वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 100
From जैनकोष
जगत्त्रयजयी वीर एक एवांतक: क्षणे।
इच्छामात्रेण यस्यैते पतंति त्रिदशेश्वरा:।।100।।
अंतक की उद्धता― तीनों लोकों का जीतने वाला यह काल एक अद्वितीय सुभट है जिसकी इच्छा मात्र से ही ये बड़े-बड़े त्रिदशेश्वर अर्थात् देवेंद्र भी गिर जाते हैं, मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। देवों का नाम त्रिदश है। त्रिदश का अर्थ है तिस्र: दशा: समाना: यस्य स त्रिदश:। जिसकी तीनों दशाएँ बराबर हों उसे त्रिदश कहते हैं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा, वहाँ सब रंगा चंगा रहता है। अंतर्मुहूर्त में ही जवानी बन जाना और अंत तक भी उनको बुढ़ापा न आना। बुढ़ापे की शकल की भी कल्पना करो तो अधिक से अधिक इतनी कल्पना कर सकते हो कि किन्हीं देवों के 6 महीने आयु शेष रहने पर शरीर पर वक्षस्थल पर फूलमाला जैसा उनका आकार हो तो वह मुरझा जाता है। अधिक से अधिक इतनी बात संभव है, वह भी घबड़ाये हुए अज्ञानी देव की बात है। शरीर तब भी उनका पूर्ण यौवन संपन्न रहता है। जिसकी तीनों दशाएँ बराबर पुष्ट हैं, समान हैं ऐसे देव भी तो मृत्यु के समय गिर जाते हैं, उनका भी वश नहीं चलता है।
त्रिदशों की अन्यदशा― देवों में अनेक देव इन 6 माह के प्रकरण में इतना संक्लेश करते हैं जब उन्हें यह दिख रहा है कि अब मेरा मरण होगा, स्वर्ग जैसा ठाटबाट छूट जायेगा, रंगा चंगा दिव्य देह यह मिट जायेगा और मरकर नीचे जायेगा। मनुष्य बने या तिर्यंच बने, लेकिन जो भी घबड़ाहट रख रहा हो ऐसा देव तो तिर्यंच होगा ऐसा अनुमान और संभव है तिर्यंचों में भी एकेंद्रिय जीव बन जाय। उनके दु:ख का कोई अंदाजा लगा सकता है क्या? यहाँ मरने वाले मनुष्य से कितने गुना दु:ख उस मरने वाले देव के होता होगा। कहाँ वह जाय जो कि मृत्यु से बच जाय?
मरण की दुर्निवारता― एक किंबदंती है कि भगवान की सवारी का राजहंस कभी-कभी उड़कर एक तालाब से निकला करता था। उस तालाब में एक कछुवा था। उसका वह मित्र था। तो कभी-कभी वहाँ से यमराज निकलता था। (यह सब किंबदंती और अलंकार के रूप में सुनना) तो कभी किसी को मारने जाता था, कभी किसी को। रास्ता वही था। एक दिन यमराज बोला कि अब दो दिन के बाद इस कछुवे का भी मारने का नंबर आयेगा। यह कहकर यमराज चला गया। तो कछुवा राजहंस से बोला― अरे मित्र ! तुम तो भगवान् के दरबार के खास सेवक हो, परसों हमारी मृत्यु होगी। यमराज न छोड़ेगा, वह देख गया है और कह गया है। राजहंस बोला― मित्र तुम कुछ फिकर मत करो। तुम्हारी मृत्यु नहीं हो सकती। ऐसा उपाय हम रचेंगे। तो उसने उपाय क्या रचा? उस कछुवे को चोंच में दबाकर ले गया एक जंगल में और एक गुफा में उसको रख दिया और गुफा के दरवाजे पर पत्थर जोड़ दिया। देखें कैसे मारता है, इस जगह ही न रहने देंगे इस कछुवे को। हुआ क्या परसों के दिन कि उस जगह एक रीछ आया और उस रीछ ने अपने मुख से, थूंथरे से उन पत्थरों को हटाया और भीतर घुसा तो बड़ा पुष्ट कछुवा दिखा, उसे वहीं चबा डाला। अब वहाँ दरबार में सभी लोग बैठे थे तो वह हंस अपनी चतुराई की डींग हांक रहा था। यह यम जिस किसी को यों ही मार डालता है और हमने देखो अपने मित्र कछुवे को यों बचाया, यम की आँखों में भी धूल झोंक दिया। तो एक यम बोला― तुम जावो और अपने मित्र कछुवे को देख तो आवो कि कैसा है? वह राजहंस उसे देखने गया तो देखा कि वहाँ हड्डियाँ पड़ी हुई थी। इस कथनी से हम इतना सार लें कि बचने के लिए चाहे किसी जगह चले जायें, कहीं छिप जायें, तालाब में, पर्वत में, मंदिर में, किंतु जब समय आता है तो उसको कोई बचा नहीं सकता। और दूसरी बात यह देखिये मित्र की मित्रतावश उसकी मृत्यु का कारण बन जाता है।
निरापद स्थान का अभाव― अहो ! कहाँ जायें कि तेरी रक्षा हो जाय? और किसी की क्यों सोचें अपने आप ही हम आप लोग ऐसी रक्षा वाली जगह में बैठे हैं, कैसे? ऊपर तो देवों की छत्रछाया है हम मनुष्यों पर याने ऊपर रहते हैं देव, उनके नीचे हम आप हैं तो उनकी छत्रछाया हम आप पर है, और इस जगत् में बड़े दुष्ट जीव होते हैं नारकी, सो उनको भी जमीन के नीचे ढकेल दिया कि उन दुष्टों से अपना कुछ बिगाड़ न हो जाय। और देखो― अनगिनते खाइयाँ और अनगिनते कोट हम आपको घेरे हुए पड़े हैं― असंख्याते द्वीप और असंख्याते समुद्र ऐसे महान् अभेद्य समुद्र और कोटों से घिरे हुए रक्षित स्थान में हम आप बैठे हुए हैं, फिर भी हम आप बच कहाँ पाते हैं? जगत में कौनसा स्थान ऐसा है, कौनसा पद ऐसा है, कौनसा जीव ऐसा है जहाँ हम आपको ऐसी शरण मिले कि मृत्यु से भी हम आप छूट सकें? कहीं कुछ न मिलेगा। अपनी शरण अपने सहज स्वभाव का दर्शन ही है। उससे ही नाता जोड़ो, प्रीति करो, झुको, उसे ही अपना सर्वस्व जानकर इतना ही मात्र मैं हूँ, ऐसा निर्णय रखो तो अपना शरण अपने में मिलेगा और इन समस्त बाह्य विपत्तियों से भी छुटकारा होगा।