रकार अपने को कौतूहल बताये, तो यह उनकी विपरीत दृष्टि है । इसी प्रकार जीव हिंसा आदिक प्रवृत्तियों से सहित प्रवृत्तियों को धर्म मानें सो भी मिथ्यात्व है । अनेक पुरुष अनेक प्रकार के यज्ञों की कल्पनायें करते हैं । बकरा, थोड़ा, गाय, हाथी आदिक की बलि करके अनेक प्रकार के यज्ञ मानते हैं । उनमें उन जीवों की बलि किया करते हैं । और मानते हैं कि हमने धर्म किया । कितना महान अज्ञान अंधेरा है कि धर्म तो अपने भगवान आत्मा में विराजमान शुद्ध तत्त्व है जिसकी दृष्टि करना धर्मपालन है, उसे तो जानते नहीं हैं और अपने ही जीवों के समान चैतन्यस्वरूप वाले इन पशु पक्षी आदिक पर्यायों में आये हुए को होम देते हैं, बलि कर देते हैं । यह महान मोह का विलास है । कुछ लोग देवी देव में, पितर आदिक की श्रद्धा किया करते हैं, श्राद्ध मानते हैं । हम अमुक देव देवी को भेंट चढ़ायें या अमुक नदी को भेंट दें तो वह भेंट दी हुई चीज हमारे पिता के पास पहुंच जायगी । या जो चीज हम इन पंडों को दे दें वह चीज हमारे पिता के पास पहुंच जायगी, ऐसी मिथ्या कल्पना करते हैं और ऐसी प्रवृत्ति करते हैं वह भी मिथ्यात्व है । भला जब वह बाप जीवित था तब तो सुख से पानी तक भी नहीं दे सके और मरने के बाद उनके पास गाय, पलंग, वस्त्र आदि पहुंचा रहे हैं तो यह कितनी मूढ़ता है ? तो जो जीव हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदिक से भरी हुई, परिग्रहों की आसक्ति वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि जीव हैं ।
कुदेवत्व का आशय व उसकी आराधना का दुष्परिणाम―लोग अनेक घटनाओं में यह कल्पना भी कर डालते हैं कि देखो भगवान होकर भी यह झूठ बोलना पड़ा, तो ऐसा झूठ बोलना भी धर्म है । भगवान होकर भी उन्होंने चोरी की तो इस तरह के चोरी करने में क्या पाप है ? अथवा भगवान होकर भी अनेक स्त्रियों में, गोपियों में, परस्त्रियों में रमे तो परस्त्री रमण क्या पाप है ? तो कुदेव की घटना की बात कह-कहकर अपने आपमें पाप की वासना बनाते हैं वह सब अधर्म है । यद्यपि वस्तु दृष्टि से वह कुदेव नहीं है । जिसे लोगों ने कुदेवरूप से मान डाला है वह कुदेव नहीं है । वह तो जो है सो है । जैसी उनकी स्थिति थी, लेकिन यहाँ के लोग उनको देव मानते हैं बस यह कुदेवपना सिद्ध होता है । जैसे जो भी अपने जमाने में ऐसे पुरुष हुए हैं, जिन्होंने शंख, चक्र, गदा आदिक शस्त्रों को लिया था, जिन्होंने मानी हुई राधा गोपी आदिक को अंगीकार किया था, तो वे तो जो थे सो ही हैं । वे अपने समय के एक पुण्य वाले पुरुष थे । उन्होंने क्या किया, यह बात भी आज लोग स्पष्ट नहीं समझ पाते हैं, पर उनके संबंध में उन्हें रागी द्वेषी बताकर फिर उन्हें देव माने तो यह कुदेवपने की बात आती है । तो इससे यह सिद्ध होता है कि कुदेवपने की सिद्धि भगवान के अभिप्राय के कारण है । वह तो जो है सो है । देव है तो देव है, देव नहीं है तो नहीं है । कुदेवपने की क्या बात ? यदि कोई भगवान हो, गया तो भगवान है और न हो सका केवलज्ञानी तो संसारी है, अब कुदेवपने की बात उनमें नहीं है, लेकिन जो जीव रागी द्वेषी को भी देव मानते हों तब कहना पड़ता है कि वह तो कुदेव है । जैसे यहाँ भी महावीर भगवान वीतराग सर्वज्ञ हैं, जो हैं सो है, लेकिन कोई भक्त पुरुष ऐसी भक्ति करे और ऐसा स्वरूप जाने कि यह महावीर किसी को पुत्र देते हैं, धन देते हैं, मुकदमा जिताते हैं तो अब उस भक्त की दृष्टि ने उन्हें कुदेव बना डाला । पर क्या वे कुदेव हैं ? या तो कोई देव है या देव नहीं है । कुपने की बात वस्तु में नहीं डटी है या वह पुरुष जो रागी द्वेषी है और अपने को यह सिद्ध करे कि देव हो या दुनिया में यह बात फैले कि मैं देव हूँ तब भी उन्हें कह सकते कि वे कुदेव हैं । कुदेवपने की बात तो बना करके हुआ करती है वस्तु में नहीं है ।
कुगुरु की आराधना का मिथ्यात्व―जो जीव रागी द्वेषी पुरुष को कुदेव मानते, जीव हिंसा आदिक प्रवृत्तियों से सहित आचार को धर्म मानते वे पुरष मिथ्यादृष्टि हैं, इसी प्रकार जो पुरुष परिग्रह में तो आसक्त हैं, खेत रखे हैं, मकान बनाये हैं, बैल, घोड़ा, हाथी आदिक रखे हैं, गद्दियाँ हैं, जायदाद हैं, स्त्री पुत्रादिक हैं, जैसा कि अनेक लोग अभी भी यह ख्याल करते हैं कि बहुत से ऋषि जंगलों में रहते थे, उनके पत्नी होती थी, बच्चे बच्चियां होती थीं फिर भी ऋषि कहलाते थे । तो ऐसे ये सारे ख्याल मिथ्या हैं, जो परिग्रह में आसक्त पुरुष को गुरु मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । देव वही हो सकता है जो निर्दोष हो, धर्म वही हो सकता है जिसमें स्वपर दया बसी हो, गुरु वही हो सकता है जो परिग्रह से रहित विशुद्ध हो, इसके अतिरिक्त अन्य को देव, धर्म, गुरु माने तो वह मिथ्यादृष्टि है ।