वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1022
From जैनकोष
हृषीकतस्करानीकं चित्तदुर्गांतराश्रितम्।
पुंसां विवेकमाणिक्यं हरत्येवानिवारितम्।।1022।।
चित्तदुर्गस्थ इंद्रियसेना द्वारा विवेकमाणिक्य का हरण―यह इंद्रिय की सेना हमारे विवेकरूपी रत्न को हर ले जाती है याने इंद्रिय विषयों में जो अभिलाषा है उसमें विवेक रहता नहीं है। तो विवेकरूपी रत्न को हरने वाली इस इंद्रिय सेना को चलो नष्ट कर दें। हाँ चलो। लेकिन हाँ सुनो― एक बड़ी कठिन बात यह है कि इंद्रिय सेना इतनी सुरक्षित जगह में रह रही है कि उस पर विजय पाना कठिन है। कहाँ रह रही है? इस चित्तरूपी किले में। इस चित्त को वश करना एक बड़ी कठिन बात है तब ही तो कहते हैं कि हम हैं उन चरणों के दास जिन्होंने मन मार लिया। ऐसे मन के कठोर किले में बस रही है यह इंद्रिय की सेना। उसे वश करना, इंद्रिय सेना का निवारण करना बड़ा कठिन है। अरे कठिन क्यों हैं? चलो इस दुर्ग को ही तोड़ो। इस चित्त को ही वश करो। चित्त को वश किए बिना इंद्रिय पर वश नहीं हो सकता। और, इंद्रिय पर वश हुए बिना अपने विवेक रत्न की, कभी रक्षा नहीं कर सकते। पहिला काम है मन को वश करना। मन कैसे वश हो? तत्त्वज्ञान और वैराग्य से। इस मनरूपी हाथी को ज्ञानरूपी सांकल से बाँधकर इसे वैराग्य के फंद में बाँध लो, वश हो जायगा। तो चित्त में बसी हुई ये इंद्रियाँ विषयाभिलाषायें इस विवेकरूपी रत्न को हर लेती हैं, नष्ट कर देती हैं, चुरा लेती हैं। तब कर्तव्य हमारा यह ही है कि हम तत्त्वज्ञान के वातावरण में अपने उपयोग को अधिक बनायें तो हमारी विजय हो सकेगी। अन्यथा नहीं। तत्त्वज्ञान के बनाये रहने के अनेक उपाय हैं।स्वाध्याय करें, चर्चा करें, ज्ञानी विरक्त संत जनों के निकट ही बैठ जावें, अपने मन में अनेक मंत्रस्मरण करें, सिद्धस्वरूप का स्मरण करें, अपने स्वरूप का स्मरण करें, अनेक साधन हैं। व्यग्र होने की आवश्यकता नहीं कि हम बहुत देर तक स्वाध्याय नहीं कर पाते। नेत्र थक जाते तो पड़े रहो आँखें मींचे हुए विश्राम से, ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ शुद्धं चिदस्मि, अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप की भावना कीजिए। मैं प्रभु की तरह शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ। कोई कहेगा कि वह काम कितनी देर किया जाय? तो भाई कितनी ही देर तक करते जावो, वह तो मन की सावधानी और उद्देश्य को दृढ़ बनाने पर आधारित है। कोई थकान नहीं होती। घंटों सोचते जावो, चिंतन करते जावो किसी प्रकार की ऊब न आयगी। तत्त्वज्ञान का वातावरण अधिक समय तक रहे तो मन को वश किया जा सकता है, अन्यथा मन को वश नहीं किया जा सकता।