वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 101
From जैनकोष
शोचयंते स्वजनं मूर्खा: स्वकर्मफलभोगिनम्।
नात्मानं बुद्धिविध्वंसा यमदंष्ट्रांतरस्थितम्।।101।।
मूर्खों का विचित्र शोक― अपने-अपने कर्मों के अनुसार कर्मफल भोगने वाले इन कुटुंबीजनों का तो मूर्ख लोग शोक करते हैं। ये कुटुंबीजन कोई गुजर जायें, किसी को कठिन बीमारी हो जाय तो ऐसी स्थिति में ये मोही लोग अपने कुटुंब का शोक करते हैं, परंतु यम के दाढ़ों के बीच बैठे हुए हैं उसकी इन्हें रंच भी चिंता नहीं है। खुद मरण के सम्मुख हैं इसकी ओर तो ध्यान नहीं, किंतु बाहर में इष्ट के संयोग वियोग होने से जो कुछ स्थिति आ पड़ती है उसका ये लोग शोक करते हैं, यह बहुत बड़ी मूर्खता है। एक कवि ने लिखा है― करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामीति चिंतितं। मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्मृतं।। मैं करूँगा, मैं करूँगा, मैं करूँगा इसका तो बहुत ध्यान रक्खा, पर मैं मरूँगा, मैं मरूँगा, मैं मरूँगा यह बात बिल्कुल भूल गए। संसार के दृश्यमान् सभी मनुष्यों को देख लो, सभी को क्या खुद को भी देख लो। अपने आपके संबंध में यह मैं भी अचानक किसी समय मर जाऊँगा ऐसा स्पष्ट निर्णय नहीं हैं। कहते हैं, सुनते हैं पर जैसे औरों के संबंध में यह निर्णय बना हुआ है कि ये लोग तो किसी न किसी दिन मरेंगे ऐसा अपने बारे में इन मोही जीवों का स्पष्ट निर्णय नहीं है। कुछ-कुछ ख्याल तो होता है और उस मरने का ख्याल भी बहुत करता है, किंतु वहाँ स्पष्ट निर्णय अपनी मृत्यु के संबंध में नहीं है।
धर्मपालन के पात्र की चिंतकता― भैया ! धर्मपालन तभी हो सकता है जब अपने आपको ऐसा माना हो कि मृत्यु तो मेरे सिर पर आ चुकी है हिलाने भर की देर है, जिस किसी भी क्षण हिला दे उसी क्षण मरना पड़ेगा, ऐसी सिर पर आ पड़ी हुई मृत्यु का जिसे ख्याल हो वही धर्मपालन कर सकेगा। जैसे कहावत में कहते हैं― आज करे सो काल कर, कल करना सो परसों। जल्दी-जल्दी क्या पड़ी है अभी तो जीना बरसों।। जिसे अपनी मृत्यु का ख्याल नहीं, संभावना नहीं उसका धर्मपालन में चित्त नहीं लग सकता। मनुष्यभव में अनेक प्रसंग बड़े अनिष्ट हैं, जैसे कुटुंबीजनों का बिछुड़ जाना, शरीर में अनेक प्रकार के रोग आ जाना, लक्ष्मी का वैभव का नष्ट हो जाना, इज्जत में जब चाहे कुछ फर्क आ जाना, यों बहुत सी अनिष्ट बातें मनुष्यभव में हैं। देवभव में इतनी अनिष्टता नहीं है चिरकाल तक देवों की जितनी आयु है, उससे पहिले उनका मरण नहीं होता। खाने पीने की चिंता नहीं, सामर्थ्य और ऋद्धियाँ अनेक हैं। जहाँ क्लेश नहीं है, देवों के शरीर में रोग नहीं होता, भूख प्यास की बाधा नहीं इष्टवियोग का भी खासा दु:ख नहीं है। देवांगना मर गयी तो एवज में कुछ ही समय बाद फिर दूसरी आ गयी। कोई देव गुजर गया तो देवांगना को कुछ ही समय बाद दूसरा देव मिल गया। तो जहाँ इतनी मौज है वहाँ कल्याण का अवसर भी नहीं है।
आत्मीय विशुद्ध आनंद का स्रोत― एक जगह आचार्यदेव ने कहा है कि हमारे क्लेशों का होना, शरीर का गंदा रुग्ण मिलना, इष्टवियोग होना, ये सारी वेदनाएँ हमें आत्महित में प्रेरणा कराती हैं। कहते हैं ना लोग कि दु:ख में सब सुमिरन करें, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे तो दु:ख काहे को होय।। प्रभुस्मरण के समय का जो आनंद है वह आनंद बहुत-बहुत विषयों के भोगने में नहीं है। उसकी जाति ही न्यारी है। जब जगत् से न्यारे निर्लेप शुद्ध निर्दोष प्रभु के स्वरूप का ध्यान होता है और उस स्वरूप के स्मरण के साथ अपने आपके स्वभाव का भी स्पर्श होता है उस समय सहज निराकुलता जैसी स्थिति और उसका आनंद प्राप्त होता है, दोनों आनंदों में आप तुलना कर लीजिए। सांसारिक सुख याने विषयसुख एक तो क्षोभ से भरा हुआ है, अर्थात् इंद्रियसुख में तो प्रारंभ में क्षोभ, भोगते समय क्षोभ, बिछुड़ते समय क्षोभ, मिले तो क्षोभ और विषयों की आशा हो, मिले नहीं तो क्षोभ, किंतु आत्मा के सहज अंतस्तत्त्व के स्मरण में अनुभव में जो आनंद होता है वह क्षोभरहित समता को फैलाता हुआ विशुद्ध आनंद प्रकट होता है। उस आनंद की जिन्हें सुध नहीं है अतएव जो बुद्धिहीन हो गए हैं वे बाहरी बातों के संयोग वियोग का तो लेखा जोखा लगाते रहते हैं, किंतु अपने आपके संबंध में इतना भी ध्यान नहीं है कि हम तो यम के दाँतों के बीच फँसे हुए हैं, न जाने कब दबोच दे। अशरण भावना में अनेक पद्धतियों से यह बात दिखा रहे हैं कि इस जीव के लिए बाहर में कुछ भी दूसरा पदार्थ शरण नहीं है।