वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1037
From जैनकोष
तत्स्वरूपमजानानो जानोऽयं विधिवंचित:।
विषयेषु सुखं वेत्ति यत्स्यात्पाके विषान्नवत्।।1037।।
आत्मस्वरूप के अज्ञान में विषयसुखवेदना― यह आत्मा अपने सुख के कारण अपने स्वरूप से अपने ज्ञानानंद स्वरूपमात्र है जिसका विकास पूर्ण निराकुलता है और सर्वज्ञता है। यह अपने आपके एकत्व में अपने ही स्वरूप में रहता हुआ परमेष्ठी है, सबसे विविक्त है अतएव निरंजन है अनंत गुण रत्नों का समुद्र हे और संक्षेप में कह लीजिये तो यह परिपूर्ण है और अपने आप सब कुछ है, निराकुल है, किंतु ऐसे अपने स्वरूप को न जानता हुआ यह जीव कर्मों से वंचित होकर अर्थात् कर्मो द्वारा ठगाया गया होकर यह विषयों में सुखों का अनुभव करता है। जब इस जीव की दृष्टि अपने आपके स्वरूप में नहीं होती है तो यह बाहर की ओरचलता हैं, बाह्य पदार्थों में आसक्त होता है और विषयों में सुख समझता है। यद्यपि इस आदत के कारण इस प्रवृत्ति के कारण पद-पद में इसे अनेक विपदायें उपस्थित होती हैं, अनेक चिंताएँ, अनेक भय और अनेक विडंबनाएँ होती हैं जिससे यह दु:खी होता रहता है, लेकिन एक मोह धूल ऐसी पड़ी है कि जिन प्रवृत्तियों से यह दु:खी होता हे उन ही प्रवृत्तियों में इसकी बराबर वृत्ति बनती चली जाती है। यद्यपि इन समस्त विषय सुखों का परिपाक अत्यंत कटु है जैसे विषमिश्रित अन्न का भोजन मरण का ही करने वाला है, विघात करता है इसी प्रकार इन विषयसुखों का अनुभवन इस आत्मा के चैतन्यप्राण का घात करता है जिससे यह इस काल में भी दु:खी होता हे और भावी काल में भी दु:ख की परंपराओं में बढ़ता रहेगा लेकिन यह विवश हो रहा है।
विषयसुखविरति एवं स्वरूपवास में कल्याण― भैया !आज आत्मा का कल्याण इसमें है कि यह अपने स्वरूप के निकट अधिक बसा करे। पंचेंद्रिय के विषय सुखों में और मन के मानसिक काल्पनिक सुखों में न बहे। यह मनुष्य जब कभी इंद्रिय के विषयों के खातिर कुछ परिणति करता है वह अपराध इससे कहीं अधिक है। इंद्रियविषयों का तो कुछ आवश्यकताओं से भी संबंध है, उनमें विशेष परिणति और आसक्ति होना अयोग्य है। लेकिन संबंध कुछ ऐसा है कि जिससे कुछ परिणति करना होता है।जैसे क्षुधा तृषा लगी तो यह भोजन करता है। इसे भोजन करना एक आवश्यक सा हुआ है। अब इसमें वह आसक्ति न रखे, रसों में गृद्धता न रखे यह उसका काम है, पर कुछ आवश्यक पड़ जाता है इसी प्रकार शीतउष्णता की बाधा मिटाना अथवा स्वच्छ स्थान में रहना आदिक कुछ-कुछ जरूरी काम से हो जाते हैं लेकिन मन के विषय में जो कि एक पराई निंदा करना, दूसरों के अवगुणों पर दृष्टि रखना, दूसरों पर विपत्ति आने पर मन में हर्ष मानना आदिक जो मन की कल्पनाएँचलती हैं वे तो इसके लिए बड़ी भयंकर हैं। आत्मा का कर्तव्य तो यह है कि वह अपनी भलाई का चिंतवन और यत्न अधिक रखे।
कल्याण के लिये समय के सदुपयोग का ध्यान― इस मानव का समय तो बहुत गुजर गया, जो कुछ शेष रह गया वह इस गुजरे को देखकर ही समझ लें कि यह शेष जीवन भी बहुत शीघ्र गुजर जाना है। अब इस विनश्वर जीवन में हम अपने हित के लिए कुछ यत्न न करें, विधिपूर्वक सही ढंग से तो हमने यह अवसर व्यर्थ ही खो दिया समझिये। हम आत्महित से अपना अधिक प्रयोजन बनायें, गुणग्राहिता की दृष्टि बनायें क्योंकि मुझे गुण विकास चाहिए, आत्मविकास चाहिए, अन्य बातों में फँसने से अथवा दोषों का उपयोग रखने से आलोचना निंदा आदिक की बात रखने से हम अपने आपको किस प्रकार कल्याण में ले जा सकते हैं। तो ये पंच इंद्रिय और मन के विषय इन विषयों के अनुभवन में भोगने में आत्मा का हित नहीं है किंतु आत्महित है अपने आपके स्वरूप का चिंतन करके अपने निकट बने रहने में। इस लोक में कोई दूसरा मेरा शरण नहीं है। हम किस किसकी ओर दृष्टि गड़ायें, किससे प्रीति बंधन बनायें, कौन मेरा सहाय है कौन मुझे सुखी करेगा, कौन मेरा कल्याण करेगा? वह सब तो स्वयं के ही शुद्ध परिणमन से होने का है।
कुभावसंग के परिहार में लाभ― हाँ यहाँ एक सत्संग कुछ परिस्थिति में आवश्यक है कि हम गुणी चारित्रवान सम्वेगी पुरुषों का सत्संग करें और उनमें प्रीति बनाये रहें। वह सब केवल अपने गुणप्रेम गुणविकास और मोक्षमार्ग के लाभ के लिए है लेकिन किसी से ऐसा घुल मिलकर रहना कि जिससे लोक में कुछ हमारी पार्टी सी बने कुछ एक सा पक्ष बने, हम किसी दूसरे को विपक्षी मान लें और हम मुकाबले से हम किसी में अपनी प्रीति बनायें अथवा परिवारजनों में ये मेरे हैं इनसे अपना महत्त्व बढ़ रहा है, इनसे ही मेरी लोक में श्रेष्ठता मानी जाती है इस आशय से प्रीति बढ़ायें, लोगों के बीच में बैठकर हम अपने को इस गृहस्थी के कारण इस एक धनिकता के कारण अथवा स्त्री पुत्रादिक के भले होने के कारण कुछ अपना महत्त्व मानें, इन दृष्टियों से जो प्रीति उत्पन्न की जाती है वह भी बंधन है। लोक में कहीं भी मेरा दूसरा कोई शरण नहीं है। मेरा शरण तो मेरा यह आत्माराम है जो कि एक द्रव्यदृष्टि से निरखा जाने पर निर्विशेष निर्विकल्प एक ज्ञायकस्वभावमात्र विदित होता है ऐसे निजस्वरूप की दृष्टि करने से अपने आपकी निकटता प्राप्त होती है और ऐसे निकट बने रहने में ही हमारी भलाई है किंतु इस स्वरूप को न जानते हुए लोग इस विधि द्वारा वंचित होकर, जो हम कर्म करते हैं, जो हम विषय कषायों के परिणाम बनाते हैं उन परिणामों से ठगाये जाकर और इन परिणामों के निमित्त से जो कर्मबंधन हुआ करता है, हुआ था उसके उदयकाल में विवशता और परिस्थिति के बंधन में बंधकर ऐसा मैं ठगाया गया कि इन विषयसुखों का ही अनुभव न करता हूँ।
त्रुटियों के कटु विपाक से मुक्त होने के लिये आत्मवीर्य की उपासना― विषयसुखों के अनुभव के परिपाक नियम से कटु हैं। कुछ तो अपने इस थोड़े से जीवन में बीती हुई घटनाओं से समझ लें कि उन सब विडंबनाओं के और सुखानुभव के बाद आज हम कितने भरे पूरे हैं अथवा हममें कुछ विशेषता आयी है क्या? तो उत्तर इसका ‘‘न’’ ही होगा और बल्कि हमने उन विषयों को भोगा नहीं, किंतु उन प्रसंगों से मैं खुद भूगता चला गया। अब गलतियों को लंबा करने से काम न चलेगा। अपने आपके स्वरूप के निकट आने का काम करना चाहिए। यही आत्मध्यान संसार के क्लेशों से हमें मुक्त कर सकेगा। उस ही आत्मध्यान की चर्चा चल रही है और इस अध्याय में उस ध्यान का कुछ उपायबताया जायगा। सर्वप्रथम आत्मा का बल बताया जा रहा हे कि आत्मा कैसा समृद्धिशाली है। ऐसी समृद्धि को न जानकर आत्मा हीन बन रहा है। जिस चाहे परपदार्थों की ओर, जो कि विषयभूत हैं उनकी आशा में अपने आपको हीन बनाया जा रहा है।