वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1023
From जैनकोष
आपातमात्ररम्याणि विषयोत्थानि देहिनाम्।
विषपाकानि पर्यंते विद्धि सौख्यानि सर्वथा।।1023।।
आपातमात्ररम्य इंद्रियसुखों की विषपाकता― हे आत्मन् ! देखो― यह विषयों से उत्पन्न हुआ सुख कैसा है कि यह सेवनकाल में प्रारंभमात्र में यह बड़ा रम्य भासता है। विषयसेवन शुरू-शुरू में बड़े रमणीक जँचते हैं, परंतु जब इनका विपाक समय होता है तो यह विष के समान कड़वा फल देने वाला होता है। विषफल होता है कोई, वह देखने में तो सुंदर होता है मगर उसके भक्षण करने से मुख कड़वा हो जाता है।ऐसे ही ये विषय देखने में प्रारंभ में बड़े रमणीक लगते हैं, परंतु उनका फल बहुत कटुक है। जैसे जब खाज खुजाते हैं ना, तो प्रारंभ में कितना मौज सा लगता है। खुजाने में लग रहे, खूब आँखें मींचकर, उसके खुजाने में लवलीन हो रहे हैं, बड़ा मौज मानते हैं मगर खुजा लो उसके बाद जब दु:ख होता है तो ढीले-ढाले यों पड़े रहते हैं, दिल कड़ा करना पड़ता है, यह दशा हो जाती है। तो जैसे खाज खुजाना प्रारंभ में बड़ा रमणीक, सुंदर, सुखदायी मालूम होता है मगर फल अंत में दु:खदायी है।इसी तरह समस्त विषयों का सेवन प्रारंभ में सुखदाई मालूम होता है मगर फल अंत में दु:खदाई है।और, एक इंद्रिय की ही बात क्या? मन का भी विषय है। मन का विषय क्या है? नामवरी होना, यशकीर्ति होना, प्रसिद्धि होना, सब लोग तारीफ करें, जान जायें, हाँ हैं ये कुछ। तो जान तो सब जाते हैं, जिनमें नामवरी चाहा वे भी जान जाते हैं किहाँ है यह तुच्छ। और, भगवान भी जान जाते हैं कि यह है तुच्छ। और, हानिकितनी है कि जहाँ नाम पर दृष्टि है, यश प्रतिष्ठा पर दृष्टि है वहाँ आत्मा की सुध खो दिया। क्षणिक सिद्धांत में आश्रव के कारणों में नाम को पहिले रखा है। नाम, रूप, वेदना, विज्ञान, संस्कार ये हैं आश्रव के कारण। तो मन का भी विषय आपातमात्र रम्य है।जितनी देर को लोग कुछ कह रहे हैं, उतनी देर मन खुश हो रहा है और अपने आपको ऐसा भुलावे में डाल दिया है कि बस मेरे समान और कौन है, लेकिन वह भीतर में कितना विडंबना में पड़ गया कि उसका फल है जन्ममरण कर-कर घोर संकट सहना। तो ये समस्त विषय वर्तमान में तो रमणीक हैं परंतु इनका फल अंत में कटुक है।