वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1110
From जैनकोष
क्षीणरागं च्युतद्वेषं ध्वस्तमोहं सुसंवृतम्।
यदि चेत: समापन्नं तदा सिद्धं समीहितम्।।1110।।
चित्त के रागद्वेषरहित होने पर ही समीहितसिद्धि:―यदि अपना मन ऐसा बन सकता है कि जिसमें न कोई राग आये, न द्वेष आये, मोह भी ध्वस्त हो जाय, ऐसा यदि सम्वृत मन बना सकता हे तो समझ कि सव्र कुछ सिद्धि प्राप्त कर ली। चाहिए यह कि दु:ख न हो। और दु:ख नहीं होता है राग के न रहने से। यदि ऐसा उपाय बन जाय कि राग स्नेह न रहे तो उसने सब कुछ पा लिया अर्थात् अब क्लेश रहेगा नहीं। तो सिद्धि उसने ही पायी। अन्य वस्तुवों के समागम में कौनसी समृद्धि है? ये सुख दु:ख देकर जाते हैं। सुख दु:ख देकर जाते हैं― यह इसलिए कहा जाता कि दु:ख ही दु:ख किसी जीव के निरंतर चिरकाल तक नहीं रह सकता। यह एक परिणमन की प्रकृति है। कुछ न कुछ दु:ख में कमी आ जायगीएक, समान क्लेश रहता नहीं है। दु:ख के बाद सुख आता सुख के बाद दु:ख आता। तो ऐसा सुख किस काम का कि जिसके बाद दु:ख आये। संसार के सुखों के बात निरख लो। कुटुंब हुआ, संयोग हुआ, आज्ञाकारी पुत्रादिक हुए, कुछ मजे में समय बिताया। अब उस मजे का क्या करें कि जिसके बाद एकदम वज्राघात जैसा क्लेश आयेगा। वियोग तो होगा ही। खुद मरेंगे तो एक साथ सबका वियोग हुआ और अपनी जिंदगी में कोइ्र गुजरा तो उसका वियोग हुआ और गुजरने से वियोग हुआ तो गुजरने वाले का गया क्या? वह तो कहीं जाकर नया शरीर धारण करेगा। जो बच रहे वे तो बड़ा क्लेश मानेंगे। महिलायें तो दो-दो माह तक के लिए मंदिर भी जाना छोड देती हैं जो कि एक शांति का कारण है। मंदिर जायें तो उपयोग बदले, प्रभुमुद्रा निहारें, कुछ परिणाम में शांति आये, एक ऐसी वियोग की अशांति थी, अब शांति का साधन भी छोड दिया। संयोग का क्या करे? खूब सोच लो। इसमें रंच सार नहीं है। समय पाकर बात अच्छी तरह विदित हो जाती है और ज्ञानी पुरुष को बहुत ही अच्छी तरह विदित हो जाता है।
समागम के स्नेह में विषाद का लाभ:― जितने भी समागम हैं वे सब विनश्वर हैं। समागम की प्रीति में लाभ नहीं। जैसे कि रेलगाड़ी में बैठकर सफर कर रहे हैं, किसी यात्री से बात करने पर अधिक स्नेह हो जाय तो जब उसका जाने का स्टेशन आ गया तो जायगा ही। उसी समय देख लो कुछ थोड़ा बहुत दु:ख होता कि नहीं। उस 10-5 मिनट के संग से स्नेह से तो इतना क्लेश मिला, यह तो गैरों की बात है और जिनमें स्वच्छंद होकर स्नेह किया जा रहा है उन पदार्थों के वियोग में तो कितना इसे क्लेश न होगा? तो इन समागमों का कोई मूल्य नहीं है। इनसे राग छोडने में ही लाभ है, और जब राग छूटा, शिथिल हुआ तो फिर द्वेष कहाँ करेगा? जितने द्वेष होते हैं वे किसी न किसी बात के राग पर हुआ करते हैं। द्वेष छूटे। ये रागद्वेष मोह की संतान हैं। तो अब समझिये कि हमारा सारा मोह ध्वस्त हो, ऐसा नियंत्रित चित्त यदि बनाया जा सकता हैं तो समझ लीजिए कि मनोवांछित अर्थ की सिद्धि प्राप्त हुई। शांति के लिए जहाँ अनेक यत्न करते हैं यह एक भी यत्न करके देख लें। ऐसा ज्ञान बनायें, ऐसी भावना करें कि किसी बाह्य अर्थ में राग न आये, ऐसा एक अपना आचरण बने तो वह है शांति का सही उपाय। जिस तरह शांति आये उस तरह उपाय बनाना यह तो परमकर्तव्य ही है। ज्ञान पाने का फल भी यही है।कभी डगमगा भी जाय, यत्र तत्र स्नेह पहुँच भी जाय तो मांग तो एक ही है। कितनी भी भूल भटक गये हों तब भी शरण यह जैनशासन ही है। राग छोड़ो, द्वेष छोड़ो, मोह छोड़ो। जब चित्त यों मोहरहित हो जाता है तब समझिये कि मनोवांछित कार्यों की सिद्धि हुई है।