वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1109
From जैनकोष
प्रयासै: फल्गुभिर्मूढ किमात्मादंड्यतेऽधिकम्।
शक्यते नैहि चेच्चेत: कर्तुं रागादिवर्जितम्।।1109।।
मन को रागादिवर्जित किये बिना दंडविनाश की असंभवता― कहते हैं कि हे मुग्ध प्राणी ! यदि अपने चित्त को रागादिक से रहित नहीं बना सकते तो व्यर्थ के बड़े-बड़े परिश्रमों से, तपश्चरणों से, कायक्लेशों से आत्मा को इतना अधिक दंड क्यों देते हो? अर्थात् रागादिक मिटे तो अन्य प्रकार के श्रम करना, खेद करना निष्फल है। जो प्रयोजन था दीक्षा का, जो प्रयोजन था साधना का वह है मोक्षमार्ग। उसकी सिद्धि नहीं होती है जब तक सम्यग्ज्ञान और चारित्र नहीं बनता। अपने चित्त को कोई रागरहित कर ले तो उसने किया सर्व कुछ पुरुषार्थ संसार के संकटों से छूटने का। और यहाँ चित्त को रागहित तो बना न पाये और बाहरी क्रिया में कुछ भी करे तो उससे मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती। अत: हे मुमुक्षु ! ऐसा तत्त्वज्ञान जगा, ऐसा वातावरण बना, सत्संग बना, ज्ञानोपयोग में अधिक रत रह, जिससे कि चित्त रागादिक विकाररहित हो जाय, तब तो आत्मध्यान होगा और इसके प्रसाद से परमपुरुषार्थ मोक्षतत्त्व की सिद्धि होगी।