वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 319
From जैनकोष
ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं ।
उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ।।319।।
अन्य के द्वारा अन्य जीव का उपकार लक्ष्मी वितरण आदि किये जाने की अशक्यता―कोई पुरुष ऐसा मानते हैं कि देव लक्ष्मी को देते हैं और लक्ष्मीपति, याने लक्ष्मी नाम की कोई स्त्री है, उनके वे पति हैं । ये लक्ष्मीपति देव हैं, ऐसी मुद्रा बनाकर उनकी भक्ति करते हैं कि ये उपकार करते हैं, तो ऐसा ख्याल भी मिथ्या है । कोई भी देव अन्य कोई भी लक्ष्मी को नहीं देता है । कोई भी पुरुष जीव का उपकार नहीं करता है । उपकार और अपकार तो शुभ अशुभ कर्म के उदय से हुआ करते हैं । अनेक प्रकार के लोगों ने नाम रख रखे हैं देव के―हरि, हिरण्यगर्भ, गजानन, मूषकवाहन, अथवा बहुत से आज के परिकल्पित नाम―व्यंतर, काली, चंडी, क्षेत्रपाल, आदिक । ज्योतिषी देवों के नाम पर लोग देवता की कल्पना करते हैं सूर्य, चंद्र, गृह आदिक ये कोई भी स्वर्ण, रत्न, धन धान्य आदि, लक्ष्मी को नहीं देते हैं, यदि कोई देव लक्ष्मी को देने लगें तो फिर लोग व्यापार क्यों करें ? सभी लोग एक ही काम में लग जायें, बैठे रहें, आराधना करें, देव उन्हें लक्ष्मी दे जायें पर ऐसा हो नहीं सकता है । और कदाचित ऐसा हो भी जाय तो यों समझना चाहिए कि कोई व्यंतर आदिक सहाय बन गया उस लक्ष्मी प्राप्ति में तो जैसे ये मनुष्यजन लक्ष्मी प्राप्ति में निमित्त हो जाते हैं वैसे ही वे भी हो गए, पर कब हुए ? जब स्वकीय पुण्य का उदय हो । तो अपने ही शुभ कर्मों का उदय उसमें निमित्त हुआ, अन्य कोई निमित्त नहीं हुआ ।
वैभवलाभ में पुण्यकर्म का निमित्तत्त्व―एक बार किसी राजा ने अपने मंत्रि से एक बहुत बढ़िया घोड़ा लाने को कहा । मंत्री को एक नगर के किसी सेठ का घोड़ा बहुत अच्छा दिखा । मंत्री ने सेठ से राजा के लिए घोड़े की माँग की, तो सेठ बड़ा खुश हुआ कि चलो अच्छी बात है जो हमारी कोई चीज राजा के काम तो आयी । सो वह स्वयं उस घोड़े को लेकर मंत्री के साथ गया । राजा को सेठ ने घोड़ा भेंट किया । राजा सेठ पर बहुत प्रसन्न हुआ और कहा―ऐ सेठजी तुमसे हमें बड़ा स्नेह है । जब कभी तुम्हारे दिनों का फेर हो तो हमारी याद अवश्य करना । समय की बात-कुछ ही वर्षों में वह सेठ दरिद्र हो गया, उसी राजा के पास जाकर निवेदन किया, अपना हाल कह सुनाया, तो राजा ने उस सेठ को एक मकान दिलवा दिया और खर्च के लिए कुछ बकरियाँ दे दीं । और कह दिया कि अपना समाचार प्रत्येक दो तीन दिन बाद में देते रहना । सो सेठ राजा के पास प्रत्येक दो तीन दिन बाद जाता और यह रिपोर्ट देता कि आज तो इतनी बकरियाँ कम हो गईं अथवा आज इतनी बकरियाँ बढ़ गई । थोड़े दिन बाद में जब बकरियों की संख्या बढने लगी तो राजा ने कहा ऐ सेठ अब तू जितना चाहे रुपया हमसे लेकर कोई व्यापार चालू कर दे...क्यों ?...इसलिए कि अब तेरा पुण्य का उदय चल रहा है । अब जिस व्यापार को तू करेगा बस फायदा ही फायदा होगा । तो सेठ बोला―जब हमारे पुण्य का उदय आ गया तब तो हमें आपसे कुछ भी न चाहिए, हम स्वयं ही कुछ थोड़ा बहुत उद्यम करके आगे बढ़ जायेंगे । तो जब शुभ कर्मों का उदय होता है तो साधारण बातें भी निमित्त हो जाती हैं और जब पाप का उदय होता है तो कितने ही पुण्य समागम प्राप्त हो सब विघट जाते हैं ।
जीव के अपकार में पापकर्म का निमित्तत्व―देखिये―अकृतपुण्य बालक को राजा ने निकाल दिया, और उस पुत्र के स्नेह से उसकी माता भी उसके साथ गई और साथ में बहुत सी मोहरें ले गई । अनाज की गाड़ियां भी भरवा ले गई । लेकिन पापोदय के कारण वे मोहरें रास्ते में आग बन गईं और गाड़ियों का अनाज छेदों से निकल-निकलकर रास्ते में बिखरता गया । कुछ न रहा । तो जिसका उदय अनुकूल नहीं है उसकी कोई कितनी ही परवाह करे, मगर कुछ भी कार्यकारी न होगी ।
लोग धनसंचय इस कारण कर रहे हैं कि हमारे ये पुत्र पुत्री उत्तरदायी रहेंगे, अधिकारी रहेंगे, ये सुख से रहेंगे। तो उनका यह ख्याल गलत है कि हमारे कमाने से धन बढ़ेगा और उस धन के ब्याज से ही या किराये से ही अपना गुजारा कर लेंगे, अरे पता नहीं, पाप का उदय आये कि वह मूल धन कहाँ से निकल जाय ? अथवा वह सब जायदाद न जाने कहां से खतम हो जाय ? वर्तमान में अपनी सम्हाल नहीं कर रहे, परदृष्टि में बढ़ रहे तो वर्तमान में जो अपना घात कर रहे हैं उनकी प्रवृत्ति दूसरों को सुखदायी क्या हो सकेगी ? जो लोग यह बुद्धि करते हैं कि कोई देव देवी लक्ष्मी आदिक का वितरण कर देगा वह पुरुष मिथ्यादृष्टि है । कोई भी देव लक्ष्मी आदिक का वितरण नहीं करता, यह तो शुभ अशुभ कर्म के उदय से प्राप्त होता है ।
उपकार अपकार में कर्म का मात्र निमित्तत्व―अब शुभ अशुभ कर्मों की भी बात सुनो―ये कर्म भी कोई अलग से स्वतंत्र प्रभु नहीं हैं, किंतु खुद ही ने जो कुछ अपने भाव से कमाया है बस उस ही भाव के कारण जो कर्म बँध जाते हैं, उन्हें ही पुण्य और पापकर्म कहते हैं । तो अपने द्वारा पूर्व में उपार्जित जो शुभ अथवा अशुभ भाव हैं उनके होने के कारण जो पुण्यकर्म और पापकर्म का बंध हुआ उसके उदय में इस जीव को स्वयं ऐसे समागम प्राप्त होते हैं कि जिससे जीव सुखी अथवा दुःखी होता है । तो यों सीधा कह लीजिए कि शुभ अशुभ कर्म जीव को सुख दुख करते हैं, किंतु अन्य कोई देवी देवता इस जीव का सुख दुःख लक्ष्मी आदिक को नहीं करते । तब उन कुदेवों और रागी देवों की ओर दृष्टि क्यों देना ? भक्ति उपासना क्यों करना ? अब कोई यह भी शंका कर सकता है कि फिर वीतराग सर्वज्ञदेव की भी उपासना क्यों करना ? वे भी तो कुछ नहीं दे सकते ? तो उसका उत्तर यह है कि जो ज्ञानी भक्त हैं वे वीतराग सर्वज्ञदेव की भक्ति उनसे कुछ चाहने के लिए नहीं करते किंतु अपने स्वरूप की आराधना करके लिए वीतराग सर्वज्ञदेव के गुणों में दृष्टि करते हैं । हमारा स्वरूप रागद्वेषरहित ज्ञाताद्रष्टा रहने का है और यह बात प्रकट रूप से वीतराग सर्वज्ञदेव में हो गई है तो उन गुणों का चिंतन हम अपना मोक्षमार्ग बनाने के लिए करते हैं । तो आत्मलाभ के लिए देव, शास्त्र, गुरु की आराधना है, किंतु सांसारिक लाभ की सिद्धि उनकी आराधना से न होगी । और होती है तब तो इस प्रकार होती है कि देव, शास्त्र, गुरु की आराधना के भाव में जो कर्म बँधते हैं वे प्राय: पुण्य रूप बंधते हैं और जब, उस पुण्य के उदय में सुख आदिक की प्राप्ति होती है, सो अर्थ यह हुआ कि अपने ही भावों के द्वारा अपना भविष्य बनाया जाता है ।