वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 320
From जैनकोष
भत्तीए पुज्जमाणौ विंतर-देवो वि देदि जदि लच्छी ।
तो किं धम्मे कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी ।।320।।
भक्ति से पूजे गये भी देवी देवों द्वारा उपकार का अभाव―अब यहाँ सम्यग्दृष्टि पुरुष का चिंतन बता रहे हैं कि ज्ञानी पुरुष इस प्रकार का चिंतन करता है कि देखिये―यदि भक्ति से पूजा गया कोई व्यंतर देव लक्ष्मी को दे देता है ऐसा स्वीकार किया जाय तब फिर लोग धर्म को क्यों करें ? एक ही काम करें और धर्म की ही बात क्या ? व्यापार आदिक को भी क्यों करें ? वे तो एक उस देव की आराधना में ही लग जायें । विनय से पूजे गए ये व्यंतर आदिक देव यदि लक्ष्मी को दे दें तब फिर धर्म करने की प्रवृत्ति नहीं रहनी चाहिए । लोग धन के आकांक्षी हैं, तो ठीक है, चाहते हैं कि किसी तरह धन की प्राप्ति हो और इस धन के लोभ में न्याय अन्य कुछ नहीं गिनते । किसी देवता से धन माँगा तो इसका अर्थ हो गया कि उस अन्याय करने में भी देव मदद करे । लोग देवता की पूजा करते हैं उनकी बोल कबूल किया करते हैं तो उनके धर्म का अंग यह ही मात्र रहा कि किसी न किसी देवता को पूजना । तो यों समझिये कि जैसे उन देवी देवताओं की पूजा बहाने के रूप से कुछ लालच दिया जा रहा और उनका अपना काम बनाया जा रहा, लेकिन ऐसा नहीं होता । ज्ञानी पुरुष जानता है कि कोई देवता न कुछ दे सकता और न कुछ ले सकता । वह तो धन-संपदा आदिक को क्षणभंगुर जानता और पुण्य पाप के अनुकूल समागम प्राप्त होते हैं ऐसा निर्णय किए रहता है । यह लक्ष्मी चंचल है, आज है कल नहीं है, आज जीवित है,, कल मरण हो गया तो लक्ष्मी यहीं पड़ी रहती है अथवा जीवित अवस्था में ही सब लक्ष्मी एकदम नष्ट हो सकती है, तो लक्ष्मी के लालच में ज्ञानी पुरुष नहीं आते । उसे क्षणभंगुर समझ रहे हैं और थोड़े बहुत धन की आवश्यकता होती है सो साधारण गृहस्थी के नाते से उद्यम करते रहते हैं ।
ज्ञानियों द्वारा आत्महित के उद्देश्य से वीतराग सर्वज्ञदेव का आराधन―ज्ञानी जन सांसारिक देवी देवताओं की मान्यता में नहीं आते, वे तो आत्महित की भावना से वीतराग सर्वज्ञदेव का आश्रय लेते हैं । मेरा कल्याण हो, मेरी बरबादी इन विषयकषायों के अनुसार है । हे प्रभो ! मिथ्यात्व और विषयकषाय की वासना मेरी दूर हो, इसमें ही मेरा कल्याण है । तो जिसने यह वासना दूर कर ली है और अपने शुद्ध आनंद में मग्न रहा करता है, ऐसे वीतराग सर्वज्ञदेव की भक्ति में यह ज्ञानी पुरुष रहता है । उन्हें वह अपना आदर्श मानता है । जो बात मुझे चाहिए वह बात जिसने प्राप्त कर ली वह उनको आदर्श समझ करके उनकी उपासना में रहता है, उनसे मोक्ष भी नहीं चाहता यह ज्ञानी पुरुष कि वे मुझे मोक्ष दे दें । उसकी तो आदर्शरूप में पूजा हो रही है । जब ज्ञानी पुरुष तत्त्वचिंतन करता है, आत्मानुभूति करता है और अपने आपमें अपने आपको निरखकर तृप्त बना रहता है । तो भगवान अरहंत सिद्ध वीतराग सर्वज्ञदेव के गुणों की दृष्टि करना वही वास्तविक पूजा है । किसी कवि ने यह कहा है कि देखिये चंद्र बल तभी तक है, तारों का और भूमि का बल है, और तभी तक समस्त इष्ट कार्य सिद्ध होते हैं, तभी तक मंत्र तंत्र की महिमा है, तभी तक पौरुष काम करता है जब तक पुण्य का उदय है । पुण्य का क्षय होने पर ये समागम बिगड़ जाया करते हैं । ज्ञानीजीव इस पुण्य पाप फल को भली भाँति समझता है, वह
इसके लिए देवी देवताओं की पूजा नहीं करता ।