वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1038
From जैनकोष
यत्सुखं वीतरागस्य मुने: प्रशमपूर्वकम्।
न तस्यानंतभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरै:।।1038।।
वीतराग मुनि का सुख― अपने आपको अपने आत्मज्ञान के बल से परपदार्थों से हटाकर अपने निकट ले आने पर जो एक विराग स्थिति बनती है उस वीतराग स्थिति में जो सुख होता है, जो आनंद जगता है वह आनंद इंद्रिय और मन के विषयों से होने वाले सुखों से विलक्षण है और बहुत अधिक बढ़कर है, और जो पर्याय से भी वीतरागी हो चुका है, जहाँ रागद्वेष का अभाव हो चुका है ऐसे वीतराग प्रभु के जो सुख होता है अथवा वीतराग साधु के मन में शांतिपूर्वक जो सुख होता है उसका अनंतवां भाग भी देवेंद्रों के द्वारा भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। देवेंद्रों का सुख एक संसारी अन्य प्राणी के सुख से ऊँचा है अर्थात् जिस सुख को संसारी प्राणी चाहते हैं उस सुख की वहाँ हद है जिनका वैक्रियक तो शरीर है, जिसे मरने का तो डर नहीं, ठंड गर्मी का डर नहीं, भूख प्यास की वेदना भी हजारों वर्षों में होती है और वह भी एक सोच लेने से ही कंठ में अमृत झरता है उससे भूख प्यास शांत हो जाती है, इतना उनके शरीर की ओर से सुखमय जीवन है, जिनकी देवांगनाएँ इंद्रिाणियाँ अनेक हैं और वे भी भाग्यशालिनी हैं सो उनकी भी चेष्टा बहुत ऊँची होती है। उनका व्यवहार वार्तालाप यह सब ऐसा ऊँचा होता है कि जिसको निरखकर इंद्र बहुत तृप्त रहा करता है। ऐसी देवांगनाओं का भी बड़ा सुख है। ऐसे सुखों को भोगता हुआ भी इंद्र वीतरागी आनंदवान पुरुषों के मुकाबले में तुच्छ है।
वीतरागता के आनंद की सांसारिक सकल सुखों से विलक्षणता― अथवा यह तो एक तुलना करके गुणा भाग बताया गया है कि इससे अनंतगुना सुख वीतराग प्रभु का है और यहाँ तक कहना पड़ता है वीतराग प्रभु के आनंद को बताने के लिए कि अतीत काल में जितने सुखी जीव हो चुके हैं इंद्रादिक अथवा भावी काल में जितने चक्रवर्ती आदिक होंगे, उन सबका भी सुख जोड़लिया जाय, जितने लोक में प्राणी हैं उन सबका भी सुख जोड़लिया जाय, उस सुख से भी अनंतगुणा सुख वीतराग प्रभु के है लेकिन इसमें भी बहुत कमी रह गई। कारण यह हे कि संसार के सुखों में और वीतरागता के आनंद में मूल से ही फर्क है। जाति ही न्यारी है। संसार का सुख झूठे प्रेम को लिए हुए रहता है। भले ही कोई ऊँचा सुख हो मगर वह सुख कल्पनाओं से अतीत नहीं है। उन सबमें कल्पनाएँबनी रहती हैं, और कल्पनाएँ करना जीव के लिए एक कलंक है। निर्विकल्प आनंद एक विलक्षण जाति का है। जब रागद्वेष नहीं रहता है तो वहाँ निर्विकल्प आनंद प्रकट होता है।
आकुलता का मूल साधन रागादि विकार― यद्यपि कल्पनाएँ करना यह ज्ञान का एक प्रकार का परिणमन है लेकिन यह परिणमन मात्र ज्ञान का नहीं है किंतु रागद्वेष के भावों के कारण यह परिणमन है, अतएव उसे ज्ञान का परिणमन कहें तो यह सर्वथा युक्त बात नहीं है। जिस दृष्टि से यह बताया गया है कि ज्ञान न मिथ्याज्ञान होता और न सम्यग्ज्ञान होता, ज्ञान तो ज्ञान है पर सम्यक्त्व केसाहचर्य से उसका सम्यग्ज्ञान नाम होता और मिथ्यात्व के साहचर्य से उसका मिथ्या ज्ञान नाम होता, पर ज्ञान के स्वरूप को देखकर तो यह कहा जायगा कि ज्ञान मायने जानकारी, जानन होता रहता है तो उस दृष्टि से इस ओर भी आयें कि इसमें विकल्प कल्पनाएँ क्षोभ वितर्क विचार विमर्श ये सब भी ज्ञान में कहाँ है। यद्यपि होते हैं एक ज्ञान की कला से ही पर इन सबमें रागद्वेष के पुट साथ लगे हुए होते हैं।
बाह्यदृष्टि से आनंद का विघात― संसार के जितने सुख हैं वे सब रागद्वेष के पुट लिए हुए होते हैं। जब राग के साहचर्य में होने वाला सुख और राग के भाव से केवल आत्मा की ही ओर से आत्मा के ही कारण होने वाला स्वाभाविक आनंद इन दोनों की जाति में ही मूलत: अंतर है, अतएव हम वीतराग प्रभु के सुख का क्या अंदाज लगा सकते हैं? वह पूर्ण आनंद है ऐसा आनंद प्रकट होना इस आत्मा के स्वभाव में ही है, यह कहीं बाहर से नहीं लाना है प्रत्युत बाहर की दृष्टि करके जो हमने विकार और दु:ख बना रखा है उन विकार और दु:खों को हटाना है। जो अति उत्कृष्ट बात है वह तो हमारे स्वरूप में पड़ी हुई है कहीं भी वह किसी भी बाहरी पदार्थ से नहीं लाना है लेकिन इस आत्मा पर यह बहुत आपत्ति पड़ी हुई है कि इसकी बाहर में दृष्टि गड़ती है और उसमें राग करके उनका संबंध बनाकर यह सुख प्राप्त करना चाहता है बस यही भूल इस जीव पर बहुत बड़ी विपदा की बात है। यह भूत मिटे, यह विपदा मिटे फिरे तो यह जीव स्वयं अपने आप समृद्ध है, समग्र है। जितनी चिंताएँ क्लेश शोक हम आप पर हावी बने हुए हैं उन सबका कारण क्या है? एक परवस्तु का मोह, पर वस्तु का राग।
धर्म के आशय में उपयोग की अंतर्गति― एक धर्म के प्रकरण में यह बात कही जा रही है। धन हानि, जन हानि का ख्याल करके जो चिंता बनती है अथवा देश पर किसी दूसरे देश का आक्रमण होने पर जो एक व्यग्रता बनती है वह चाहे लोक व्यवहार में ऐसी भी बात मानी जाय कि न करें तो लोग उसे कायर और घृणा की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन यह तो सोचिये कि यदि केवल अपने आपके स्वरूप की रुचि जगे, इसके निकट बसे तो चाहे लोक में कुछ से भी कुछ प्रवेश हो जाय उससे भी इस आत्मा का बिगाड़क्या है। जैसे एक वर्तमान प्रसंग है जैसा कि गुजर चुका है, दूसरे देश का हमला हुआ और चिंताएँहुई कि लोगों का जीवन कैसे रहेगा, आजीविका की बात कैसे बनेगी अथवा धर्मात्मावों का धर्मपालन कैसे होगा ये सब शंकाएँकी जा सकती हैं लेकिन आत्मा के शुद्ध तत्त्व का रुचिपूर्वक लगाव होता है तो यह भी क्षोभ नहीं हो सकता है। क्या है? दुनिया बहुत बड़ी है। कोई कारण ऐसा भी हो जाय कि जीवन भी न रहे तो भी यह में पूरा का पूरा ही अपने गुणों सहित अपनी समस्त समृद्धि सहित यत्र तत्र कहीं भी रह सकूँगा, अच्छे स्थान पर रह सकूँगा। मेरा तो लोक और परलोक केवल यह चैतन्यस्वरूप है पर इतनी दृढ़ता नहीं होती है तो सारी व्यग्रताएँ होती हैं।
तत्त्वज्ञान के कारण गृहस्थावस्था में भी व्यवहार व हित का सुगम हल― भैया !एक अपने गुजारने की व्यग्रता, दूसरी पोजीशन की व्यग्रता ये इस मनुष्य को बहुत तेज सता रही हैं। और, गृहस्थावस्था में इस मनुष्य का कोई वर्तमान सीधा हल भी नहीं है। इस बिना भी नहीं चलता उस बिना भी नहीं चलता और हल भी सीधा है। गृहस्थ जीवन में धर्म अर्थ काम इन तीन वर्गों का समान स्थान बताया है। ज्ञानी गृहस्थ में इतना बल है कि अपने कर्तव्य का निभाव करते हुए फिर चाहे कैसी ही बीते, उन घटनाओं का जाननहारमात्र रह सकता है। सब महात्म्य विशुद्धज्ञान का है। हम अपने वस्तुस्वरूप के अनुकूल ज्ञान बनायें तो हमें कहीं अशांति नहीं हो सकती। प्रत्येक वस्तु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मेरा मेरे में ही है। यद्यपि इस विषम परिस्थिति में एक दूसरे का निमित्त पाकर नाना विभावरूप परिणमन होते हैं। यह जानकर भी मानकर भी उस परिस्थिति में भी हम स्वतंत्रता निरख सकें तो यह हमारे ज्ञान की बड़ी उच्च कला समझियेगा।
परपदार्थ की परिणमन में निरपेक्षता― पर निमित्त होने पर विकार परिणमन होता है। तिस पर भी विकार रूप को प्राप्त यह उपादान अपनी ही स्वतंत्रता से परिणमा। केवल एक परिणमन मात्र की दृष्टि से निरखा जा रहा है। भले ही यह निमित्त हो। जैसे रत्नकरंड श्रावकाचार में बताया है कि भगवान की दिव्य ध्वनि स्वाभाविक होती है और यह सिद्ध करने के लिए दृष्टांत दिया गया है कि जैसे मृदंग में हाथ की चपेट पड़ती है यह तो ठीक है, लेकिन मृदंग जो आवाज देता है वह हाथ की अपेक्षा नहीं करता है, वह तो ऐसा निमित्त होने पर भी याने ऐसा निमित्त मिले बिना आवाज नहीं निकलती फिर भी, उसकी जो वृत्ति होती है उसकी अंत: दृष्टि देना है। विकार परिणमन के समय भी वह जीव अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अपने में विकार कर रहा है। किसी पर वस्तु के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को नहीं कर रहा है ऐसी स्वतंत्रता का वहाँ भी दर्शन किया जा सकता है।
ज्ञानप्रकरण में आत्महित की शिक्षा― सच बात तो यह हे कि जब प्रत्येक पदार्थ को हम उनको उन ही के स्वरूप सीमा में निरखा करते हैं तो स्वामित्व बुद्धि नहीं रहती, कर्तृत्व बुद्धि नहीं रहती, भोक्तृत्व बुद्धि नहीं रहती जो बुद्धि हमारे क्लेश का कारण है। तो हमारा हित जिसमें हो वैसी दृष्टि बनाना है। न हमें किसी को सुनाना है, न समझाना है, किसी को सुनाने और समझाने का काम भी किया जा रहा हो तो उसमें भी भाव यह होना चाहिए कि इस बहाने में भी तो सुन रहा हूँ, समझ रहा हूँ, अपने आपके निकट आने का यत्न कर रहा हूँ। तो आत्महित में उद्यम करना यही है इस मनुष्यजीवन की बुद्धिमानी। बाहर के किसी फँसाव में न आना, किसी से आशा न रखना, यों अपने आपके स्वरूप के निकट बसे रहने में ही अपना कल्याण है।